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विश्व राजनीति में क्या धुआं उठाना चाहते हैं ट्रम्प

जिधर से गुजरो, धुआं बिछा दो, जहां भी पहुँचो, धमाल कर दो,
तुम्हें सियासत ने हक़ दिया है, हरी जमीनों को लाल कर दो !
-स्व. राहत इंदौरी
ट्रम्प ने फिलस्तीनियों को गजा छोड़ने को कहा है, मिस्र और जोर्डन को धमकी दी है कि उन्हें निर्वासित फिलस्तीनियों को लेने के लिए मजबूर किया जाएगा, और गजा को अंतरराष्ट्रीय बीच (तटीय) रिसोर्ट बनाया जाएगा. कनाडा से अमेरिका में शामिल होने अन्यथा संकट झेलने की चेतावनी दी है. डेनमार्क से ग्रीनलैंड लेने और पनामा नहर पर कब्जा करने का मंसूबा बताया है. ट्रम्प ने तमाम यूएन संगठनों को छोड़ने और मदद बंद करने का ऐलान किया है. जर्मनी सहित पूरे यूरोप को भी धमकी मिली है. दुनिया के अस्तित्व के लिए खतरा बने पर्यावरण असंतुलन को घटाने के प्रयास से भी अपने को अलग कर लिया है और उसके उलट उच्च कार्बन उत्सर्जन करने वाले जीवाष्म ईंधन को बढ़ावा देना शुरू किया है.
क्या यह सब नार्मल लगता है? क्या बात-बात में धमकी, सामान्य कूटनीतिक आचरण को धता बता कर यह अहसास दिलाना कि एक “राजा” पैसे और मांसलता के बूते पर कुछ भी कर सकता है, दुनिया में स्थितियों को सहज रख सकेगा? क्या यूरोप के देश, चीन, भारत, और ये तमाम धमकियों से त्रस्त मुल्क या क्षेत्र अपने वजूद को फानी होते (अस्तित्व को ख़त्म होते) देखते रहेंगें? ट्रम्प को अमेरिका में एक वर्ग का समर्थन एक नारे – मेक अमेरिका ग्रेट अगेन—पर मिला है. लेकिन परम्परागत रूप से अमेरिकियों की सामूहिक चेतना में, तमाम ताकतवर समितियों वाली संसदीय स्वायत्ता और मजबूत न्यायपालिका के माध्यम से वैश्विक मानवाधिकार का जबरदस्त जज्बा रहा है. 
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ट्रम्प न भूलें कि अमेरिका में वैयक्तिक स्वातंत्र्य की भावना ब्रिटेन से ज्यादा मजबूत रही है और वहाँ के संविधान में प्रजा ने राज्य को राजकाज सुचारू रूप से चलाने के लिए कुछ शक्तियां बख्शी हैं. भारत में भी संविधान-निर्माताओं ने यही रवैया अपनाया और अनुच्छेद 19 (2 से 6) में डॉक्ट्रिन ऑफ़ रिज़नेबल रेस्ट्रिक्शन (युक्तियुक्त निर्बंध का सिद्धांत) के तहत मौलिक अधिकार्रों को बाधित करने की सीमित शक्तियां राज्य को दी हैं. जबकि राजशाही वाले ब्रिटेन में इसके उलट राज्य ने “प्रजा” को समय-समय कुछ-कुछ अधिकार दान के रूप में दी हैं. अगर उनका रवैया किसी “उन्मादी शासक” का रहा तो ट्रम्प को जनता नज़रों से उतारने में ज्यादा समय नहीं लगाएगी ना हीं उनकी पार्टी, संसद और न्यायपालिका इस उन्माद को झेलेगी.
पूरी दुनिया के कूटनीतिक आचरण के व्याकरण का मूल सिद्धांत है देशों के बीच पारस्परिक आदान-प्रदान और नीतियों में निरंतरता होना. कोई देश एक शासन में कुछ समझौता करे और शासक बदलने के बाद उसके खिलाफ चला जाये तो वह गलत माना जाता है. तभी तो कोई देश यह नहीं कह सकता कि जिस शासक ने कर्ज लिया था वह बदल गया.
