गलवान में दिये चीन के इस दर्द को नेहरू को 1962 में मिले दर्द से कम नहीं माना जा सकता। और इस खोखले बयान से झुठलाया भी नहीं जा सकता कि न कोई घुसा था, न घुसा है। नहीं घुसा तो 20 राउंड की बातचीत क्या चाऊमीन का स्वाद तय करने के लिए होती रही है? गलवान में चीनी घुसपैठ पर भाजपा के पूर्व सांसद सुब्रमण्यम स्वामी के दर्जनों ट्वीट और सरकार की चुप्पी उनकी झप्पी डिप्लोमेसी के चिथड़े उड़ जाने का प्रमाण है। इसीलिए अब मोदी सरकार चीन पर चर्चा कराना तो दूर चीन का नाम तक नहीं लेती। क्या ये कूटनीति है या राष्ट्रीय हितों की अनदेखी?
लेकिन गजब है। पाकिस्तान और चीन में अपनी झप्पी डिप्लोमेसी बुरी तरह फेल होने के बाद भी मोदी ने कोई सबक नहीं सीखा। चीन के साथ झप्पी डिप्लोमेसी के डिवास्टेटिंग नतीजे से भारत उबरा भी नहीं था कि मोदी ने रूस-यूक्रेन के झाड़ में पड़े ताड़ को उठाकर अपने गले में डाल लिया। मास्को में पिछली जुलाई में पुतिन से गले मिलकर यूक्रेन से वार्ता की नसीहत देने का नतीजा यह हुआ कि रूस जैसा भारत का पुराना मित्र अब मोदी की इस पहल से नाराज हो गया है।
जरा सोचिये, क्या होता, अगर भारत-पाक युद्ध के दौरान रूसी राष्ट्रपति भारत आते, और इंदिरा गांधी से कहते कि युद्ध समाधान नहीं है, शांति के लिए पूर्वी पाकिस्तान के खून खराबे से दूर रहो। क्या तब भारत खुश होता?
उसी तरह मोदी के मास्को जाने पर पुतिन पहले तो खुश हुए होंगे, कि जिस तरह रूस ने 1971 में बिना शर्त, बिना देरी अपना आठवां बेड़ा भेजकर भारत को अमरीका के सातवें बेड़े के भय से मुक्ति दिला दी थी, उसी तरह यूक्रेन संकट में भारतीय प्रधानमंत्री उनका समर्थन करने के लिए आये होंगे। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रपति पुतिन के घर चाय पीते हुए उसके मामले में टांग अड़ा दी और उसे हिंसा रोकने की सीख दे डाली। क्या इसके बाद रूस पहले जैसा भारत का दोस्त रह पाएगा? अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के बीच रूस से सस्ते दाम पर तेल खरीदकर भारत ने उसे थोड़ी राहत जरूर दी है। पर दिल तोड़ दिया।
मोदी की झप्पी डिप्लोमेसी ने रूस के साथ ही यूक्रेन को भी दुखी किया। राष्ट्रपति जेलेंस्की की झप्पी तो प्रधानमंत्री मोदी ने ली, पर जेलेंस्की ने भी उनको मुंह पर बेइज्जत कर दिया कि “रूस आपकी इज्जत नहीं करता। क्योंकि आपके मास्को दौरे के समय ही उसने एक बड़ा हमला यूक्रेन पर किया था, जिसमें 41 बच्चे मारे गये थे”। ज़ेलेंस्की ने यह कहकर भारत की मुश्किलें और बढ़ा दी कि भारत रूस से तेल खरीदना बंद करे तो रूस पर युद्ध खत्म करने का दबाव बनेगा। ज़ेलेंस्की का यह बयान मोदी की कूटनीति की कामयाबी पर बड़ा सवाल है।
अंतरराष्ट्रीय बिरादरी ने मोदी की कूटनीति पर मिश्रित प्रतिक्रिया दी है। चीन ने तो इसकी खिल्ली उड़ायी ही है, अमरीका ने मोदी के मत्थे यह शर्त मढ़ दिया, कि वह ऐसे प्रयासों का समर्थन तभी करेगा, जब वह यूक्रेन की संप्रभुता का सम्मान करने वाला हो। जाहिर है, मोदी यह आश्वासन तो दिला नहीं सकते।
पश्चिमी समर्थन से यूक्रेन ने रूस के जिस बड़े इलाके पर कब्जा किया है, रूस उसे हर हाल में छुड़वाने की पूरी कोशिश करेगा। तो युद्ध कैसे रुकेगा।
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को शांति की नसीहत देकर भारत ने अपने सबसे विश्वस्त और भरोसेमंद साबित साथी को इतना दुखी किया है कि इसके कारण अब रूस से मिलने वाला बेहद महत्वपूर्ण एस 400 रक्षा सौदा लटक गया है।
कौटिल्य कहते हैं कि कूटनीति वास्तव में युद्ध का एक सूक्ष्म कार्य है, शत्रु को कमजोर करने और अपने लिए लाभ प्राप्त करने के लिए की गई कार्रवाइयों की एक श्रृंखला, जिसका उद्देश्य अंततः विजय प्राप्त करना है। तो अपने हिस्से इस डिप्लोमेसी से क्या आया? एक दोस्त से सदियों का भरोसा तोड़कर मिला एक अविश्वास?
