महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव की तारीखों का एलान हो चुका है। हरियाणा और जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव के बाद अब सारे देश की निगाहें महाराष्ट्र और झारखंड की चुनाव पर हैं। दरअसल, महाराष्ट्र चुनाव दोनों ही गठबंधनों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। एक तरफ भारतीय जनता पार्टी, शिवसेना और एनसीपी का महायुती गठबंधन है तो दूसरी तरफ कांग्रेस, एनसीपी शरद पवार और शिवसेना उद्धव ठाकरे का महा विकास अघाड़ी गठबंधन है। कुछ दिन पूर्व सम्पन्न हुए हरियाणा चुनाव के नतीजे बेहद अप्रत्याशित रहे। हरियाणा में जहां भारतीय जनता पार्टी 10 साल की एन्टी इनकंबेंसी का सामना कर रही थी, वहीं दूसरी तरफ राहुल गांधी ने नौजवानों, किसानों और महिला पहलवानों से जुड़े मुद्दों को बड़े पैमाने पर उठाया था। बावजूद इसके हरियाणा में कांग्रेस पार्टी की हार हुई। हालांकि कांग्रेस ने ईवीएम में धांधली और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं।

राहुल गांधी के लिए दूसरी चुनौती ओबीसी समाज की है। कुछ ही दिनों पहले महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे की सरकार ने क़रीब 17 जातियों-उपजातियों को ओबीसी में शामिल किया है। इसके अतिरिक्त क्रीमी लेयर की सीमा बढ़ाकर 15 लाख करने की सिफारिश की है।
यह भी गौरतलब है कि ज्यादातर विश्लेषक हरियाणा में भारतीय जनता पार्टी की जीत से स्तब्ध हैं। उनका आरोप है कि 5-6 फीसदी वोटों में हेराफेरी से चुनाव नतीजे प्रभावित हुए हैं। वस्तुतः राजनीतिक विश्लेषक और अन्य बौद्धिक भारतीय लोकतंत्र की गिरती साख से चिंतित हैं। इन आरोपों के बीच हरियाणा चुनाव का एक सामाजिक पहलू भी है। जैसा कि मेरा हमेशा से मानना है कि भारतीय जनता पार्टी सांप्रदायिक राजनीति करती है, लेकिन उसका वोटबैंक जाति आधारित है। चुनाव जीतने के लिए भाजपा महीन सोशल इंजीनियरिंग करती है। हरियाणा चुनाव में भी उसने सामाजिक समीकरण बनाये। सीएसडीएस के सर्वे के अनुसार हरियाणा में गैर जाटव दलित, ओबीसी, खत्री और ब्राह्मण वोट भाजपा को मिले। जाट और जाटव बनाम अन्य की राजनीति करके भाजपा ने कांग्रेस को शिकस्त दी। भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग को समझे बिना उसे मात देना कांग्रेस के लिए आसान नहीं है। आने वाले चुनावों में क्या कांग्रेस हरियाणा चुनाव नतीजों से सबक लेगी?
लेखक सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक हैं और लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असि. प्रोफ़ेसर हैं।