लेकिन ट्रम्प कुछ ऐसा ही कर रहे हैं जो निरंतरता के सिद्धान्त के प्रतिकूल है. गौर कीजिये कि जिस अमेरिका ने तीन साल पहले रूस-उक्रेन युद्ध शुरू होने पर रूस के खिलाफ प्रतिबंध लगाया और उसके प्रभाव में यूरोपीय देशों ने भी रूस से रार ठानी, उसके नए राष्ट्रपति ट्रम्प का यह कहना कि उक्रेन ने हमला किया और उसका राष्ट्रपति “कमेडियन” है, कई स्थापित वैश्विक मूल्यों को तोड़ता है. 
ट्रम्प की यह धमकी कि उक्रेन अगर समझौता नहीं करता तो उसका देश ख़त्म हो जाएगा, राजनेता तो छोड़िये, सड़क छाप लोकल नेता की भाषा भी नहीं हो सकती.
उक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने एक मीडिया संस्थान के “मीट द प्रेस” कार्यक्रम में कहा “अमेरिकी मदद के बिना युद्ध में उक्रेन के जिन्दा रहने के चांसेज बेहद कम हैं हालांकि मेरे यह कहने से देशवासियों का मनोबल गिरेगा लिहाज़ा हम किसी भी कीमत पर देश की संप्रभुता की रक्षा करेंगे”. उक्रेन के मुखिया का यह कहना पूरी दुनिया के लिए एक चुनौती है. उनका कथन सोचने को मजबूर करता है कि पूरी दुनिया ट्रम्प-पुतिन दबंगई को चुपचाप सहती रहेगी? शायद नहीं! और उसके लक्षण दिखाई देने लगे हैं. 
फ्रांस की अगुवाई में ईयू के सदस्य देशों ने उक्रेन में ट्रम्प की नीतियों पर दो चक्रों में बैठक की. दूसरे चक्र में वे देश थे जो पहले में शामिल नहीं हो सके थे या उक्रेन के आसपास के थे. इन दोनों बैठकों में सबने उक्रेन को सामरिक मदद बढ़ने का हौसला दिखाया. बैठक के एक दिन पहले ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने तो यहाँ तक कह दिया कि जरूरत पडी तो हमारे सैनिक भी उक्रेन की मदद के लिए जायेंगे. इनका एक साथ आना वैश्विक राजनीति में एक नया मोड़ होगा.
उधर यूएस और रूस की नजदीकियां और चीन के खिलाफ अमेरिकी टैरिफ चीन-रूस संबंधों पर भी असर डालेगा. तीन दशक पहले डब्ल्यूटीओ और उसके पहले “गैट” के अस्तित्व की बुनियाद थी यह सोच कि विकसित देश विकासशील देशों को सक्षम बनाने के लिए टैक्स में रियायत देंगे याने उनका माल ज्यादा टैक्स दे कर विकसित देश खरीदें और अपना माल कम टैक्स पर उन्हें बेचें. दुनिया की एक तिहाई जीडीपी लेकिन पांच प्रतिशत आबादी और जबरदस्त सामरिक शक्ति वाले अमेरिका का राष्ट्राध्यक्ष का “मेक अमेरिका ग्रेट अगेन” (मागा) की लहर पर स्वर हो कर राष्ट्रवाद के नाम पर वैश्विक प्रतिबद्धताओं को ठेंगा दिखाना खतरनाक है और उसका ताज़ा उदाहरण है डब्ल्यूटीओ को चुनौती. 
ट्रम्प ने डब्ल्यूएचओ और पर्यावरण प्रतिबद्धता के वैश्विक प्रयासों से भी अमेरिका को बाहर कर लिया है. देखना होगा कि उक्रेन में युद्ध ख़त्म करने का फार्मूला क्या और कितना न्यायपूर्ण होगा और क्या उक्रेन को उसे मानने को मजबूर किया जाएगा? और क्या विकासशील देश, ईयू और नाटो सहित यूएन की तमाम संस्थाएं एक नयी अमेरिका-विहीन वैकल्पिक व्यवस्था बना सकेंगी?
(लेखक ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन-बीईए के महासचिव रहे हैं )
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