बीजेपी ने इसके लिए बहुत ही सुनियोजित और सोची समझी रणनीति पर काम किया। वह सीएए के मुद्दे पर कई महीनों तक चुप रही, इसके बदले वह इस पर बार-बार ज़ोर देती रही कि अंत में असम को विकास के रास्ते लाने में उसे ऐतिहासिक सफलता मिली है। पार्टी की रैलियाँ तड़क भड़क वाली होती थीं, जिसमें लंबे-चौड़े वायदे किए जाते थे और बढ़ा चढ़ा कर व्यंग्य भरी और अपमानजनक बातें कही जाती थीं। प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री समेत पार्टी के तमाम बड़े नेता असम की गौरवशाली विरासत की बातें बार-बार करते थे।
उन्होंने राज्य की सभ्यता- संस्कृति, परंपरा को अक्षुण्ण रखने का भरोसा लोगों को दिया और लोगों को आश्वस्त किया कि यदि फिर बीजेपी की सरकार बनी तो असम उग्रवाद, आन्दोलन, घुसपैठ, हिंसा, भ्रष्टाचार, बाढ़ और प्रदूषण से दूर रहेगा। राज्य के बीजेपी नेताओं ने अपने केंद्रीय नेताओं से 'बाहरी संस्कृति' और 'मुग़ल आक्रान्ताओं' के ख़िलाफ़ हुंकार लगाना भी सीख लिया। उन्होंने पुरानी घिसी-पिटी बातों को भी दुहराया कि कांग्रेस के लोग सिर्फ भ्रष्टाचार और 'मुसलिम तुष्टीकरण' में लगे रहे।
80 हज़ार करोड़ रुपए के क़र्ज़
इसके अलावा बीजेपी ने अंतिम दिनों में कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर अविश्वसनीय रकम राज्य को दिया, क्षेत्रीय रिपोर्टों के अनुसार 80 हज़ार करोड़ रुपए के क़र्ज़ असम सरकार को केंद्र से मिले। कहने कहने की ज़रूरत नहीं कि पहले से बीमार चल रही अर्थव्यवस्था वाले राज्य में आने वाली किसी सरकार के लिए यह बहुत बड़ा बोझ होगा।
पार्टी किसी तरह राज्य के लोगों का गुस्सा शांत करने में कामयाब रही है। लोगों को गुस्सा नोटबंदी, जीएसटी, बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी, आमदनी का बंद होने और कोरोना महामारी की वजह से लगे झटके से था।
गाँव-देहात के लोगों को लगता है कि यदि उन्होंने बीजेपी को वोट नहीं दिया तो केंद्र से पैसा मिलना बंद हो जाएगा। हालांकि सच तो यह है कि इस तरह उदारता से बड़ी रकम कोई लंबे समय तक नहीं दे सकता है, चुनाव के बाद इसका बंद होना लगभग तय है।
बीजेपी ने अगस्त 2020 में 8,756 नामघरों में से हर किसी को 2.5 लाख रुपए दिए। नामघर असम के गाँवों में सामाजिक जीवन के केंद्र होते हैं, हालांकि उनका असर धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।
मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने दावा किया है कि सीएए अब कोई मुद्दा नहीं रहा। इसके बावजूद बीजेपी इस पर बहुत आश्वस्त नहीं है कि वह 2016 की जीत को दुहरा सकेगी।
गुस्से में युवा
उसने चुनाव प्रचार के अंतिम चरण के लिए कुछ रैलियों की योजना बनाई हैं ताकि वह अंतिम समय मतदाताओं के निर्णय को प्रभावित कर सके।
असम के मंत्री हिमंत विश्व शर्मा जब नामांकन पत्र दाखिल करने गए तो उनके साथ हज़ारों लोगों का हुजूम था। पर विपक्षी दलों के नेताओं के बहुत पहले युवाओं ने बीजेपी के पाखंड, झूठे वायदों और खोखले दावों को लेकर उसकी तीखी आलोचना शुरू कर दी थी।
अलग-अलग दलों को लेकर बनाया हुआ कांग्रेस का महागठबंधन इस राष्ट्रीय दल की ख़ामियों और कमज़ोरियों के बावजूद बना रहा। इसका श्रेय वामपंथी दलों को जाता है जिन्होंने यह तय कर लिया है कि किसी कीमत पर वोट नहीं बँटने देना है।
कांग्रेस का जनाधार टूटा
कांग्रेस नेताओं का आम जनता से संपर्क पूरी तरह टूट चुका है। बीजेपी की ज़्यादतियों की वजह से ही जनता के बीच इनका समर्थन एक बार फिर बढ़ने लगा है।
