loader

यूनिवर्सिटी में 'विरोध की आवाज़' से किसे ख़तरा, ट्रंप की कोलंबिया विवि को धमकी?

क्या विश्वविद्यालयों में विरोध की आवाज़ और बोलने की आज़ादी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए कभी ख़तरा हो सकता है? यदि इसमें किसी को ख़तरा महसूस हो तो वह शासन किस तरह का हो सकता है? इसका अंदाज़ा तो डोनाल्ड ट्रंप की ताज़ा धमकी और कोलंबिया विश्वविद्यालय की नीति में बदलाव से भी लगाया जा सकता है।

दरअसल, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की धमकी के बाद कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने अपनी नीतियों में बड़े बदलाव की घोषणा की है। ट्रंप ने विश्वविद्यालयों को संघीय फंडिंग में कटौती की चेतावनी दी थी। इसके बाद कोलंबिया ने विरोध प्रदर्शनों पर सख्त नियम लागू करने, नए सुरक्षा कर्मियों की नियुक्ति करने और छात्रों के अधिकारों में कटौती करने का फ़ैसला किया। इस घटनाक्रम से सवाल उठता है कि क्या भारत सहित दुनिया भर के विश्वविद्यालयों में विरोध की आवाज़ को कुचलने की कोशिश हो रही है? और भारत में विश्वविद्यालयों ने अपने छात्रों और शिक्षकों के अधिकारों को कैसे सीमित किया है? लेकिन इसका जवाब ढूंढने से पहले यह जान लीजिए कि ट्रंप का यह फ़ैसला किस तरह का है। 

ताज़ा ख़बरें

ट्रंप ने हाल ही में कहा था कि जो विश्वविद्यालय 'अवैध विरोध प्रदर्शन' को अनुमति देंगे, उनकी संघीय फंडिंग ख़त्म कर दी जाएगी। यह धमकी इसराइल-ग़ज़ा मुद्दे पर कोलंबिया में हुए छात्र प्रदर्शनों के बाद आई, जिनमें यहूदी-विरोधी भावनाओं के आरोप लगे थे। इसके जवाब में कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने शुक्रवार को घोषणा की कि वह मिडल ईस्ट स्टडीज विभाग को नए पर्यवेक्षण में लाएगी, परिसर में सुरक्षा बढ़ाएगी और छात्रों को शैक्षणिक भवनों में प्रदर्शन करने से रोकेगी। इसके अलावा, छात्रों को पहचान छिपाने के लिए मास्क पहनने पर भी रोक लगा दी गई है।

कहा जा रहा है कि यह क़दम ट्रंप के दबाव में लिया गया है। कोलंबिया जैसे बड़े संस्थानों के लिए संघीय फंडिंग अहम है, और इसके बिना उनका संचालन मुश्किल हो सकता है। लेकिन यह बदलाव अकादमिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर सवाल उठाता है। क्या विश्वविद्यालय अब सरकारों के सामने झुकने को मजबूर हैं?

कोलंबिया का यह फ़ैसला वैश्विक स्तर पर विश्वविद्यालयों में बढ़ते दबाव का संकेत देता है। पिछले कुछ सालों में, कई देशों में सरकारों ने विरोध प्रदर्शनों को नियंत्रित करने के लिए सख़्त क़दम उठाए हैं। अमेरिका में कोलंबिया के अलावा, यूसी बर्कले और नॉर्थवेस्टर्न जैसे विश्वविद्यालय भी इसी तरह की जांच और दबाव का सामना कर रहे हैं। ट्रंप का यह रुख उनके पहले कार्यकाल की नीतियों की याद दिलाता है, जब उन्होंने विदेशी छात्रों और शोधकर्ताओं पर कड़े नियम लागू किए थे।
भारत में भी विश्वविद्यालयों में विरोध की आवाज़ को दबाने और छात्रों के अधिकार में कटौती करने के आरोप लगते रहे हैं।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय यानी जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय यानी डीयू और जामिया मिलिया इस्लामिया जैसे संस्थानों में छात्र आंदोलनों को कुचलने के लिए पुलिस बल का इस्तेमाल, फीस वृद्धि के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों पर रोक और कैंपस में राजनीतिक गतिविधियों पर पाबंदी जैसे क़दम देखे गए हैं। क्या यह एक वैश्विक पैटर्न है, जहां सरकारें विश्वविद्यालयों को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही हैं?

भारत में विश्वविद्यालयों ने अधिकार कैसे कम किए?

भारत में विश्वविद्यालयों में अधिकारों में कटौती के कई उदाहरण हैं।

1. छात्रसंघ चुनावों पर रोक या उनके प्रभाव को कम करना। जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ को कमजोर करने के लिए प्रशासन ने नियमों में बदलाव किए हैं।

2. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश। 2019 में नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के ख़िलाफ़ जामिया और डीयू में हुए प्रदर्शनों के दौरान पुलिस ने छात्रों पर लाठीचार्ज किया और कई को हिरासत में लिया।

3. शिक्षकों के अधिकारों में कमी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नए नियमों के तहत शिक्षकों की स्वायत्तता कम हुई है और उनकी नियुक्तियों में सरकारी हस्तक्षेप बढ़ा है।

विश्लेषण से और

हाल ही में जेएनयू में अनुशासनात्मक कार्रवाई के नाम पर छात्रों को निलंबित करने और जुर्माना लगाने के मामले सामने आए हैं। इसी तरह, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में कैंपस में सभाओं पर रोक और निगरानी बढ़ाई गई है। ये क़दम छात्रों और शिक्षकों के बीच असंतोष को दबाने के लिए उठाए गए हैं, लेकिन इनसे विश्वविद्यालयों का लोकतांत्रिक चरित्र कमजोर हुआ है।

छात्र आंदोलन के इतिहास से सबक़ लिया नेताओं ने?

