31 अगस्त 1942 को जर्मनी से आज़ाद हिंद रेडियो के अपने प्रसारण में नेता जी सुभाषचंद्र बोस ने कहा-
“मैं श्री जिन्ना और श्री सावरकर और उन सभी नेताओं से, जो अब भी ब्रिटेन के साथ हैं, अनुरोध करूँगा कि वे पूरी तरह समझ लें कि कल की दुनिया में ब्रिटिश साम्राज्य नहीं रहेगा। उन सभी व्यक्तियों, समूहों या पार्टियों को, जो आज़ादी की लड़ाई में भाग ले रहे हैं, कल के भारत में सम्मानजनक स्थान मिलेगा। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के समर्थकों का स्वाभाविक तौर पर नगण्य स्थान होगा।
(नेताजी संपूर्ण वाङ्-मय खंड 11, पेज 120, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार)
दुनिया की नंबर वन पार्टी के दावे के साथ भारत की केंद्रीय सत्ता पर क़ाबिज़ भारतीय जनता पार्टी को आज नेता जी सुभाषचंद्र बोस की इस भविष्यवाणी से जूझना पड़ रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे जिस तरह अपने बयान पर डटे हैं और बीजेपी के तमाम हंगामे के बावजूद माफ़ी न माँगने पर अड़े हैं, उसके पीछे ऐतिहासिक सत्य से उपजी शक्ति ही है। उन्होंने अलवर की एक जनसभा में इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की शहादत को याद करते हुए पूछा था कि क्या बीजेपी के घर के किसी कुत्ते ने भी देश के लिए बलिदान दिया है?
जनसभा में दिये गये इस भाषण को लेकर बीजेपी संसद में हंगामा कर रही है। बेहतर होता कि कांग्रेस अध्यक्ष के सवाल के जवाब में बीजेपी अपने ‘बलिदानी’ पुरखों का नाम गिनाकर इस विवाद को हमेशा के लिए शांत कर देती पर उसके लिए मुद्दा ऐतिहासक तथ्य नहीं ‘भाषा’ है। यह वाक़ई हैरानी की बात है कि बात-बात पर लोगों की देशभक्ति पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाली पार्टी के पास गिनाने के लिए अपना कोई स्वतंत्रता सेनानी नहीं है।
यहाँ तक कि जिन सावरकर के नाम पर वह आजकल सबसे ज़्यादा तलवार भाँजती है, उन्होंने अंग्रेज़ों को छह बार माफ़ीनामा लिखा था और अकेले स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्हें अंग्रेज़ी सरकार हर महीने 60 रुपये पेंशन देती थी। उन्होंने वादा किया था कि अंडमान की जेल से छोड़े जाने पर वे आजीवन ब्रिटिश साम्राज्ञी के वफ़ादार बेटे की तरह काम करेंगे जिसे उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम और गाँधी का विरोध और सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ावा देकर बख़ूबी पूरा किया।
यह संयोग नहीं कि बतौर कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस ने 1938 में मुस्लिम लीग के साथ हिंदू महासभा के सदस्यों के लिए भी कांग्रेस की सदस्यता प्रतिबंधित कर दी थी। उस समय सावरकर ही हिंदू महासभा के अध्यक्ष थे।
वैसे सावरकर कभी आरएसएस के सदस्य नहीं रहे जो बीजेपी का वैचारिक स्रोत है लेकिन उसके नेताओं पर सावरकर का गहरा प्रभाव रहा और उन्होंने भी स्वतंत्रता आंदोलन से अलग ही रहने की नीति बनाए रखी। 1925 में संघ की स्थापना करने वाले डॉ.केशव बलिराम हेडगेवार शुरु में कांग्रेस में ही थे और 1920 में चले असहयोग आंदोलन में भाग लेकर एक साल की जेल भी काटी थी, लेकिन बाद मे स्वतंत्रता आंदोलन से पूरी तरह अलग हो गये। यहाँ तक कि 1930 में जब वे जंगल सत्याग्रह में शामिल हुए तो आरएसएस का अपना पद उन्होंने छोड़ दिया था। इस बात का ख़ास ख़्याल रखा कि संघ अंग्रेज़ों की निगाह में न आने पाये। इतना ही नहीं, उन्होंने संघ के स्वयंसेवकों पर भी आज़ादी के आंदोलन में भाग लेने पर रोक लगा दी। संघ के तीसरे सर संघचालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस ने इस बाबत एक महत्वपूर्ण जानकारी दी है। उन्होंने बताया था-