जब तक अंतिम क्षणों तक महागठबंधन एकजुट होकर लगातार ज़ोर न लगाता रहे और पूरे जी जान से न जुटा रहे, यह मानने का कोई कारण नहीं है कि बीजेपी-विरोधी भावनाएँ अपने आप वोट में तब्दील हो जाएँगी।
कांग्रेस का अंतरकलह
उनके राज्य नेतृत्व के तमाम बड़े नेता आपस में ही भिड़े हुए हैं, गौरव गोगोई भी चुनाव मैदान में इस उम्मीद से उतर रहे हैं कि भविष्य में वे राज्य की राजनीति से जुड़ सकें। हाई कमान की ओर से भेजे गए कांग्रेसी नेता चीजों को दुरुस्त करने की कोशिश में जी- जान से लगे हुए हैं, पर उनके साथ दिक्क़त यह है कि उन्हें ज़मीनी सच्चाई की पूरी जानकारी नहीं है।
कांग्रेस अब अपने चुनाव प्रचार में बीजेपी की ग़लतियों और कमियों को उजागर करने में लगी हुई है। इसके चुनाव घोषणापत्र में जनता के मुद्दों को उठाया गया है, हालांकि उसने बीजेपी के लोकलुभावन सांप्रदायिक नैरेटिव को देखते हुए कई तरह की दुर्भाग्यपूर्ण रियायतें भी दी हैं। लेकिन कांग्रेस ने यह सही किया है कि सीएए पर उसने एक साफ़ स्टैंड लिया है।
चाय बागानों में बीजेपी हुई कमज़ोर
अंदरूनी कलह और जनाधार कमज़ोर होने की वजह से इसने कई निर्वाचन क्षेत्रों में कमज़ोर उम्मीदवार उतारे हैं। कई क्षेत्रों में इसे मुसलमान को भरपूर समर्थन हासिल है। चाय बागान के इलाक़ों में कांग्रेस तेज़ी से आगे बढ़ रही है, जहाँ से इसके पहले बीजेपी ने उसे उखाड़ फेंका था। बीजेपी को इस बात का डर था कि चाय बागान के मजदूरों का वेतन वगैरह बढ़ाने से बड़े पूंजीपति उससे नाराज़ हो जाएंगे, इससे चाय बागान के मजदूरो के बीच बीजेपी के प्रति असंतोष पनपा और उनकी नाराज़गी बढ़ी।
वामपंथी पार्टियों को जो कुछ सीटें मिली हैं, उन्हें उन्हीं से संतुष्ट रहना पड़ रहा है क्योंकि वे उनके सामने बीजेपी के सत्ता में फिर लौटने का डर है। ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के साथ कांग्रेस का महागठबंधन इन वामपंथी दलों के लिए सबसे बड़ा राजनीतिक जुआ है, क्योंकि प्रवासी मुसलमान वोटरों के मुद्दे पर ये दोनों लंबे समय से दल आपस में ही भिड़ते रहे हैं। लेकिन मुसलमानों के मन में बीजेपी को लेकर जो आशंकाएं हैं, उसका अच्छा ख़ासा फ़ायदा इन दलों को मिल सकता है।
बीजेपी हिन्दू असमियों और आदिवासियों के प्रति कथित ख़तरे की बात करती है और प्रचारित करती है कि महागठबंधन की जीत की स्थिति में एआईयूडीएफ़ के बदरुद्दीन अज़मल मुख्यमंत्री बनेंगे।
पर ऐसा लगता है कि इस रणनीति से सीमित फ़ायदा ही मिल सकता है। अज़मल एक पुरानपंथी मौलाना हैं, पर उन्हें इतनी समझ तो है कि असमिया विरोधी या हिन्दू विरोधी काम न करें।
बीजेपी विरोधी वोटों का बँटवारा
दोनों क्षेत्रीय पार्टियों, असम जातीय परिषद और राइजोर दल ने कहा है कि बीजेपी लोकतंत्र के लिए ख़तरा है और वह मूल निवासियों की पहचान को बदल कर रख देगी। ताज्जुब यह है कि इसके बावजूद इन दोनों ही दलों ने कांग्रेस से बराबर की दूरी बना रखी हैं और कहती फिर रही हैं कि राष्ट्रीय दलों का मूल मक़सद ही क्षेत्रीय हितों के उलट है। एजीपी में कई ऐसे दिग्गज़ नेता हैं तो चुनाव बाद गठजोड़ की स्थिति में कांग्रेस के बजाय बीजेपी को ही तरजीह दें।
गोगोई कांग्रेस के साथ अंतिम क्षण तक बहुत ही कड़ाई से मोल भाव करते रहे और इस पर डटे रहे कि वह एआईयूडीएफ़ को महागठबंधन से निकाल दे। कांग्रेस के नज़रिए यह असंभव था। वे सिर्फ कुछ सीटों पर ही चुनाव लड़ रहे हैं, इससे विपक्ष कमज़ोर ही हुआ है।
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