सच्चर कमेटी रिपोर्ट को डेढ़ दशक से ज्यादा समय बीत चुके हैं। साल 2006 में जब तत्कालीन यूपीए सरकार द्वारा सच्चर कमेटी की रिपोर्ट जारी की गयी थी तब और अब के भारत में जमीन-आसमान का फर्क आ गया है।
इस नए भारत में अल्पसंख्यक समुदायों विशेषकर मुस्लिम समुदाय की समस्याओं या हकों की बात करना बहुसंख्यक समुदाय के हितों पर “आघात” माना जाता है जिसे वे अपनी भाषा में “तुष्टिकरण” कहते हैं। ऐसे में अब इस नए भारत में सच्चर कमिटी के रिपोर्ट का कोई वारिस ही नहीं बचा है।
खुद मुस्लिम समुदाय के लिए अभी सबसे बड़ा मुद्दा सुरक्षा और अपने जान-माल की हिफाज़त बन गया है। बहुसंख्यक और उग्र हिन्दुतत्व की राजनीति ने मुसलामानों को राजनीतिक रूप से अप्रासांगिक बना दिया है। भारतीय लोकतंत्र के चुनावी खेल को महज 80 बनाम 20 प्रतिशत में समेट दिया गया है जिसका मूल सुर “मुस्लिम तुष्टिकरण” और “हिंदू प्रताड़ना” है। मुसलमान अब “वोट बैंक” भी नहीं रहे, यहां तक कि उनको अपना वोट बैंक मानने वाली तथाकथित सेक्युलर पार्टियां भी मुस्लिम समुदाय के मसलों पर चुप रहकर ख़ैरियत मनाती हैं।
सच्चर रिपोर्ट का महत्व
2005 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा देश में मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति को समझने के लिए जस्टिस राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया था। 30 नवंबर 2006 को सच्चर कमेटी द्वारा तैयार इस बहुचर्चित रिपोर्ट ''भारत के मुस्लिम समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति'' को लोकसभा में पेश किया गया।
सच्चर समिति रिपोर्ट भारत में मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन को उजागर करने में पूरी तरह से सफल रही है। समिति में बताया था कि किस तरह से मुसलमान आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं, सरकारी नौकरियों में उन्हें उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता है और बैंक लोन लेने में मुश्किलात का सामना करना पड़ता है, कई मामलों में उनकी स्थिति अनुसूचित जाति-जनजातियों से भी खराब है।
रिपोर्ट में बताया गया था कि 6 से 14 वर्ष की आयु समूह के एक-चौथाई मुस्लिम बच्चे या तो स्कूल नहीं जा पाते या बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं, मैट्रिक स्तर पर मुस्लिमों की शैक्षणिक उपलब्धि 26 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत के मुकाबले 17 प्रतिशत है और केवल 50 प्रतिशत मुस्लिम ही मिडिल स्कूल पूरा कर पाते हैं जबकि राष्ट्रीय स्तर पर 62 है।
इसी प्रकार से शहरी इलाकों में स्कूल जाने वाले मुस्लिम बच्चों का प्रतिशत दलित और अनुसूचित जनजाति के बच्चों से भी कम पाया गया। यहाँ 60 प्रतिशत मुस्लिम बच्चे स्कूलों का मुंह नहीं देख पाते हैं और आर्थिक कारणों के चलते समुदाय के बच्चों को बचपन में ही काम या हुनर सीखने में लगा दिया जाता है।
इस रिपोर्ट में बताया गया था कि सरकारी नौकरियों में मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व केवल 4।9 प्रतिशत है, इसमें भी ज़्यादातर वे निचले पदों पर हैं, उच्च प्रशासनिक सेवाओं यानी आईएएस, आईएफएस और आईपीएस जैसी सेवाओं में उनकी भागीदारी सिर्फ़ 3।2 प्रतिशत थी। सम्पति और सेवाओं की पहुँच के मामले में भी स्थिति कमजोर पायी गयी थी। सच्चर कमेटी रिपोर्ट के मुताबिक, ग्रामीण इलाकों में मुस्लिम आबादी के 62।2 प्रतिशत के पास कोई जमीन नहीं है, जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 43 प्रतिशत है।
समिति द्वारा मुस्लिम समुदाय की स्थिति को सुधारने के लिए कई सुझाव दिए थे जैसे मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में स्कूल, आईटीआई और पॉलिटेक्निक संस्थान खोलना, छात्रवृतियां देना, बैंक शाखाएं खोलना, ऋण सुविधा उपलब्ध कराना, वक्फ संपत्तियों आदि का बेहतर इस्तेमाल, समान अवसर आयोग, नेशनल डाटा बैंक और असेसमेंट एंड मॉनिटेरी अथॉरिटी का गठन आदि। सच्चर रिपोर्ट के बाद जस्टिस रंगनाथ मिश्रा और अमिताभ कुंडू समिति की रिपोर्ट भी आयीं हैं जो सच्चर रिपोर्ट के निष्कर्षों की तस्दीक करती है।
रिपोर्ट की सबसे बड़ी सफलता यह रही है कि इसने मुस्लिम समुदाय का खुद के पिछड़ेपन की तरह ध्यान खीचा और एक समूह के तौर पर उनमें नागरिक अधिकारों के प्रति जागरूकता भी बढ़ी। “न्यू इंडिया” बनने से पहले एक अर्थ में सच्चर समिति की रिपोर्ट मुसलमानों के लिए अपने नागरिक अधिकारों की मांगों का एक प्रमुख हथियार बन गयी थी।
पंद्रह साल बाद की स्थिति
इस रिपोर्ट के पंद्रह साल बाद यानी 2022 में मुस्लिम समुदाय की स्थिति में कोई ख़ास फर्क देखने को नहीं मिलता है। साल 2008 के बाद से राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम समुदाय सामाजिक-आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति पर हुयी प्रगति को जाने के लिए कोई अध्ययन भी नहीं हुआ है। इस दौरान तीन राज्यों महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक में मुस्लिम समुदाय की स्थिति को लेकर रिपोर्ट जारी किये गये हैं जिनसे पता चलता है कि सच्चर रिपोर्ट के बाद से इन तीनों राज्यों में मुस्लिम समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति में कोई ख़ास सुधार नहीं हुआ है।
2018 में प्रकाशित पूर्व आईपीएस अधिकारी अब्दुर रहमान की पुस्तक “डिनायल एंड डेप्रिवेशन: इंडियन मुस्लिम आफ्टर द सच्चर कमेटी एंड रंगनाथ मिश्रा कमीशन रिपोर्ट्स” इस बात को सिलसिलेवार तरीके से रेखांकित करती है कि सच्चर कमेटी रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू करने के लिए सरकारों द्वारा गंभीर प्रयास नहीं किए गये हैं।
आज भी मुस्लिम समुदाय साक्षरता दर, स्कूली शिक्षा के औसत वर्ष, स्नातकों के प्रतिशत, उच्च प्रशासनिक सेवाओं में भागीदारी आदि के मामलों में बहुत पीछे है।
अल्पसंख्यक की परिभाषा पर पर सवाल
जुलाई 2021 में “सनातन वैदिक धर्म” नाम के एक अनजान संगठन द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गयी है जिसमें सच्चर समिति के रिपोर्ट की वैधता पर ही सवाल उठाया गया है और सच्चर कमेटी के सिफ़ारिशों पर रोक लगाने की मांग की गई। याचिका में कहा गया है कि सच्चर कमेटी का गठन नियमों के विपरीत हुआ था क्योंकि यह कैबिनेट का निर्णय नहीं था और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस कमेटी को केवल अपने आदेश पर बनाने का निर्णय लिया था। इस याचिका में एक तर्क यह भी दिया गया है कि संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के हिसाब से किसी भी समुदाय के साथ अलग से व्यवहार नहीं किया जा सकता है।
याचिका के अनुसार समस्त मुस्लिम समुदाय को किसी तरह से शैक्षणिक व सामाजिक स्तर पर पिछडा नहीं साबित किया जा सकता है। भारत में उनकी स्थिति बहुत बेहतर है। फिल्म इंडस्ट्री, सरकारी सेवाओं और राजनीति में मुसलमान कई अहम पदों पर तैनात है। इसलिए वे किसी प्रकार के विशेषाधिकार या लाभ के अधिकारी नहीं है।
गौरतलब है कि हिन्दुत्ववादी संगठनों द्वारा शुरू से ही सच्चर कमिटी का विरोध किया जाता रहा है। संघ विचारक और वर्तमान में भाजपा से राज्यसभा सदस्य राकेश सिन्हा सच्चर रिपोर्ट को निशाना बनाते हुए “सच्चर कमेटी: कॉन्सपिरेसी टू डिवाइड द नेशन” नाम से एक किताब भी लिख चुके हैं। इस पुस्तक में उन्होंने भी सच्चर कमिटी की रिपोर्ट की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाया था। मध्यप्रेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तो बाकायदा विधानसभा में इस रिपोर्ट को “साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली” करार देते हुए इसकी सिफारिशों को लागू करने से इनकार कर दिया था। नरेंद्र मोदी भी गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर इस रिपोर्ट पर अपना तीखा विरोध दर्ज कराते रहे हैं।
हाशिये से बहिष्करण की ओर
पिछले सात सालों के दौरान सच्चर कमेटी के सिफारशों को लागू करने की बात बहुत पीछे छूट चुकी है। आज भारत में मुस्लिम समुदाय अपने वजूद की लड़ाई लड़ने को मजबूर है। हाशिए से बहिष्करण का यह सफर सिर्फ राजनीतिक नहीं है बल्कि यह सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और कानूनी स्तर पर भी है।
दरअसल 2014 में केंद्र में बीजेपी की जीत के बाद से मुसलमान राजनीतिक "अछूत" बन गए हैं और अब सत्ताधारी दल के साथ विपक्ष की पार्टियाँ भी उनकी बात नहीं करना चाहती हैं। एक ऐसा बदलाव है जिसने एक तरह से पहले से ही राजनीतिक और प्रशासनिक प्रतिनिधित्व की कमी से जूझ रहे मुस्लिम समुदाय को लगभग लावारिस बना दिया है।
साल 2019 में लोकसभा चुनाव में जीत के बाद केंद्र की सत्ता पर दोबारा काबिज हुयी मोदी सरकार द्वारा एक के बाद एक कई ऐसे कानूनी और वैधानिक कदम उठाये गये जो बहुसंख्यकवादी देश बनाने की दिशा में बुनियादी कदम है। इसमें मुख्य रूप से जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 की समाप्ति, नागरिकता संशोधन बिल और समान नागरिक संहिता की दिशा में तीन तलाक कानून और बाल विवाह अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव जैसे कदम शामिल हैं। इसी कड़ी में कई भाजपा शासित राज्य सरकारों द्वारा गोहत्या निषेध और तथाकथित लव जेहाद रोकने के लिए धर्मांतरण विरोधी कानून बनाये गये जिनके निशाने पर मुख्य रूप से अल्पसंख्यक समुदाय के लोग हैं।
आज बहुसंख्यकवादी राजनीति ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बहुत तीखा कर दिया है। “वे और हम” की भावना ने समाज को इस कदर विभाजित किया है कि अब मुसलमानों को एक दुश्मन या अवरोध की तरह देखा जाने लगा है। समाज में साम्प्रदायिक तनाव की आग को लगातार हवा दी जारी है जिससे सामाजिक विभाजन निरंतर और स्थायी बनता जा रहा है।
डरावना भविष्य
भारत अपनी आजादी के 75वें साल में है, इस मुकाम पर मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय का लगातार अपमान, अलगाव और हाशिए से बहिष्करण की ओर बढ़ना भारत के लोकतांत्रिक भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। अल्पसंख्यक समुदायों में सरकारी तंत्र के प्रति डर और अविश्वास की भावना गहरी होती जा रही है।
सच्चर कमिटी की रिपोर्ट ने मुसलमानों, देश,राजनीतिक नेतृत्व और सरकारी एजेंसियों को पहचान के मुद्दों से आगे बढ़ के उनके वास्तविक मुद्दों पर आगे बढ़ने का एक मौका दिया था। दुर्भाग्य से इस मौके को गवां दिया गया है।
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