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“जब भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी गई थी, तब हम कुछ दोस्त इतने उत्साहित थे कि हमने साथ में कसम ली थी कि हम भी कुछ खतरनाक करेंगे और ऐसा करने के लिए घर से भागने का फैसला भी ले लिया था। पर ऐसे डॉक्टर जी (हेडगेवार) को बताए बिना घर से भागना हमें ठीक नहीं लग रहा था तो हमने डॉक्टर जी को अपने निर्णय से अवगत कराने की सोची और उन्हें यह बताने की जिम्मेदारी दोस्तों ने मुझे सौंपी। हम साथ में डॉक्टर जी के पास पहुंचे और बहुत साहस के साथ मैंने अपने विचार उनके सामने रखने शुरू किए। ये जानने के बाद इस योजना को रद्द करने और हमें संघ के काम की श्रेष्ठता बताने के लिए डॉक्टर जी ने हमारे साथ एक मीटिंग की। ये मीटिंग सात दिनों तक हुई और ये रात में भी दस बजे से तीन बजे तक हुआ करती थी। डॉक्टर जी के शानदार विचारों और बहुमूल्य नेतृत्व ने हमारे विचारों और जीवन के आदर्शों में आधारभूत परिवर्तन किया। उस दिन से हमने ऐसे बिना सोचे-समझे योजनाएं बनाना बंद कर दीं। हमारे जीवन को नई दिशा मिली थी और हमने अपना दिमाग संघ के कामों में लगा दिया।”
(स्मृतिकण- परम पूज्य डॉ. हेडगेवार के जीवन की विभिन्न घटनाओं का संकलन, आरएसएस प्रकाशन विभाग, नागपुर, 1962, पेज- 47-48)
देवरस के बयान से स्पष्ट है कि भगत सिंह और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन के उनके साथी जो कुछ भी कर रहे थे वह बिना सोचे-विचारे किया गया निरर्थक काम था और ‘संघ काम में दिमाग़ लगाने’ का जो भी अर्थ रहा हो, अंग्रेज़ी शासन से मुक्ति नहीं था। इसीलिए आरएसएस के किसी सम्मेलन में आज़ादी के पक्ष में एक लाइन का प्रस्ताव भी पारित नहीं किया गया। यह स्थिति गोलवलकर के समय भी बनी रही जो 21 जून 1940 में डॉ.हेडगेवार की मृत्यु के बाद सर संघचालक बने थे।
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इसके अलावा भी आरएसएस के ही दस्तावेजों में ही कई प्रमाण हैं जो बताते हैं कि आरएसएस महात्मा गाँधी ही नहीं, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और उनके क्रांतिकारी आंदोलन की भी तीखी आलोचना करता था। ‘बंच ऑफ थॉट्स’ (गोलवलकर के भाषण और लेखों का संकलन) के कई अंश हैं जहाँ उन्होंने शहादत की परंपरा की निंदा की है। वे लिखते हैं-‘इस बात में तो कोई संदेह नहीं है कि ऐसे व्यक्ति जो शहादत को गले लगाते हैं, महान नायक हैं पर उनकी विचारधारा कुछ ज्यादा ही दिलेर है।
वे औसत व्यक्तियों, जो खुद को किस्मत के भरोसे छोड़ देते हैं और डर कर बैठे रहते हैं, कुछ नहीं करते, से कहीं ऊपर हैं। फिर भी ऐसे लोगों को समाज के आदर्शों के रूप में नहीं रखा जा सकता। हम उनकी शहादत को महानता के उस चरम बिंदु के रूप में नहीं देख सकते, जिससे लोगों को प्रेरित होना चाहिए क्योंकि वे अपने आदर्शों को पाने में विफल रहे और इस विफलता में उनका बड़ा दोष है.’ (बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु, बैंगलुरु, 1996, पेज- 283)
यह एक प्रमाणित तथ्य है कि आज़ादी के बाद संविधान से लेकर तिरंगे तक का आरएसएस ने ज़बरदस्त विरोध किया।
