हाथरस गैंगरेप मामले में स्वत: संज्ञान लेते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने ग़रीब व दलित होने की वजह से उनके अधिकारों को रौंदे जाने की जो आशंका जताई है, वह किस हद तक सही है? हाथरस मामले में पीड़िता के आरोपियों के समर्थन में क्षेत्र में सवर्ण समाज का एकजुट होना, पंचायत करना और निर्दोष बताना क्या बताता है? दो साल पहले जम्मू-कश्मीर में कठुआ गैंगरेप के आरोपियों के समर्थन में बीजेपी विधायक द्वारा रैली निकालना क्या संकेत देता है? हाथरस की पीड़िता दलित थी तो कठुआ की पीड़िता खानाबदोश बकरवाल समुदाय की थी और जो आरोपियों के समर्थन में उतरे वे ताक़तवर समझे जाने वाले सवर्ण समाज के।
अभी जो ताज़ा मामला है वह हाथरस का है। एक ओर पूरे देश में पीड़ित परिवार को न्याय दिलाने की माँग चल रही है तो दूसरी ओर आरोपियों के समर्थन में हाथरस के आसपास के क्षेत्रों में सवर्ण समाज के लोगों ने धरना दिया। पीड़िता के गाँव बुलगड़ी से क़रीब 5 किलोमीटर दूर गाँव बघना में 12 गाँवों के लोगों की पंचायत हुई। 'अमर उजाला' की रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने आरोपियों को सीधे-सीधे निर्दोष बताते हुए रिहा करने, सीबीआई जाँच और नार्को टेस्ट कराने की माँग की। रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने पीड़िता के भाई पर ही उसकी हत्या का आरोप लगाया।
पीड़िता की माँ और भाई को जेल में डालो: पूर्व विधायक
अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार, इस पंचायत से अलग बीजेपी के पूर्व विधायक राजवीर सिंह पहलवाल ने पीड़िता की मौत को ऑनर किलिंग बता दिया है। रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने पत्रकारों से बातचीत में आरोप लगा दिया कि इस लड़की की हत्या उसके भाई व माँ ने मिलकर की है। उन्होंने कहा है कि चारों युवक निर्दोष हैं और यह पूरा मुकदमा झूठा है। उन्होंने तो लड़की की माँ और भाई के ख़िलाफ़ हत्या का मुक़दमा दर्ज कर जेल भेजने की माँग तक कर डाली।
हाथरस मामले में सवर्ण समाज की बैठक में जो ये आरोप लगाए जा रहे हैं वह दरअसल वास्तविक हालात से मेल नहीं खाते हैं। हालात ये हैं कि पीड़ित परिवार दलित और ग़रीब है। क्या पुलिस और प्रशासन इनके दबाव में आ सकते हैं?
पिछले महीने जब कथित तौर पर गैंगरेप की वारदात हुई तो शुरुआत में मुक़दमा दर्ज नहीं किया गया। पीड़िता के इलाज के उचित इंतज़ाम नहीं हुए और राजनीतिक हस्तक्षेप के बाद दिल्ली के सफदरगंज अस्पताल लाए जाने के बाद पीड़िता की मौत हो गई। पुलिस ने परिवार वालों की ग़ैर मौजूदगी में रातोरात उसका अंतिम संस्कार कर दिया। घर वाले तड़पते रहे कि उन्हें कम से कम चेहरा दिखा दिए जाए, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। इस पूरे मामले में परिवार की ओर से कई आरोप लगाए गए। अभी भी आरोप लग रहे हैं कि परिवार पर दबाव डाला जा रहा है।
क्या इससे यह नहीं लगता है कि प्रशासन ने इस मामले को दबाने की पूरी कवायद की है? आख़िर किसका दबाव है। दलित और ग़रीब परिवार के दबाव में पुलिस और प्रशासन कब से आने लगे!
यदि फिर भी शक हो तो इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के आदेश को पढ़ लें। जस्टिस राजन रॉय और जस्टिस जसप्रीत सिंह की खंडपीठ ने लिखा है कि कोर्ट की यह बाध्यकारी ज़िम्मेदारी है कि संविधान के तहत मिले उनके अधिकारों की हर क़ीमत पर रक्षा करे और राज्य राजनीतिक या प्रशासनिक कारणों से अपनी सीमित शक्तियों को लांघ कर नागरिकों और ख़ासकर ग़रीबों व दलितों के अधिकारों को न रौंदे। आदेश में कहा गया है, 'हम इस बात की जाँच करना चाहेंगे कि क्या राज्य के अधिकारियों द्वारा मृतक के परिवार की आर्थिक और सामाजिक हैसियत का फ़ायदा उठाकर उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया गया है और उनका उत्पीड़न किया गया है?'
कठुआ मामले में क्या हुआ था?
हाथरस मामले से अलग 2018 में जम्मू कश्मीर के कठुआ मामले को देखें। बकरवाल मुसलिम समुदाय की एक 8 साल की बच्ची के साथ जनवरी 2018 में बलात्कार हुआ। इसके ख़िलाफ़ देश भर में आक्रोश था। पुलिस के मुताबिक़ बच्ची को कई दिनों तक ड्रग्स देकर बेहोश रखा गया। आख़िरकार उसकी हत्या कर शव को फेंक दिया गया। जब आरोपी पकड़े गए तो आरोपियों के पक्ष में ही रैली निकाली गई। रैली में महबूबा मुफ्ती सरकार में मंत्री रहे और भाजपा नेता लाल सिंह और चंद्र प्रकाश गंगा शामिल हुए थे। भारी विरोध के बाद दोनों मंत्रियों को इस्तीफ़ा देना पड़ा था। आरोपियों के पक्ष में निकाली गई उस रैली में शामिल हुए विधायक राजीव जसरोटिया को बाद में जब मंत्रिमंडल में फेरबदल हुआ तो मंत्री बना दिया गया था। तब भी काफ़ी हंगामा हुआ था।
बहरहाल, कुछ ऐसे भी मामले आए हैं जिनमें दुष्कर्म पीड़िता सवर्ण जाति से रही हैं और आरोपी भी सवर्ण जाति से। लेकिन ऐसे मामलों में सामान्य तौर पर आरोपियों के समर्थन में ऐसा कुछ किए जाने के मामले सामने नहीं आए हैं।
ऐसा ही एक मामला उत्तर प्रदेश में ही बीजेपी विधायक कुलदीप सिंह सेंगर और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में गृह राज्य मंत्री रहे चिन्मयानंद का था। दोनों नेताओं पर बलात्कार के आरोप लगे। सेंगर को जब तब गिरफ्तार किया जाता तब तक वह पीड़िता के परिवार को भारी नुक़सान पहुँचा चुके थे।
बहरहाल, होना तो यह चाहिए कि पूरे मामले की जाँच की जानी चाहिए और फिर किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए। किसी लड़की से गैंगरेप और उसकी हत्या कोई सामान्य मामला नहीं है। दूसरे, किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस कथन को भी याद रखा जाना चाहिए जिसमें उसने कहा है कि अदालत यह भी देखेगी कि क्या आर्थिक-सामाजिक हैसियत की वजह से पीड़ित परिवार के अधिकार रौंदे गए?
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