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सहयोगी दलों से तालमेल बिना कांग्रेस का रास्ता आसान नहीं!

रविवार को क्रिकेट मैच देख रहे समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव से जब मीडिया ने पूछा कि कौन जीतेगा तो उनका जवाब था- इंडिया जीतेगा और आगे भी 'इंडिया ' ही जीतेगा। पहली जीत तो वे क्रिकेट की बता रहे थे तो दूसरी जीत लोकसभा में 'इंडिया' गठबंधन की। पर मध्य प्रदेश को लेकर जो बदमज़गी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी में पैदा हुई है उससे लोकसभा में भी कई तरह की दिक्कत पैदा हो सकती है। उसकी वजह साफ़ है कि सहयोगी दलों को भरोसे में न लेना और हल्के क़िस्म की बयानबाज़ी। पहले विवाद को समझ लें।

मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की बैठक भोपाल में हुई।  कांग्रेस ने पहल की और छह सीटों को चिन्हित किया गया। बैठक रात डेढ़ बजे तक चली जिसमें कांग्रेस के शीर्ष नेता थे। समाजवादी पार्टी अपनी एक जीती हुई सीट और तीन-चार दूसरे नंबर की सीट चाहती थी। बात क़रीब-क़रीब तय भी हो चुकी थी पर फिर कांग्रेस पलट गई और बातचीत टूट गई। इसपर भोपाल में दिग्विजय सिंह ने भी कहा, बात तो हो गई थी अचानक कैसे मामला बिगड़ गया यह पता नहीं। कांग्रेस ने उस सीट पर भी उम्मीदवार घोषित कर दिया जो पिछली बार समाजवादी पार्टी जीत गई थी। इस बीच उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अजय राय ने कह दिया कि कांग्रेस लोकसभा की सभी अस्सी सीटों पर चुनाव लड़ेगी। मामला यहीं से बिगड़ गया क्योंकि अखिलेश यादव लगातार कह रहे थे कि वे उत्तर प्रदेश में भाजपा को इंडिया गठबंधन से हराएंगे।

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अजय राय की टिप्पणी पर सपा मुखिया अखिलेश यादव ने तीखी प्रतिक्रिया की और एमपी चुनाव में भी बात बिगड़ ही चुकी थी। रही सही कसर कमलनाथ की अखिलेश यादव पर की गई टिप्पणी ने पूरी कर दी। कांग्रेस ने बहुत ही बचकाने ढंग से इस मुद्दे को बिगड़ दिया और हफ्ते भर के भीतर एमपी में वह कांग्रेस जो आगे बढ़ती दिखाई पड़ रही थी वह विवादों में घिर गई।

वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल के मुताबिक यह कदम कांग्रेस को कुछ न कुछ नुकसान पहुंचाएगा ही। जब भाजपा और कांग्रेस के वोट लगभग बराबर हो तो आधा-एक फीसद वोटों का नुकसान भी कई सीटों पर असर डाल सकता है। खासकर यूपी से लगा बुंदेलखंड का वह इलाका जहाँ यादव और कुछ अन्य पिछड़ी जातियाँ चुनाव का रुख बदल देती हैं। इसलिए कांग्रेस को इतने हल्के ढंग से बातचीत को नहीं ख़त्म करना चाहिए था। इससे लोकसभा चुनाव में यूपी को लेकर बातचीत कैसे होगी।

यही असली मुद्दा है। यूपी में लोकसभा की सिर्फ एक सीट कांग्रेस के पास है रायबरेली की। वह भी समाजवादी पार्टी के समर्थन वाली है।
अमेठी से राहुल गांधी हार गए थे और ज्यादातर सीटों पर कांग्रेसी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी।
आखिरी चुनाव विधानसभा का हुआ जिसमें प्रियंका गांधी ने जमकर प्रचार किया था। 'लड़की हूं लड़ सकती हूं' नारे के साथ। इस चुनाव में कांग्रेस का वोट घटकर ढाई फीसदी से भी नीचे चला गया। जो दो सीट मिली उसमें से भी एक समाजवादी पार्टी के समर्थन वाली थी। फिर एक नैरेटिव बनना शुरू हुई कि मुसलमान कांग्रेस के साथ है। यह कर्नाटक के चुनाव नतीजों के बाद शुरू हुआ। बीजेपी को भी यह बहुत ठीक लगा क्योंकि मुस्लिम कांग्रेस को जाएंगे तो यूपी में सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को ही होगा और विपक्ष मुस्लिम वोट बंट जाने के बाद और पिछड़ जाएगा।
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मुस्लिम राजनीति भी समझनी हो तो पीस पार्टी से लेकर मिल्ली काउंसिल के चुनावी इतिहास पर नज़र डाल लें गलतफहमी दूर हो जाएगी।

खैर, कांग्रेस यूपी में सिर्फ गठबंधन के ज़रिए ही चार-छह सीट जीत सकती है आज के हालात को देखते हुए। ऐसे में उसे सहयोगी दलों को चिढ़ाने-खिझाने की बजाए बेहतर तालमेल का प्रयास करना चाहिए। क्योंकि अगर अखिलेश यादव से बात बिगड़ेगी तो जनता दल यूनाइटेड से लेकर राष्ट्रीय जनता दल के रिश्ते भी प्रभावित होंगे। समाजवादी पार्टी लोकसभा में यूपी में सोलह चिन्हित सीटें देने को तैयार थी अब उसपर वह फिर से विचार कर रही है। यह विपक्षी एकता के लिए ठीक नहीं है। दरअसल, कांग्रेस में कोई हरकिशन सिंह सुरजीत जैसा नेता नहीं है वरना इस तरह की समस्या नहीं आती।

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अंबरीश कुमार
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