"इस देश में राजनीतिक सत्ता कुछ लोगों का एकाधिकार रही है और बहुजन न केवल बोझ उठाने वाले बल्कि शिकार किए जाने वाले जानवरों के समान हैं। इस एकाधिकार ने न केवल उनसे विकास के अवसर छीन लिए हैं बल्कि उन्हें जीवन के किसी भी अर्थ या रस से वंचित कर दिया है। ये पददलित वर्ग शासित रहते-रहते अब थक गए हैं। अब वे स्वयं शासन करने के लिए बेचैन हैं। इन कुचले हुए वर्गों में आत्म साक्षात्कार की इस ललक को वर्ग-संघर्ष या वर्ग-युद्ध का रूप ले लेने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए।"
-डॉ. आम्बेडकर (25 नवम्बर, 1949, संविधान सभा का भाषण)
पहले और दूसरे चरण की क्रमशः 102 और 88 सीटों पर हुए चुनाव में मतदान का एक अलग पैटर्न देखने में आ रहा है। मोदी राज के एक दशक बाद होने वाले 18वीं लोकसभा के चुनाव में उत्तर भारत की हिंदी पट्टी में मतदान उत्साहित करने वाला नहीं है। जहाँ पिछले चुनाव में 60 फ़ीसदी से ऊपर मतदान हुआ था, वहाँ इस बार क़रीब 50 फ़ीसदी मतदान हुआ है। मतदान पर बात करने से पहले एक बात और कहना आवश्यक है कि इस चुनाव के दौरान जनमानस में एक अजीब-सा सन्नाटा और ठहरापन व्याप्त है। लोगों में ज्यादा जोश नहीं दिख रहा है। पार्टियों के प्रचार और समर्थक कार्यकर्ताओं में कोई खास मुखरता नहीं दिख रही है। इस सन्नाटे और खामोशी की कैसे व्याख्या की जाए? क्या लोकतंत्र के प्रति लोगों का विश्वास कम हो रहा है? सच तो यह है कि भारत जैसे लोकतंत्र को यहां के गरीब किसान वंचित और बहुजनों ने जीवंत बनाया है। यह भी देखने में आया है कि जैसे-जैसे शिक्षा और समृद्धि बढ़ी है, उच्च वर्गों की मतदान में रुचि कम हुई है। अलबत्ता, लोकतंत्र की सुविधाओं और अधिकारों को भोगने वाला यही उच्च शिक्षित और उच्च आय वाला वर्ग है।
1952 के पहले लोकसभा चुनाव से पिछले लोकसभा और अन्य विधानसभा के चुनावों में लगातार वोट प्रतिशत बढ़ता रहा है। जैसे-जैसे गाँव तक संविधान की इस ताक़त का प्रभाव बढ़ा और लोगों ने इसे महसूस किया, उन्होंने मतदान को उत्सव में बदल दिया। लेकिन महानगरों में होने वाला मतदान यह बताता है कि अधिक आय और उच्च शिक्षा वाले नागरिकों की मतदान में कोई खास रुचि नहीं है। एक उदाहरण देखिए। 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में 50 फ़ीसदी से कम साक्षरता वाली दिल्ली में 88 फ़ीसदी मतदान हुआ था। जबकि 2019 में जब दिल्ली की साक्षरता दर बढ़कर 86 फ़ीसदी हो गई तो मतदान का प्रतिशत केवल 60 फ़ीसदी रह गया। गॉंव कस्बों में जैसे-जैसे सामंतवाद और ब्राह्मणवाद का शिकंजा ढीला पड़ता गया, कमजोर वर्ग लोकतंत्र में अपनी भागीदारी दर्ज कराने पोलिंग बूथ पर उत्साह से निकलने लगा। इसीलिए ग्रामीण इलाकों में मतदान प्रतिशत चुनाव-दर-चुनाव बढ़ता गया।
