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अरुणाचल प्रदेश के तवांग सेक्टर में वास्तविक नियंत्रण के यांगत्से इलाके पर नौ दिसम्बर को चीनी सेना की कब्जा की कोशिश को भारतीय सैनिकों ने नाकाम कर अपने साहस और शौर्य का एक बार फिर परिचय दिया है लेकिन इस वारदात पर सरकार क्यों दो दिनों तक मौन रही यह हैरान करने वाली बात है।
घुसपैठ की इस ताजा वारदात ने गलवान में 15 जून, 2020 की उस खुनी रात की याद दिला दी है जब चीनी सैनिकों ने लाठी, भाला और कंटीली बेंतों से भारतीय सैनिकों की पीठ पर वार किया था।
तब भी अपनी जान की परवाह नहीं करते हुए और अधिक संख्या में भारतीय सैनिक वहां चीनियों से लडने चले गए और इस दौरान करीब 40 चीनी सैनिकों को मार गिराया। इसमें भारतीय सेना के 20 सैनिकों ने भी अपनी कुर्बानी दी।
रोंगटे खडे तक देने वाली इस लोमहर्षक वारदात ने देश की आत्मा को झकझोर दिया था। तवांग के ग्यांत्से इलाके में गलवान फिर से दोहराने से चीनी सैनिक बच गए औऱ इसके पहले ही उन्होंने अपनी सेना को पीछे हटाना ही उचित समझा। लेकिन ग्यांत्से इलाके में जो झड़प हुई वह केवल हाथापाई ही नहीं कही जा सकती। दोनों सेनाओं के बीच जम कर आपसी मारापीटी हुई और इस दौरान कई गम्भीर घायल हो गए।
भारत और चीन के बीच 3488 किलोमीटर लम्बी वास्तविक नियंत्रण रेखा है जिसके अधिकांश इलाके की निरंतर सैन्य निगरानी की जाती है लेकिन इतनी लम्बी वास्तविक नियंत्रण रेखा के चप्पे चप्पे पर सेना को हमेशा के लिये तैनात नहीं रखा जा सकता। चीनी सेना हमेशा इस ताक में रहती है कि जहां निगरानी में कुछ ढील दी जा रही है वहां अपने सैनिकों को भेजकर कब्जा कर लिया जाए।
तवांग के यांगस्ते इलाके में भी चीन ने इस निगरानी में ढील का फायदा उठाया। निगरानी में ढील इसलिये दी गई थी कि वह इलाका बर्फ से ठंका था इसलिये रात के वक्त कुछ सैनिक वहां से पीछे चले जाते थे। यह देखकर चीनी सेना ने नौ दिसम्बर की सुबह तीन बजे ही भारतीय इलाकों में घुसने की कोशिश की। इसका पता चलते ही भारतीय सेना की ओर से तैनाती बढ़ाई गई और चीनियों को बलपूर्वक वहां से खदेडा गया। इस दौरान करीब एक दर्जन भारतीय सैनिक घायल हो गए। इस हाथापाई और मारपीट में चीन के भी सैनिक काफी घायल हो गए।
सवाल यह उठता है कि आखिर चीनी सेना इस तरह की घुसपैठ क्यों करती है। जब दोनों देशों के बीच 1993 में यह सहमति हो चुकी थी कि 1962 के युद्ध के बाद संघर्ष विराम रेखा को वास्तविक नियंत्रण रेखा कहा जाए और दोनों देशों के सैनिक इसका पालन करें तो क्यों चीन इस समझौते की भावना तोड़ने की हरकतें अक्सर करता रहता है।
चीनी सेना द्वारा इस समझौते का पालन 1993 से 2012 तक होता रहा लेकिन अगले साल जब शी चिन फिंग ने चीन के राष्ट्रपति का पद सम्भाला उसी साल से उन्होंने वास्तविक नियंत्रण रेखा के भारतीय इलाके में घुसपैठ कर कब्जा कर लेने की नीति अपनाई। शी चिन फिंग के एक दशक पहले सत्ता सम्भालने के बाद चीनी सेना ने अबतक पांच बार अतिक्रमण कर 1993 और 1996 की संधियों की धज्जियां उड़ा दी है। 2013 में चुमार, 2017 में डोकलाम और फिर देपसांग, बुर्त्से और पिछले दो साल से मौजूदा घुसपैठ पूर्वी लद्दाख में जहां 15 दौर की सैन्य कमांडर वार्ता के बावजूद चीनी सेना ने वास्तविक नियंत्रण रेखा तक लौटने या सैन्य तैनाती को कम करने पर सहमति नहीं दी है।