पोलैंड जाकर ह्यूमैनिटी फर्स्ट कहने वाले प्रधानमंत्री मोदी भारत में स्वयं खुलकर हिंदू मुसलमान करते रहे हैं। हाल में बांग्लादेश के सत्ता परिवर्तन के दौरान भी वहां हिंदुओं पर हमलों की बातें बढ़ा चढ़ा कर पेश करके भाजपा ने बांग्लादेश के साथ एक नाजुक दौर में संबंध बिगाड़ लिये। वैसे भी बांग्लादेश शेख हसीना को भारत में शरण देने से नाराज है।
मोदी की झप्पी डिप्लोमेसी से चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश के अलावा मालदीव, नेपाल, श्रीलंका, अफगानिस्तान और म्यांमार जैसे आठ पड़ोसी देशों के साथ भारत के संबंध आज पहले से ज्यादा खराब हो गये हैं। और इसका फायदा चीन को मिल रहा है। मोदी ने एक सुलझे राजनयिक अधिकारी एस जयशंकर को विदेश मंत्री तो बनाया। पर एको अहं, द्वितीयो नास्ति की सोच के चलते वे उनसे एक निजी सहायक की तरह ही काम लेते दिखते हैं। वरना विदेश नीति का इतना कचरा नहीं होता।
पोलैंड में प्रधानमंत्री ने बुद्ध की विरासत और शांति की बात कही। लेकिन भारत में उनका शांति संदेश मणिपुर तक नहीं पहुंचता।
मोदी की आलोचना उनके पोलैंड दौरे पर दिये गए भाषण की भाषा को लेकर भी हो रही है। जरा भाषा देखिये। मोदी ने कहा कि पोलैंड में आज 14 मिलियन हाउसहोल्ड हैं, तो हमने सिर्फ एक दशक में करीब 3 नए पोलैंड बसाए हैं। पोलैंड की एक तिहाई आबादी जितने लोग, रोज़ाना मेट्रो ट्रेन से सफर करते हैं। पोलैंड की धरती पर जाकर उसी देश को छोटा दिखाने का प्रयास?
मोदी ने कहा कि भारत ने पिछले दस सालों में 250 मिलियन लोगों को गरीबी से बाहर निकाला है, जो फ्रांस, जर्मनी और यूके की कुल जनसंख्या से भी अधिक है। हालांकि, उन्होंने ये नहीं कहा कि देश के 800 मिलियन लोग आज भी सरकारी अनाज पर निर्भर हैं। विशेषज्ञों ने उनके इस बयान को कूटनीति के बजाय सस्ती लोकप्रियता बटोरने का प्रयास बताया है।
आइज़ैक गोल्डबर्ग की मानें तो कूटनीति का मतलब है सबसे खराब बातें सबसे अच्छे तरीके से करना और कहना। कूटनीतिक विश्लेषकों का मत है कि पीएम मोदी का स्क्रिप्ट लिखने वाले वोट बैंक को खुश करने के चक्कर में देश की कूटनीति की मिट्टी पलीद कर रहे हैं।
आखिर मोदी को रूस-यूक्रेन संकट में मध्यस्थता की सलाह किसने दी, जब कोई ऐसा आग्रह भी नहीं था? कूटनीति दिखावे का खेल नहीं, बल्कि सूक्ष्म और सटीक रणनीति की मांग करती है। आपदा में अवसर ढूंढने की सलाह देने वाले मोदी को समझना होगा कि उनकी इस ‘झप्पी डिप्लोमेसी’ से न केवल विश्व में भारत की साख कमजोर हो रही है, बल्कि इससे भारत की दशकों पुरानी संतुलित विदेश नीति कमजोर हो रही है।
मणिपुर जैसे गंभीर अंदरूनी मुद्दों की अनदेखी कर अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी छवि बनाने की कोशिश से मोदी सरकार को दोहरा नुकसान हो रहा है। समय आ गया है कि मोदी नानी (नायडू-नीतीश) की सरकार अपनी कूटनीति का पुनर्मूल्यांकन करे, ताकि भारत की कूटनीतिक ताकत भी बरकरार रहे और अंतरराष्ट्रीय सम्मान भी।
(लेखक विदेश मामलों के अध्येता, लेखक पत्रकार व कॉमनवेल्थ थॉट लीडर्स फोरम के अध्यक्ष हैं। )
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