पटना और मुंबई के बीच जमीनी दूरी भले ही पौने दो हजार किलोमीटर की हो, महाराष्ट्र की राजनीति एक तरह से बिहार की राजनीति की उतार लग रही है। कितनी अजीब बात है कि जिस मुख्यमंत्री पद को शिवसेना को न देने की नीति के कारण बीजेपी को महाराष्ट्र में सत्ता से बाहर होना पड़ा, अब उसी पद के कथित त्याग को तैयार हो गयी और इसके साथ वह सत्ता में भी शामिल हो गयी।
विडंबना यह भी है कि 2014 से 2019 के बीच जब देवेन्द्र फडणवीस मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने उप मुख्यमंत्री पद का विरोध किया था और आज वे पूर्व मुख्यमंत्री रहते हुए उप मुख्यमंत्री बनने को राजी हो गये जबकि उनके समर्थक यह बात फैलाने में कामयाब हो गये थे कि वे तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे।
वैसे, कहने के लिए वे कह सकते हैं कि उन्होंने तो यह पद स्वीकार करने से मना कर दिया था लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की बात मानने के लिए वे उपमुख्यमंत्री बनने को राजी हो गये। जो भी हो, उन्हें इसलिए महाराष्ट्र का पहला ’अग्निवीर’ होने का ताना सुनने को भी मिला।
इस तरह इस समय राष्ट्रीय राजनीति में तमाम धाक के बावजूद बिहार की तरह महाराष्ट्र में भी अपना मुख्यमंत्री बनाने का बीजेपी का लक्ष्य अधूरा है। अलबत्ता तकनीकी तौर पर इतना अंतर है कि नीतीश कुमार भाजपा की ओर से भी घोषित मुख्यमंत्री उम्मीदवार रहते हैं और हर चुनाव में जदयू भाजपा से यह कहलवा लेता है कि बिहार में एनडीए का चेहरा नीतीश कुमार ही हैं।
जिस तरह तीसरे नंबर की पार्टी रहते हुए भाजपा मजबूरी में ही सही नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाये रखने के लिए तैयार रहती है, लगभग वैसा ही मामला महाराष्ट्र में भाजपा के साथ एकनाथ शिंदे ने किया है। जो सबसे बड़ा फर्क शिंदे और नीतीश कुमार के बीच का है वह दोनों की उम्र के बीच लगभग 12 साल का फासला है वर्ना नीतीश कुमार की पार्टी के विधान सभा सदस्य 45 हैं तो एकनाथ शिंदे का दावा भी लगभग 50 विधायकों के साथ होने का है। एक और अंतर यह बताया जाता है कि एकनाथ शिंदे के ख़िलाफ़ आपराधिक मुकदमे हैं जो उनके साथ वाले 20 अन्य विधायकों पर भी है।
अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कि बीजेपी बिहार में अपना कोई ऐसा नेता क्यों नहीं बना सकी जिसके दम पर वह अकेले चुनाव लड़ सके। वास्तव में लालू और नीतीश कुमार सामाजिक न्याय की राजनीति करते हैं और दोनों एक दूसरे को उसी सामाजिक समीकरण में शह-मात देते हैं।
चूंकि बीजेपी के लिए इस सामाजिक समीकरण में अपने को फिट कर पाना मुश्किल रहा है इसलिए उसके पास हिन्दुत्व के एजेंडे पर कोई बड़ा नेता बना पाना मुश्किल हो रहा है। एक ऐसा नेता जो हिन्दुत्व के साथ-साथ जातीय समीकरण की राजनीति में सबको स्वीकार हो भाजपा के पास नहीं है क्योंकि लालू-नीतीश प्रादेशिक राजनीति में यह जगह मजबूती से पकड़े हुए हैं।
उपमुख्यमंत्री के काल के हिसाब से देखा जाए तो बिहार में सुशील मोदी भाजपा के सबसे बड़े नेता माने जा सकते थे लेकिन नीतीश कुमार से उनकी कथित नजदीकी के कारण केन्द्रीय नेतृत्व ने उन्हें दिल्ली बुलाकर राज्यसभा की सदस्यता तक सीमित कर दिया। बिहार में भाजपा की नीति की धुरी लालू विरोध रही है जो अबतक जारी है। नीतीश कुमार ने भी भाजपा से दोस्ती लालू विरोध के नाम पर की थी। हालाँकि 2015 में यह रिश्ता टूटा था जो 2017 में आरजेडी से टूट के साथ दोबारा कायम हो गया।
महराष्ट्र में भाजपा के पास हिन्दुत्व के अलावा अपनी राजनीति की कोई खास धुरी नहीं होने के बावजूद देवेन्द्र फडणवीस जैसा मुख्यमंत्री पद का दावेदार तो था मगर इसमें हमेशा शिव सेना का साथ उनके लिए ज़रूरी रहा। वह जैसे बिहार में अकेले दम पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं आयी वैसे ही महाराष्ट्र में उसे यह मौक़ा नहीं मिला क्योंकि उसके पास लालू प्रसाद जैसा अकेले दम पर चुनाव जीतने वाला नेता अब तक नहीं है।
मगर जैसे बिहार में नीतीश कुमार के सहारे आगे बढ़ी बीजेपी ने धीरे-धीरे नीतीश कुमार की पार्टी को कमजोर कर अपनी गिनती बढ़ाई, वैसे ही भाजपा शिवसेना के साथ का फायदा उठाते हुए उसे पीछे धकेल कर पहले 122 और फिर 105 सीट लाकर सबसे बड़ी पार्टी बनी हुई है। यह और बात है कि यह संख्या भी उसके लिए काफी साबित नहीं हुई और जैसी रणनीति के तहत उसने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री रहने दिया वैसे काम के लिए वह महाराष्ट्र में तैयार नहीं हुई। इसका लाभ शरद पवार जैसे नेता ने उठाया और उद्धव ठाकरे के सामने मुख्यमंत्री का पद देकर बीजेपी की बाजी पलट दी।
शिवसेना ने बीजेपी के साथ 2019 में वही करना चाहा जो नीतीश की पार्टी 2020 में करने में सफल रही यानी कम सीट के बावजूद मुख्यमंत्री का पद अपने पास रखना। जाहिर है, वहाँ बीजेपी अड़ गयी और सुबह सुबह देवेन्द्र फडणवीस ने शपथ भी ले ली लेकिन जल्द ही उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। बिहार में नीतीश कुमार को बीजेपी विरोधी आरजेडी का साथ 2015 के चुनाव के समय से मिला तो शिवसेना को भाजपा विरोधी दलों का साथ 2019 में चुनाव परिणाम के बाद मिला।
बीजेपी हमेशा यह जताने में लगी रही कि महा विकास अघाड़ी सरकार खुद आपसी झगड़े में गिर जाएगी मगर दलों के बीच वह कोई फूट नहीं ला सकी। भाजपा चूंकि उद्धव से खुन्नस खाये बैठी थी तो उसने वहां से हमला करने की कोशिश की और उसमें कामयाब भी हुई जहां से इसकी संभावना सबसे कम थी। बीजेपी ने शिवसेना के विधायकों को तो तोड़ लिया है मगर क्या वह उसके कैडर को शिंदे की तरफ़ कर सकेगी? इसके साथ ही यह भी देखना होगा कि भाजपा का शिंदे के साथ कितने दिन निबह पाता है।
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