"इस देश में राजनीतिक सत्ता कुछ लोगों का एकाधिकार रही है और बहुजन न केवल बोझ उठाने वाले बल्कि शिकार किए जाने वाले जानवरों के समान हैं। इस एकाधिकार ने न केवल उनसे विकास के अवसर छीन लिए हैं बल्कि उन्हें जीवन के किसी भी अर्थ या रस से वंचित कर दिया है। ये पददलित वर्ग शासित रहते-रहते अब थक गए हैं। अब वे स्वयं शासन करने के लिए बेचैन हैं। इन कुचले हुए वर्गों में आत्म साक्षात्कार की इस ललक को वर्ग-संघर्ष या वर्ग-युद्ध का रूप ले लेने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए।"

1999 में 59.99% मतदान हुआ तो भाजपा ने 182, 2004 में 58% मतदान हुआ तो 138 सीटें जीतीं। 2009 में 58.21% मतदान हुआ तो बीजेपी 116 सीटों पर सिमट गई। 2014 में 66.44% वोटिंग तो बीजेपी को 282 और 2019 में 67.4% वोटिंग हुई तो बीजेपी को 303 सीटें मिलीं।
-डॉ. आम्बेडकर (25 नवम्बर, 1949, संविधान सभा का भाषण)
पहले और दूसरे चरण की क्रमशः 102 और 88 सीटों पर हुए चुनाव में मतदान का एक अलग पैटर्न देखने में आ रहा है। मोदी राज के एक दशक बाद होने वाले 18वीं लोकसभा के चुनाव में उत्तर भारत की हिंदी पट्टी में मतदान उत्साहित करने वाला नहीं है। जहाँ पिछले चुनाव में 60 फ़ीसदी से ऊपर मतदान हुआ था, वहाँ इस बार क़रीब 50 फ़ीसदी मतदान हुआ है। मतदान पर बात करने से पहले एक बात और कहना आवश्यक है कि इस चुनाव के दौरान जनमानस में एक अजीब-सा सन्नाटा और ठहरापन व्याप्त है। लोगों में ज्यादा जोश नहीं दिख रहा है। पार्टियों के प्रचार और समर्थक कार्यकर्ताओं में कोई खास मुखरता नहीं दिख रही है। इस सन्नाटे और खामोशी की कैसे व्याख्या की जाए? क्या लोकतंत्र के प्रति लोगों का विश्वास कम हो रहा है? सच तो यह है कि भारत जैसे लोकतंत्र को यहां के गरीब किसान वंचित और बहुजनों ने जीवंत बनाया है। यह भी देखने में आया है कि जैसे-जैसे शिक्षा और समृद्धि बढ़ी है, उच्च वर्गों की मतदान में रुचि कम हुई है। अलबत्ता, लोकतंत्र की सुविधाओं और अधिकारों को भोगने वाला यही उच्च शिक्षित और उच्च आय वाला वर्ग है।
लेखक सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक हैं और लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असि. प्रोफ़ेसर हैं।