छात्र आंदोलन हमेशा से समाज और सत्ता के लिए एक शक्तिशाली बदलाव का प्रतीक रहे हैं। ये आंदोलन न केवल युवा ऊर्जा और जोश का प्रदर्शन करते हैं, बल्कि सवाल उठाने, अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने और व्यवस्था को चुनौती देने की ताक़त भी रखते हैं। इतिहास की बड़ी घटनाएँ बताती हैं कि छात्रों की यह ताक़त सरकारों को अस्थिर कर सकती है, नीतियों को बदल सकती है और कई बार पूरे शासन को उखाड़ फेंकने का कारण बन सकती है। 

तियानमेन स्क्वायर प्रदर्शन, चीन (1989)

  • जून 1989 में बीजिंग के तियानमेन चौक पर हजारों छात्र लोकतंत्र की माँग को लेकर जमा हुए थे। यह आंदोलन कम्युनिस्ट नेता हू याओबैंग की मौत के बाद शुरू हुआ, जिन्हें सुधारवादी माना जाता था। छात्र भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ और अभिव्यक्ति की आज़ादी की माँग कर रहे थे। चीनी सरकार ने इसे कुचलने के लिए सेना भेजी, टैंक चलाए और अनुमानित रूप से सैकड़ों से लेकर हजारों प्रदर्शनकारी मारे गए। यह घटना सत्ता के डर को साफ़ दिखाती है। सरकार को लगा कि अगर यह आंदोलन बढ़ा, तो कम्युनिस्ट शासन ख़तरे में पड़ सकता है। 

मई 1968, फ्रांस

  • पेरिस में छात्रों ने शिक्षा सुधार और सरकार की नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन शुरू किया। यह आंदोलन जल्द ही मज़दूरों तक फैल गया और क़रीब 10 मिलियन लोगों ने हड़ताल कर दी। राष्ट्रपति चार्ल्स दे गॉल की सरकार हिल गई, और उन्हें संसद भंग कर नए चुनाव कराने पड़े। यह घटना दिखाती है कि छात्रों की आवाज़ कैसे पूरे समाज को जगा सकती है और सत्ता को मजबूर कर सकती है।

बिहार छात्र आंदोलन, भारत (1974)

  • पटना विश्वविद्यालय से शुरू हुआ यह आंदोलन भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी के खिलाफ था। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में यह संपूर्ण क्रांति का आह्वान बन गया। इसने इंदिरा गांधी सरकार पर इतना दबाव डाला कि 1975 में आपातकाल घोषित करना पड़ा। यह भारत में छात्र शक्ति का एक बड़ा उदाहरण है, जिसने सत्ता को अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया।

वियतनाम युद्ध विरोध, अमेरिका (1960-70)

  • अमेरिकी विश्वविद्यालयों में छात्रों ने वियतनाम युद्ध के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरू किया। केंट स्टेट यूनिवर्सिटी में 1970 में चार छात्रों की गोलीबारी में मौत के बाद यह आंदोलन और तेज़ हुआ। इसने अमेरिकी सरकार को युद्ध नीति बदलने और अंततः वापसी के लिए मजबूर किया। 

इतिहास के ऐसे छात्र आंदोलन सत्ता के लिए सबक था कि छात्रों की आवाज़ को नज़रअंदाज़ करना भारी पड़ सकता है।
ट्रंप का कोलंबिया पर दबाव और भारत में विश्वविद्यालयों पर बढ़ता नियंत्रण एक बड़े वैश्विक संदर्भ का हिस्सा हो सकता है। दुनिया भर में लोकतांत्रिक मूल्यों पर सवाल उठ रहे हैं और विचारों व बहस का केंद्र विश्वविद्यालय इस बदलाव के निशाने पर हैं। अमेरिका में ट्रंप की नीतियाँ भारत जैसे देशों के लिए भी एक मिसाल बन सकती हैं, जहाँ सरकारें पहले से ही विरोध को दबाने की कोशिश में हैं।
ख़ास ख़बरें

भारत में इसका असर यह हो सकता है कि छात्र आंदोलन और कमजोर होंगे और विश्वविद्यालय प्रशासन सरकार के प्रति अधिक जवाबदेह बनेंगे। लेकिन इससे शिक्षा का उद्देश्य ख़तरे में पड़ सकता है। शिक्षा का उद्देश्य स्वतंत्र चिंतन और सवाल उठाना है। दूसरी ओर, कुछ लोग तर्क देते हैं कि विरोध प्रदर्शन कभी-कभी अराजकता का रूप ले लेते हैं, जिसे नियंत्रित करना ज़रूरी है।

ट्रंप की धमकी के बाद कोलंबिया यूनिवर्सिटी का नीति बदलाव दिखाता है कि शक्तिशाली सरकारें विश्वविद्यालयों को अपने एजेंडे के तहत लाने की कोशिश कर रही हैं। भारत में भी अधिकारों में कटौती और विरोध को कुचलने की घटनाएँ इस प्रवृत्ति को मजबूत करती हैं। सवाल यह है कि क्या विश्वविद्यालय अपनी स्वायत्तता और लोकतांत्रिक मूल्यों को बचा पाएँगे, या वे सरकारों के हाथों की कठपुतली बन जाएँगे?

(इस रिपोर्ट का संपादन अमित कुमार सिंह ने किया है)
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
क़मर वहीद नक़वी
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

विश्लेषण से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें