बीजेपी के छह मंत्रियों का नेतृत्व करते हुए मोदी सरकार में नंबर दो माने जाने वाले रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने जब प्रेस कॉन्फ्रेन्स में यह बात कही कि वह सोच भी नहीं सकते कि वह या उनकी पार्टी किसानों के विरोध में कोई कदम उठा सकती है तो यह प्रतिक्रिया भावनात्मक अधिक महसूस हुई। जब उन्होंने कृषि बिल पर विरोध के बारे में कुछ न बोलकर विपक्ष के आचरण और संसद की मान-मर्यादा पर अधिक ज़ोर दिया, तब भी वो सायास या अनायास किसानों के मुद्दे की ही अनदेखी कर रहे थे।
कैसे माना जाए कि बिल पारित हुआ?
संसद में जिन दो बिलों को ध्वनिमत से पारित बता दिया गया है, क्या उसे पारित मान लिया जाए? जब संसद का बुनियादी आचरण ही यह है कि एक भी सदस्य अगर किसी विधेयक पर मत विभाजन की मांग करे तो वोटिंग होती है। फिर उपसभापति हरवंश ने इस परंपरा को तोड़ा क्यों? क्या किसी के कहने या इशारे पर तोड़ा? सवाल तो यह भी कि क्या वह ऐसा कर सकते हैं?
जब सदन में एक-एक सदस्य के वोट करने या नहीं करने से लेकर पूरी वोटिंग प्रक्रिया अदालत के दायरे में आ चुकी है तो यह सवाल तो निश्चित रूप से अदालत की जद में आएगा कि किसी विधेयक को पारित करने के लिए मतविभाजन की माँग की अनदेखी क्या की जा सकती है?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 सितंबर की तारीख को इसलिए ऐतिहासिक बताया है कि संसद ने किसान बिल पारित कर दिए। मगर जब यह बिल पारित ही नहीं हुए तो तारीख़ कैसे ऐतिहासिक हो गयी?
कार्यवाही का तय वक्त क्यों बढ़ा?
राज्यसभा की कार्यवाही 1 बजे से आगे चलाने का फ़ैसला भी उपसभापति ने एकतरफा लिया, जबकि, कोरोना काल में काफी सोचविचार कर दोनों सदनों का समय और उसके लिए नियत दिन तय किए गये थे। सर्वदलीय बैठक में ये बातें तय हुई थीं। ऐसे में समय बढ़ाने का फ़ैसला भी सर्वदलीय बैठक या सबकी सहमति से होना चाहिए था। विपक्षी दल समय बढ़ाने का विरोध करने लगे।
हंगामा बढ़ता चला गया। फिर भी हंगामे के शांत होने का इंतजार किया जा सकता था। यह तर्क अजीबोगरीब लगता है कि विरोधी दल के सदस्य अपनी बेंच पर नहीं जा रहे थे, इसलिए वोटिंग के बजाए ध्वनिमत का सहारा लिया गया। ध्वनिमत का प्रश्न ही नहीं उठता है अगर मतविभाजन की मांग की गयी हो। कैसे मतविभाजन कराया जाए, यही काम तो पीठासीन पदाधिकारी का होता है जो उपसभापति महोदय नहीं करा सके।
मीडिया की ग़ैरमौजूदगी
राज्यसभा का सीधा प्रसारण हो रहा हो और उसकी आवाज़ म्यूट कर दी गयी हो- यह भी पहली बार हुआ। विपक्ष के हंगामे को नहीं दिखाना, उसकी आवाज़ जनता तक नहीं पहुँचने देना, ऐसी कार्रवाईयाँ हैं जो बताती हैं कि सरकार डरी हुई भी है और निरंकुश भी होती चली जा रही है। सदन की कार्यवाही कवर करने के लिए मीडिया का नहीं होना भी बड़ा सवाल है।
मीडिया को वही फुटेज दिए गये जो सत्ताधारी दल के लिए उपयुक्त थे। इसके बावजूद कोई ऐसा फुटेज नहीं आया जिसमें रूल बुक को फाड़ते कैमरे में कैद किया गया हो। माइक को अपनी जगह से हटाने की कोशिश ज़रूर हुई जिसे विफल करते भी देखा गया। मगर, यह नहीं देखा जा सका कि किसने ऐसी गुस्ताख़ी की। आम आदमी पार्टी संजय सिंह वेल में जाना और मेज पर चढ़ जाना सबने देखा। मार्शल से उलझते भी वे कैमरे में कैद हुए। मगर, मार्शल ने विपक्षी नेताओं के साथ जो व्यवहार किया वह फुटेज कहाँ हैं?
सदन के भीतर सदस्य का आचरण चिंता का विषय है। मगर, यह किसान बिल से बड़ी चिंता तो नहीं हो सकती! संबंधित सदस्यों को दंडित किया जा सकता है। इसकी पूरी प्रक्रिया है। मगर, इस नाम पर किसान से जुड़े बिल पर चर्चा नहीं होने दी जाएगी या फिर वोटिंग नहीं होने दी जाएगी तो आखिर हम किस संसदीय परंपरा को जी रहे हैं?
किसानों की बेचैनी पर देखें, वरिष्ठ पत्रकार शैलेश का क्या कहना है।
एमएसपी से पहले भी ‘आज़ाद’ थे किसान
बीजेपी कह रही है कि न न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी ख़त्म होने जा रही है और न ही वह एपीएमसी यानी एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी एक्ट ही ख़त्म कर रही है। मगर, बीजेपी के दावे को इस तरह से परखें कि आखिर कर क्या रही है सरकार? क्या मतलब है किसानों के लिए आज़ादी का? अपनी उपज अपनी मर्जी से बाज़ार में बेच सकेंगे किसान- इस जुमले का क्या मतलब है?
1965 में जब एमएसपी लागू हुआ, उससे पहले क्या किसान अपनी मर्जी से उपज नहीं बेच रहे थे? फिर भी एमएसपी लागू किया गया। यह उस चिंता का समाधान करने की कोशिश थी जो किसानों को खेती से दूर कर रही थी। खेती में फ़ायदा नहीं हो रहा था क्योंकि बाज़ार अपनी शर्तों पर किसानों से औने-पौने दाम पर फसल खरीद रही थी। एमएसपी आने के बाद किसानों को एक रक्ष कवच मिला।
एमएसपी व्यवस्था में खामियाँ
यह सच है कि एमएसपी की व्यवस्था में भी समय के साथ-साथ खामी आती चली गयी। एक बिचौलिया वर्ग पैदा हो गया जो उन किसानों को जो छोटे हैं और जिनके पास अपनी फसल को बचा कर रखने की बिल्कुल क्षमता नहीं है और न ही वे इतने सक्षम हैं कि मंडियों तक पहुंचकर वहां की लालफीताशाही को झेल सकें, ऐसे किसान बिचौलियों के चक्कर में पड़ जाते हैं और शोषण का शिकार होते हैं।
यह एक समस्या है। इसे दूर करने की पहल होनी चाहिए थी। मगर, यह कौन सी पहल हुई कि बगैर किसी सुरक्षा का इंतज़ाम किए ही किसानों को बाज़ार के हवाले कर दिया जाए। उन्हें कारोबारियों के बीच मोलभाव में अकेले छोड़ दिया जाए?
एलान हो कि एमसएसपी से कम पर खरीद नहीं होगी
अगर सरकार ने सिर्फ एक भरोसा दे दिया होता कि खुले बाज़ार में अपनी उपज बेचते समय किसानों के लिए यह सुनिश्चित किया जाता है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर कोई भी उनकी उपज की खरीद नहीं कर सकेगा। इस एक घोषणा मात्र से समूचे विवाद का हल निकल आता है। अगर सरकार यह एक घोषणा नहीं कर पा रही है तो वह कैसे और किस मायने में किसानों की हितैषी हुई?
खुले बाज़ार में जहाँ किसानों की उपज लेने के लिए मल्टी ब्रांड कंपनियां जैसे बिग बाज़ार, रिलायंस, पतंजलि आदि तैयार बैठी मिलेंगी, वहीं किसानों के लिए यह सुरक्षा क्यों नहीं दी जाती कि कोई भी उनकी मजबूरी का फायदा नहीं उठा सकेगा।
अगर किसानों को यह सुरक्षा नहीं दी जा रही है तो इसका मतलब है कि यही सुरक्षा कॉरपोरेट को दी जा रही है कि वे बेरोकटोक किसानों की फसल अपनी शर्तों पर खरीद सकते हैं। अगर राजनाथ सिंह मानते हैं कि उनकी पार्टी किसानों का बुरा नहीं कर सकती तो किसानो को भरोसा देने के लिए वह सामने क्यों नहीं आते?
उत्तर भारत के किसान खुलकर कृषि बिलों पर नाराज़गी जता रहे हैं। देश के बाकी हिस्सों में किसान कमज़ोर भी हैं और उनमें एकजुटता की भी कमी है। फिर भी 25 सितंबर को भारत बंद के दौरान उनकी ताकत का इजहार होगा। कोई राजनीतिक पार्टी या सरकार बोलकर जनविरोधी या किसान विरोधी नहीं होती। वह पक्षपातपूर्ण नीतियों के कारण किसी की समर्थक या किसी की विरोधी होती चली जाती है।
क्या मोदी सरकार अपने अंदर यह झांकने की कोशिश करेगी कि क्यों किसानों का गुस्सा बढ़ता चला जा रहा है? क्यों सारे विरोधी दल एकजुट होकर किसान के मुद्दे पर उनकी सरकार को घेरने का प्रयास कर रही हैं? बीजेपी आत्मचिंतन करेगी तो उन्हें जवाब मिलेगा। अन्यथा बीजेपी सरकार को कॉरपोरेट जगत के लिए सहानुभूति रखने वाली सरकार और किसानों की विरोधी सरकार के तौर पर भी लोग याद रखेंगे।
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प्रेम कुमार
प्रेम कुमार समसामयिक विषयों पर लिखते रहते हैं। और पढ़ें »
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