बिहार के स्कूलों में हाल के कुछ दिनों में ही 20 लाख बच्चों के नाम काट दिए गए। यानी इतने बच्चों के नाम स्कूल रजिस्टर से ख़त्म कर दिए गए। ऐसा नहीं है कि इतने बच्चों ने नाम कटवा लिए हैं या फिर उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी है। ये नाम सरकार के एक अभियान के तहत उन बच्चों के काटे गए हैं जो स्कूल में अनुपस्थित रहे हैं। इनमें क़रीब डेढ़ लाख छात्र वैसे हैं जो बोर्ड की परीक्षा देने वाले थे। तो सवाल है कि अब ये डेढ़ लाख बच्चे परीक्षा कैसे दे पाएँगे? नाम काटे जाने में क्या आरटीई यानी शिक्षा के अधिकार क़ानून का उल्लंघन नहीं हुआ?
कुछ ऐसे ही सवालों को लेकर शिक्षक संघ के लोग सरकार के इस फ़ैसले का विरोध कर रहे हैं और कह रहे हैं कि वे एनसीपीसीआर के सामने सरकार के फ़ैसले को चुनौती देंगे। इस पर शिक्षक संघ से जुड़े लोगों का क्या तर्क है, इसको जानने से पहले यह जान लें कि सरकार ने किस तर्क के आधार पर इतने बच्चों के नाम काटे हैं।
दरअसल, बिहार शिक्षा विभाग के निर्देश के तहत पिछले चार महीनों से सरकारी स्कूलों में निरीक्षण हो रहा है। स्कूलों को सबसे पहले 30 दिनों की अवधि के लिए अनुपस्थित रहने वाले छात्रों का पंजीकरण रद्द करने के लिए कहा गया था। बाद में इस अवधि को घटाकर 15 दिन कर दिया गया। और अब स्कूलों को उन छात्रों के नाम काटने को कहा गया जो स्कूल अधिकारियों को सूचित किए बिना लगातार तीन दिनों तक अनुपस्थित रहे।
राज्य के 38 जिलों के 70,000 से अधिक स्कूलों ने अब तक कक्षा 1 से 12 तक 20 लाख छात्रों के नाम स्कूल रोल से हटा दिए हैं। इन 20 लाख में से 1.5 लाख से अधिक कक्षा 10 और 12 में हैं।
रिपोर्ट है कि अनुपस्थिति वाले बच्चों के नाम काटे गए हैं। द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार अधिकारियों का कहना है कि इस कदम का मक़सद यह सुनिश्चित करना है कि सरकारी संसाधनों का कुशलतापूर्वक उपयोग किया जाए और योग्य छात्रों को लाभ दिया जाए। अधिकारियों ने कहा कि इसका उद्देश्य मिड-डे-मील योजना को सुव्यवस्थित करने में मदद करना और यह सुनिश्चित करना भी है कि स्कूल प्रबंधन भोजन के समय छात्रों की नकली उपस्थिति न बनाए।
तो सवाल है कि छात्र इतने लंबे समय तक अनुपस्थित क्यों रहते हैं? शिक्षा विभाग के एक अधिकारी के अनुसार अधिकारियों को पता चला है कि कई छात्र लंबे समय तक स्कूल से अनुपस्थित रहते हैं क्योंकि उनके माता-पिता या अभिभावक उनसे खेतों या अपने व्यवसायों में काम कराते हैं। अंग्रेजी अख़बार के अनुसार अधिकारी ने कहा, 'कुछ बच्चे सरकारी स्कूल में अपना नाम दर्ज कराते हुए निजी स्कूलों में भी पढ़ते हैं। हम स्कूलों में केवल गंभीर छात्र चाहते हैं ताकि हम उन पर ध्यान केंद्रित कर सकें। सभी सरकारी लाभ और छात्रवृत्तियाँ केवल वास्तविक छात्रों को ही मिलनी चाहिए। केवल नियमित छात्रों को ही सरकार की दोपहर के भोजन योजना का लाभ उठाना चाहिए।'
शिक्षक संघों ने कहा है कि वे इस फ़ैसले को राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के समक्ष चुनौती देंगे। इस क़दम का विरोध करते हुए बिहार शिक्षक पात्रता परीक्षा संघ के अध्यक्ष अमित विक्रम ने कहा कि सरकार को छात्रों को स्कूलों से पूरी तरह से दूर करने के बजाय उन्हें अधिक नियमित होने के लिए प्रेरित करने की कोशिश करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि आश्चर्य है कि सरकार ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम के प्रावधानों की अनदेखी की। उन्होंने कहा कि कोई स्कूल किसी बच्चे का नाम तभी काट सकता है, जब वह किसी अन्य स्कूल में नामांकित हो और बहुत लंबे समय से अनुपस्थित हो।
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