भारत में बढ़ती आर्थिक विषमता के मद्देनज़र थॉमस पिकेटी जैसे तमाम अर्थशास्त्रियों की राय रही है कि छोटे से “सुपररिच” वर्ग पर कुछ टैक्स लगा कर गरीबों की मदद की जा सकती है. वित्तमंत्री ने बजट प्रस्तुत करने के बाद दिए गए मीडिया इंटरव्यू में इस सवाल को ख़ारिज करते हुए कहा कि यह उचित नहीं होगा कि और छोटे होते करदाताओं के आधार को हीं ज्यादा निचोड़ा जाये. सीधा मतलब यह हुआ कि सरकार एचएनआईज (हाई नेटवर्थ इंडिविजुअल्स) पर किसी किस्म का टैक्स लगा कर “मार्केट सेंटिमेंट” खराब करना नहीं चाहती है.
यह सच है कि एक विकासशील देश में सरकार के जिम्मे कई स्तर पर प्रयास करना होता है. कुपोषण से लेकर अशिक्षा दूर करने तक और स्वास्थ्य सेवा बेहतर करने से लेकर सामाजिक कुरीतियों पर लगाम लगाने तक. इसके अलावा विकास के लिए अंतरसंरचनात्मक ढांचे पर व्यय जैसे रेल, सड़क, सिंचाई, एअरपोर्ट, बिजली, पर्यावरण पर असाधारण खर्च करना अपरिहार्य होता है. इस वर्ष सरकार ने न तो प्रस्ताव के अनुरूप पूंजीगत व्यय किया, न ही सब्सिडी पर पहले जैसा खर्च रहा. ये सभी खर्च विकास को पंख देते हैं. इसके एवज में बस हासिल हुआ तो क्या? फिस्कल घाटा कम हुआ. यानी मार्केट सेंटिमेंट बेहतर रहेगा.
अगर उद्योगपति अडानी की संपत्ति पिछले 11 सालों में 20 गुनी बढ़ी है, अगर जिनी कोएफ़िशिएंट पर भारत में गरीबी-अमीरी की खाई लगातार बढ़ रही है जिसके व्यापक संकेत थॉमस पिकेटि ने अपने अध्ययन में दिये हैं तो मात्र एक प्रतिशत अरबपतियों पर “सुपर रिच” टैक्स लगाना और उससे प्रेमचंद के गोदान के चरित्र – होरी, झुनिया, गोबर की स्थिति सुधारना और सोना-रूपा को अच्छी शिक्षा देना न्याय भी है और विकास की सही दिशा भी. इसीलिए विली सटन की बात सही लगती है भले हीं वह डकैती अपने लिए करता था और सरकार गरीबों के कल्याण के लिए उनसे मात्र उनके उस "लाभ" का कुछ अंश ले रही है जो गलत नीतियों के कारण उनके पास पहुंचा.
कार्ल मार्क्स का मध्यम वर्ग एक “पेटी बुर्जुआ” खास किस्म का शोषक होता था. भारत में इसका मतलब अपने-अपने तर्क को वजन देने के लिए “मिडिल क्लास मानसिकता” कह कर दिया जाता है. आयकर में छूट की कई वर्षों पुरानी मांग मान कर सरकार ने एक वर्ग को राहत तो दी है. भले हीं इससे राजस्व में एक लाख करोड़ रुपये की कमी होगी लेकिन बताया जा रहा है कि इससे इस राशि से तीन गुना क्रय होगा और इकॉनमी उत्प्रेरित होगी.
देश में आयकर मात्र 2.3 प्रतिशत लोग देते हैं. लेकिन सरकार इसे मध्यम वर्ग के लिए एक बड़ी राहत बता रही है. पहले तो, पूरी दुनिया में मध्यम वर्ग की कोई परिभाषा आज तक नहीं बनी है. बहरहाल किसी समाज में मात्र 2.3 प्रतिशत टैक्स देने वाला वर्ग (यानी देश के तीन करोड़ लोग) मिडिल क्लास तो कतई नहीं हो सकता. दरअसल सरकार या संगठित क्षेत्र के नौकरीपेशा लोग या छोटा सा वह शहरी तबका जो नौकरी में न रहते हुए भी इतना कमा रहा है कि कम या ज्यादा इनकम टैक्स दे रहा है, आज भी समाज का मुखर तबका है. मीडिया में भी इसी की बात होती है.
शहरों में सब्जी, गेहूं, दूध, दाल, ,बस भाड़ा या स्कूल फीस बढे़ तो यह वर्ग पूरे देश के बेहाली जैसा माहौल बनाता है. यही कारण है कि सरकार मांग से पहले ही वेतन-आयोग लाती है, जबकि देश भर में कुल (केंद्र और राज्यों के) सरकारी कर्मचारी मात्र 1.75 करोड़ ही हैं.
तथाकथित मध्यम वर्ग के डर से खाद्यान्न की महंगाई होने पर उसका निर्यात रोक देती है या दाम गिराने के लिए आयात करती है बगैर यह सोचे कि दाम बढ़ेंगे तो किसान खुशहाल होगा. यह वर्ग 144 करोड़ की आबादी में कहीं से भी स्पेक्ट्रम में मध्यम स्थान नहीं लेता फिर भी इतना प्रभावशाली है कि 100-125 करोड़ असंगठित क्षेत्र के किसान-मजदूर-छोटे व्यापारी, रेहड़ी-पटरी विक्रेता गौण हो जाते हैं. तभी तो पिछले 55 वर्षों में सरकारी कर्मचारी की आय 326 गुना बढ़ी जबकि गेहूं का एमएसपी 30 गुना.
- असली मध्यम वर्ग किसान और उसका बेरोजगार बेटा है और असली मार्केट सेंटिमेंट है “बेहतर और सस्ता उत्पादन जो ग्लोबल मार्केट में खड़ा हो सके”.
(लेखक एन के सिंह ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) के पूर्व महासचिव हैं।)
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