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गांधीनगर चुनाव: क्या आप विपक्ष को हराने के लिये चुनाव लड़ रही है?

वैसे तो किसी भी प्रदेश में एक नगर निगम के चुनावी नतीजों से उस पूरे प्रदेश की राजनीतिक स्थिति का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता, लेकिन कुछ ख़ास स्थितियों में उससे निकलते संकेतों को तो समझा ही जा सकता है। गुजरात की राजधानी गांधीनगर में भी चुनाव तो वैसे नगर निगम का ही था, जिसके नतीजों के ज़्यादा निहितार्थ नहीं निकाले जाने चाहिए। लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने जिस अंदाज़ में यह चुनाव लड़ा और जीतने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्विटर पर जितना लंबा-चौड़ा बधाई संदेश लिखा, उसने इस चुनाव के महत्व को बढ़ा दिया है।

गांधीनगर के नगर निगम चुनाव में बीजेपी ने अभूतपूर्व जीत हासिल की है, सो उसका उत्साहित होना और अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर उसका मनोबल बढ़ना स्वाभाविक है। लेकिन विपक्षी दलों के लिए इन चुनाव नतीजों का महत्व और भी ज़्यादा है। अगर इन नतीजों से विपक्षी दलों ने सबक़ नहीं लिया तो बीजेपी के ख़िलाफ़ एकजुट होने के सारे दावों और बीजेपी को हराने की हसरतों का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। इस चुनाव के जो नतीजे आए हैं, उनसे कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को सबसे ज़्यादा सबक़ लेने की ज़रूरत है। शरद पवार भी इससे सबक़ लेकर अगर कोई पहल करें तो विपक्ष की राजनीति के हक में अच्छा होगा। 

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गांधीनगर बीजेपी का लंबे समय से मज़बूत गढ़ बना हुआ है। यहाँ की लोकसभा सीट से पहले लालकृष्ण आडवाणी जीतते रहे। उन्होंने 1991 से लेकर 2019 तक इस निर्वाचन क्षेत्र का लोकसभा में प्रतिनिधित्व किया। उनको 'मार्गदर्शक’ बना दिए जाने के बाद अमित शाह इस सीट से सांसद हैं। इसके बावजूद पिछले चुनावों से नगर निगम में बीजेपो को बहुमत नहीं मिल रहा था। कांग्रेस उसे बराबरी की टक्कर दे रही थी। लेकिन इस बार कांग्रेस को इतनी करारी हार का सामना करना पड़ा कि उसका पूरी तरह सफाया ही हो गया। बीजेपी को 44 में से 41 सीटों पर जीत हासिल हुई और 52 फ़ीसदी वोट मिले। कांग्रेस को 26 फ़ीसदी वोट मिले लेकिन वह महज दो सीटें ही जीत सकी। कांग्रेस की यह दुर्दशा आम आदमी पार्टी के मैदान में होने की वजह से ही हुई है, जिसे 17 फ़ीसदी वोट मिले। हालाँकि वह सीट तो सिर्फ़ एक ही जीत पाई लेकिन उसको मिले 17 फ़ीसदी वोटों की वजह से कांग्रेस का खेल बुरी तरह बिगड़ गया।

यह सही है कि बीजेपी को जितने वोट मिले हैं, उस हिसाब से कांग्रेस और आम आदमी पार्टी मिल कर भी उसे नहीं हरा सकती थीं लेकिन दोनों पार्टियां अगर साथ होतीं तो बीजेपी को इतनी भारी भरकम जीत हासिल करने से रोक सकती थीं। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के अलावा शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) भी चुनाव मैदान में थी और उसे भी दो फ़ीसदी से ज़्यादा वोट मिले हैं। 

इसलिए ये नतीजे कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और एनसीपी तीनों के लिए सबक़ हैं। अगर उन्हें बीजेपी को रोकना है तो साथ आना ही होगा। लेकिन यह तभी संभव है जब आम आदमी पार्टी स्वतंत्र रूप से राजनीति कर रही हो या फ़ैसले ले रही हो।

जैसी कि व्यापक चर्चा है कि अगर वह बीजेपी से साठगांठ कर दिल्ली से बाहर अन्य राज्यों में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को नुक़सान पहुँचाने के मक़सद से चुनाव लड़ रही है, तो ऐसी स्थिति में कांग्रेस या अन्य किसी विपक्षी दल के साथ उसका तालमेल कभी नहीं हो पाएगा।

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गांधीनगर के नतीजों का तात्कालिक सबक़ कुछ महीनों बाद होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिहाज से भी है। आम आदमी पार्टी मणिपुर को छोड़ कर बाक़ी चार राज्यों उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड और गोवा में भी ताल ठोक रही है। पंजाब विधानसभा में तो वह मुख्य विपक्षी पार्टी पहले से है, वहाँ से पिछली लोकसभा में उसके तीन सदस्य थे और इस लोकसभा में भी एक सदस्य है, लिहाजा वहाँ तो निर्विवाद रूप से उसका दावा बनता है। लेकिन उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गोवा में उसका न तो कोई आधार है और न ही कोई संगठन। 

इन तीनों प्रदेशों में उसके पास ऐसा कोई चेहरा भी नहीं है जिसको आगे कर वह चुनाव लड़ सके और मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित कर सके। इसके बावजूद पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल दिल्ली में अपनी सरकार को 'ऑटो पायलट मोड' में डाल कर इन राज्यों का दौरा कर रहे हैं और मुफ्त बिजली-पानी देने के लोकलुभावन वादे कर ताल ठोक रहे हैं। रोजगार को लेकर तो वे ऐसे-ऐसे वादे और दावे कर रहे हैं, जिसे सुन कर दिल्ली के लोग भी हैरान-परेशान हैं। वे सोच रहे हैं कि आख़िर उनका क्या अपराध है जो दिल्ली में सात साल से सरकार चला रहे केजरीवाल दिल्ली में रोज़गार पैदा करने वाली योजना नहीं लागू कर पा रहे हैं।

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इन तीन राज्यों के अलावा अगले वर्ष के अंत में होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी उतरने का ऐलान आम आदमी पार्टी की ओर से किया गया है। बिना किसी आधार या संगठन के इन राज्यों में आम आदमी पार्टी के चुनाव मैदान में उतरने का सीधा मक़सद बीजेपी को फ़ायदा पहुँचाना दिख रहा है। 

इसलिए चुनाव से पहले कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, एनसीपी और तृणमूल कांग्रेस इन चारों को इस सिलसिले में केजरीवाल से बात करनी चाहिए। अगर वे चुनाव मैदान से नहीं हटते हैं या उनकी पार्टी से तालमेल नहीं होता है तो इसका सीधा फ़ायदा बीजेपी को होगा। ऐसे में आम आदमी पार्टी की छवि भी वोट कटवा पार्टी की बनेगी और उस पर लगने वाले इस आरोप की पुष्टि भी होगी कि वह बीजेपी की बी टीम है।

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अनिल जैन
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