पहले और दूसरे चरण में उत्तर भारत में घटते मतदान का क्या कारण है? दरअसल, नरेंद्र मोदी ने अपनी ब्रांडिंग और हिंदुत्व की विचारधारा के आधार पर एक मज़बूत मतदाता वर्ग बना लिया था। लेकिन 10 सालों में उसका विश्वास टूटा है। धर्म के आधार पर होने वाली सांप्रदायिक राजनीति ने लोगों का कोई भला नहीं किया। नौजवानों की नौकरियाँ ही नहीं, उनके सपने भी छीन लिए गए। किसानों के आंदोलन पर लाठियाँ बरसाई गईं। भाजपा के समर्थक वर्ग में कमी आई। यह मतदाता जो नाउम्मीद हो चुका है लेकिन विचारधारा से भाजपाई है, उसने वोट डालना मुनासिब नहीं समझा। जबकि दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक और नौजवान किसान बड़ी तादात में इंडिया एलाइंस को वोट करने के लिए निकले। लेकिन कम वोटिंग का एक दूसरा कारण भी है। पहले की तरह इस चुनाव में भी भाजपा प्रशासनिक मशीनरी का खूब दुरुपयोग कर रही है। प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र में अल्पसंख्यक और दलित मतदाताओं के कम से कम दस हजार नाम वोटर लिस्ट से गायब हैं। यह भी शिकायत मिली है कि अनेक पोलिंग बूथ पर खासकर अल्पसंख्यक मतदाताओं को पुलिसिया तंत्र द्वारा परेशान किया गया है। उन्हें वोट डालने से रोका ही नहीं जा रहा है बल्कि प्रताड़ित भी किया जा रहा है। अगर यह आरोप सत्य है तो चुनाव आयोग पर बहुत बड़ा सवाल है। अगर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव आयोग निष्पक्ष नहीं रहा तो भारत को लोकतंत्र की जननी बताने का क्या मतलब है!
इसलिए अब कहीं किसी सभा में मोदी 400 पार की बात नहीं कह रहे हैं। राहुल गांधी ने इस मुद्दे पर मोदी को बैकफुट पर ला दिया।
दो चरणों के मतदान की एक विशेषता यह भी है कि उत्तर भारत यानी हिंदी पट्टी में वोट प्रतिशत कम हुआ है जबकि उत्तरपूर्व, बंगाल और दक्षिण भारत में वोट प्रतिशत पिछले चुनाव की तरह ही 70 फीसदी से अधिक है। ग़ौरतलब है कि भाजपा का गढ़ यही हिंदी पट्टी है, जिसे कुछ लोग गोबर पट्टी भी कहते हैं। पिछले चुनाव में यूपी, बिहार, महाराष्ट्र, एमपी, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उत्तराखंड आदि राज्यों की अधिकतम सीटें भाजपा ने जीती थीं। इस बार यहां कम वोट होने का मतलब है कि भाजपा का वोटर निराश है। सामाजिक रूप से हिन्दू अपर कास्ट भाजपा का कोर वोटर है। भौतिक सुख-सुविधाओं में जीने वाला यह तबक़ा भीषण गर्मी में निकलने में डरता है। जबकि भाजपा को छ्प्पर फाड़ बहुमत दिलाने वाला अति पिछड़ा और अतिदलित तबका इस बार इंडिया गठबंधन के साथ दिख रहा है।
अब एक दूसरा आँकड़ा देखिए। पिछले तीन दशक में हुए चुनावों के आँकड़े गवाह हैं कि वोटिंग कम होने का नुक़सान भाजपा को हुआ है। 1999 के आम चुनाव में 59.99% मतदान हुआ। भाजपा ने 182 सीटें जीतकर अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनाई। 2004 में इंडिया शाइनिंग के नारे के साथ बीजेपी मुतमईन थी कि वो फिर से सरकार बनाएगी। लेकिन इस बार 58% मतदान हुआ। 2% वोटिंग घटने से भाजपा को 44 सीटों का नुक़सान हुआ। केवल 138 सीटें बीजेपी जीत सकी और सत्ता से बाहर हो गयी। 2009 में 58.21% मतदान हुआ। इस बार बीजेपी116 सीटों पर सिमट गई। 2014 की मोदी लहर में मतदान 8% बढ़कर 66.44% तक पहुंच गया। इस बार भाजपा ने 282 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत हासिल किया। 2019 में हुए 17वीं लोकसभा के चुनाव में मतदान 1% बढ़कर 67.4% हो गया। बीजेपी की सीटों की संख्या 303 पहुंच गई।
अपनी राय बतायें