पांच महीने के अंतराल के बाद एक बार फिर असम में नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के ख़िलाफ़ बड़े आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। राज्य के प्रमुख छात्र संगठन ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के कार्यकर्ताओं ने 3 अगस्त को डिब्रूगढ़ की सड़कों पर मोटर साइकिल रैली निकाल कर सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया।
कोरोना महामारी के प्रकोप के बाद से असम के साथ-साथ देश के अन्य हिस्सों में भी सीएए विरोधी रैलियों को रोक दिया गया था।
आसू के सदस्यों ने असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल के आवास की ओर बढ़ने से पहले चौकीडिंगी से रैली शुरू की और शहर के सभी प्रमुख मार्गों से गुजरे। तिंगखोंग के लिए आगे बढ़ने से पहले सभी मोटरसाइकिलें मुख्यमंत्री निवास के पास रुक गईं और आसू के सदस्यों ने सीएए के ख़िलाफ़ नारे लगाए।
आसू, डिब्रूगढ़ के जिला महासचिव शंकर ज्योति बरुवा ने कहा, “सीएए के ख़िलाफ़ हमारा विरोध फिर से शुरू हो गया है। कोरोना महामारी के कारण हमने मार्च की शुरुआत से ही अपना आंदोलन स्थगित कर रखा था। अब यह पूरी शक्ति के साथ शुरू हो जाएगा। जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, असम 1971 के बाद राज्य में प्रवेश करने वाले एक भी बांग्लादेशी का बोझ नहीं उठाएगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलिम।"
आसू, कृषक मुक्ति संग्राम समिति और अन्य संगठनों द्वारा असम में सीएए के ख़िलाफ़ नए सिरे से आंदोलन का सूत्रपात कोरोना के बढ़ते संक्रमण के बीच राज्य में 2021 में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले राजनीतिक गहमागहमी की वापसी का संकेत देता है।
पहचान, संस्कृति को खतरा!
आंदोलनकारियों का तर्क है कि 1971 के बाद बांग्लादेश से आए हिंदू और अन्य गैर-मुसलिम "अवैध प्रवासियों" को भारतीय नागरिकता प्रदान करने से असमिया और अन्य स्थानीय समुदायों की पहचान, संस्कृति और विरासत के लिए खतरा पैदा हो जाएगा।
बीजेपी सरकार ने आश्वासन दिया था कि असम समझौते के खंड 6 के कार्यान्वयन से स्थानीय लोगों की भाषाई पहचान, संस्कृति-विरासत की रक्षा और संरक्षण के लिए संवैधानिक, विधायी और प्रशासनिक सुरक्षा उपायों की गारंटी होगी और इसलिए उन्हें सीएए को लेकर चिंतित नहीं होना चाहिए।
सीएए विरोधी आंदोलन शुरू होने के साथ राज्य में सर्बानंद सोनोवाल की अगुवाई वाली सरकार पर असम समझौते की धारा 6 पर उच्च-स्तरीय समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट की स्थिति को सार्वजनिक करने के लिए दबाव बढ़ जाएगा। न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) बिप्लब कुमार शर्मा की अध्यक्षता वाली समिति ने 25 फरवरी को मुख्यमंत्री सोनोवाल को यह रिपोर्ट सौंप दी थी।
कोरोना संक्रमण के चलते लॉकडाउन होने से जिस तरह असम में सीएए के ख़िलाफ़ प्रबल आंदोलन में ठहराव आया उससे सोनोवाल सरकार को काफी राहत मिली।
राज्य सरकार ने उच्च-स्तरीय समिति के सदस्यों द्वारा लगाए गए इन आरोपों का जवाब नहीं दिया है कि रिपोर्ट दिसपुर में धूल फांक रही है और अभी तक केंद्र सरकार को प्रस्तुत क्यों नहीं की गई है।
बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 'जाति, माटी, भेटी' (जाति, भूमि और पहचान की सुरक्षा) के नारे से असम के लोगों को आश्वस्त किया था और 2016 के विधानसभा चुनाव में इस उम्मीद के साथ लोगों ने बीजेपी को भारी समर्थन दिया था कि विदेशियों का मुद्दा स्थायी रूप से सुलझ जाएगा।
जब बीजेपी सीएए लेकर आई तो स्वाभाविक रूप से असम के लोगों का उससे मोहभंग हुआ और आम लोग विरोध जताने के लिए सड़कों पर उतर आए। असम से सीएए के ख़िलाफ़ जो तीव्र आंदोलन शुरू हुआ वह जल्द ही देश भर में फैलता चला गया।
और तीन महीने मांगे
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सीएए के नियम बनाने के लिए अतिरिक्त तीन महीने की मांग की है। पिछले कुछ महीनों से कोरोना महामारी और लॉकडाउन के बीच गृह मंत्रालय की ओर से अन्य कार्यों में व्यस्तता का जिक्र करते हुए नियम बनाने के लिए यह समय मांगा गया है। इसे लेकर मंत्रालय ने संसद की स्थायी समिति से संबंधित एक विभाग को सूचित किया है।
क़ानून के नियम राष्ट्रपति की मंजूरी के छह महीने के भीतर बन जाने चाहिए या फिर सब-ऑर्डिनेट लेजिसलेशन पर स्थायी समिति से समय विस्तार के लिए संपर्क किया जाना चाहिए।
क्या कहता है सीएए संशोधन?
संसद ने दिसंबर, 2019 में सीएए, 1955 में संशोधन किया था, उसके बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने जनवरी, 2020 में इसे अधिसूचित कर दिया था। संशोधन के अनुसार, भारत मुसलिम बहुल बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए हिंदुओं, पारसियों, ईसाइयों, जैनियों और बौद्धों को धार्मिक उत्पीड़न के आधार पर नागरिकता देगा।
सीएए उन लोगों पर लागू होगा, जो दिसंबर, 2014 से पहले भारत में आ चुके हैं। इस क़ानून से मुसलमानों को बाहर रखा गया है।
असम के लोगों को लगता है कि इस क़ानून के जरिये हिन्दू बांग्लादेशियों को असम में बसाया जाएगा और असमिया लोग अपनी ही भूमि पर अल्पसंख्यक बनकर रह जाएंगे।
ब्रिटिश राज में एक बार असमिया को हटाकर बांग्ला को राजभाषा बना दिया गया था। तब काफी संघर्ष कर असमिया को राजभाषा का दर्जा मिल पाया था। अतीत के उस दंश को असमिया लोग भूले नहीं हैं। असम के लोग एनआरसी की पीड़ादायक प्रक्रिया से होकर हाल ही में गुजरे हैं।
उन्हें लगता था कि 24 मार्च, 1971 ही कट ऑफ तिथि है जिसके आधार पर विदेशियों का बहिष्कार होगा। नए क़ानून में यह तिथि 31 दिसंबर, 2014 निर्धारित की गई है जो असम समझौते का उल्लंघन है और एनआरसी को भी अप्रासंगिक बना देगी।
संविधान की आत्मा पर प्रहार
राज्य में सभी तबके के लोग इस क़ानून को भारत के संविधान की आत्मा पर प्रहार मानते हैं। उनका मानना है कि यह क़ानून संविधान में दिए गए नागरिकता, समानता और न्याय के सिद्धांतों का हनन करता है। प्रसिद्ध बुद्धिजीवी डॉ. हीरेन गोहाईं ने कहा कि कोई भी असमिया व्यक्ति इस क़ानून का समर्थन नहीं कर सकता। ऐतिहासिक रूप से असमिया लोगों की अपनी विशिष्ट पहचान है। इस क़ानून को लागू करने पर असमिया लोग अल्पसंख्यक बनकर जीने के लिए मजबूर हो जाएंगे।
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