अब ज़रा आरएसएस की प्रेरणा से बने जनसंघ और बीजेपी के सितारों के बारे भी जान लें। श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई 1901 में हुआ था। यानी वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के साथ ही जवान हुए। लेकिन इसका उन पर कोई असर नहीं पड़ा। 1926 में वे इंग्लैंड से जब बैरिस्टर बनकर लौटे तो असहयोग आंदोलन की धमक कमज़ोर नहीं पड़ी थी लेकिन उन्होंने ‘करियर’ की ओर ध्यान दिया और मात्र 33 साल की उम्र में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्ति हो गये। सावरकर से प्रभावित होकर वे हिंदू महासभा में शामिल हुए। वे 1929 में ही बंगाल विधानपरिषद के सदस्य बन गये थे। 1941 में वे बाक़ायदा फज़लुल हक़ की सरकार में वित्त मंत्री बने जिसमें मुस्लिम लीग भी शामिल थी। उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन का जमकर विरोध किया। 26 जुलाई 1942 को उन्होंने बंगाल के गवर्नर सर जॉन हरबर्ट को चिट्ठी लिखकर आश्वस्त किया कि उनकी सरकार ‘युद्ध के दौरान लोगों को भड़काने की कांग्रेस की कोशिशों का पुरज़ोर विरोध करेगी।’
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बीजेपी के नक्षत्रों में ख़ास स्थान रखने वाले दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 1916 में हुआ था यानी 1947 में वे 31 साल के थे। ये वो दौर था जब देश के लाखों जवान स्वतंत्रता की लड़ाई में सबकुछ छोड़कर कुर्बान हो रहे थे लेकिन दीनदयाल उपाध्याय का नाम इस लिस्ट में नहीं है।
1977 में जनसंघ के जनता पार्टी में विलय के बाद 1980 जब बीजेपी का गठन हुआ तो दो नाम शिखर पर उभरे। अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी। लालकृष्ण आडवाणी 1947 में 20 साल के थे पर स्वतंत्रता आंदोलन में किसी रूप में उनकी भागीदारी का प्रमाण नहीं है। हालाँकि इस उम्र के तमाम क्रांतिकारियों और आंदोलनकारियों की लंबी लिस्ट है।
अटल बिहारी वाजपेयी का मामला तो ख़ासा दिलचस्प है। आज़ादी के समय उनकी उम्र लगभग 23 साल की थी और उनका नाम 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से जुड़ी एक ऐसी घटना से जुड़ा है जिसने उन्हें हमेशा असहज किया। आगरा के पास बटेश्वर गाँव के निवासी वाजपेयी की उम्र तब 17 साल की थी। उनके गाँव के ही स्वतंत्रता सेनानी लीलाधर वाजपेयी जीवन भर आरोप लगाते रहे कि 1942 में उनकी और उनके भाई प्रेम बिहारी वाजपेयी की गवाही की वजह से चार स्वतंत्रता सेनानियों को सज़ा हुई थी।
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1998 में फ्रंटलाइन पत्रिका ने इस घटना पर एक विशेष रिपोर्ट भी प्रकाशित की थी। संपादक एन.राम से रिकॉर्डेड इंटरव्यू में वाजपेयी ने घटना और इसके संबंध में शपथपत्र में हस्ताक्षर की बात स्वीकार की थी। हालाँकि पत्रिका ने यह भी स्पष्ट किया था कि ट्रायल में उनके बयान का इस्तेमाल नहीं हुआ था। बहरहाल, इससे इतना तो स्पष्ट है कि वाजपेयी कभी भी आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं हुए।
इसका अर्थ नहीं कि वाजपेयी की देशभक्ति पर सवाल उठाया जाये लेकिन जब बीजेपी चीनी घुसपैठ को लेकर सवाल उठाने वालों की देशभक्ति पर सवाल खड़ा कर रही तो कांग्रेस अध्यक्ष को यह याद दिलाने का पूरा हक़ है कि आरएसएस और बीजेपी के नेताओं ने आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया। बीजेपी चाहे तो आज़ादी के आंदोलन में बलिदान हुए अपने नायकों की लिस्ट देकर उन्हें जवाब दे सकती है। क्या वो ऐसा करेगी?
(लेखक - कांग्रेस से जुड़े हैं)
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