वास्तव में चीन की मंशा ही नहीं लगती कि वह भारत को किसी तरह की सैन्य राहत दे। यही वजह है कि मौजूदा चीनी राष्टपति भारत पर सैन्य दबाव बनाए रखना चाहते हैं। पूर्वी लद्दाख के गलवान, गोगरा हाट स्प्रिंग, पैंगोंग झील के इलाके में सेनाओं को पीछे ले जाने की जो सहमतियां हुई हैं उनमें भी चीन का पलड़ा भारी रहा है। जिन इलाकों में चीनी सैनिक पीछे हटे हैं वे वास्तविक नियंत्रण रेखा तक तो लौट जाएंगे लेकिन भारतीय सैनिकों को वास्तविक नियंत्रण रेखा के भारतीय इलाके में एक बफर जोन के पीछे जाना होगा।
बफर जोन एलएसी से कुछ किलोमीटर पीछे तक माना गया है। यानी उन इलाकों पर भारतीय सैनिक गश्ती नहीं कर सकते। इस तरह इस इलाके पर भारत का अधिकार भी समाप्त कहा जा सकता है।
राजनयिक पर्यवेक्षकों के मुताबिक शी चिन फिंग नहीं चाहते कि भारत एक बड़ी आर्थिक व सैन्य ताकत के तौर पर उभरे। वह एशिया का एकमात्र छत्रप बनना चाहता है और भारत इसमें आड़े आ रहा है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत को पिछले दो दशकों में जिस तरह नई प्रतिष्ठा मिली है उससे चीन की ताकत कुछ धूमिल दिखने लगती है। चीन भारत पर सैन्य दबाव बनाए रख कर भारत को मजबूर कर रहा है कि या तो वह चीन की शर्तों पर चीन से कोई सीमा समझौता करे या चीनी सैन्य दबाव को झेलते रहे।
भारत से लगे सीमांत इलाकों यानी करीब 3488 किलोमीटर लम्बी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सैन्य तैनाती कर चीनी सैन्य दबाव को संतुलित करने में भारत को हर साल हजारों करोड़ रुपये खर्च तो हो ही रहे थे, पूर्वी लद्दाख में जिस तरह से एलएसी के टकराव वाले इलाकों में चीन ने करीब साठ हजार सैनिक तैनात कर दिये हैं और उनके साथ आधुनिकतम शस्त्र प्रणालियों आदि के रखरखाव के लिये विशाल व स्थाई ढांचागत सुविधाएं खड़ी कर ली हैं, वह चौकाने वाली हैं।
चीन के इस सैन्य दबाव को संतुलित करने के लिये भारत को भी अपने 50 हजार से अधिक सैनिकों को आधुनिकतम शस्त्र प्रणालियों के साथ मजबूरन तैनात करना पड़ा। इससे भारत की अर्थव्यवस्था को भारी चोट पहुंच रही है। एक अनुमान के मुताबिक इन सैनिकों के आवास, भोजन आदि और हथियारों के रखरखाव पर रोजाना करीब सौ से डेढ़ सौ करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। यदि हिसाब किया जाए तो गत 20 अप्रैल, 2020 के बाद से चीनी सैन्य अतिक्रमण के 31 माह बीच चुके हैं और इन पर रोजाना न्यूनतम एक सौ करोड़ रुपये के खर्च को भी अनुमान लगाया जाए तो भारत सरकार को वास्तविक नियंत्रण रेखा की चौकसी और रक्षा पर एक से डेढ़ लाख करोड़ रुपये से अधिक खर्च करने पड़े होंगे।
निश्चय ही भारत की अर्थव्यवस्था पर यह बहुत बडा बोझ साबित हो रहा है।
चीन यही चाहता है कि भारत के वित्तीय संसाधनों को इस तरह चीन सीमा की चौकसी और रक्षा करने की जिम्मेदारी पूरा करने पर मोड़ दिया जाए। इस तरह भारत के आर्थिक विकास की गति कुछ धीमी की जा सकती है।
चीनी राष्ट्रपति के भारत के खिलाफ अत्यधिक आक्रामक रुख अपनाने की यह वजह भी बताई जा रही है कि वह अपने देश के लोगों के बीच अपने को एक राष्ट्रवादी नेता के तौर पर पेश करना चाहते हैं। यह भी कहा जा रहा है कि जिस तरह से शी चिन फिंग की जीरो कोविड नीति को लेकर देश भऱ में विरोध प्रर्दशन हुए हैं औऱ शी चिन फिंग के इस्तीफे की मांग ने जोर पकडा है उससे वह तिलमिला गए हैं और जनता का ध्यान कोविड नीति की विफलता पर से मोड़ कर भारत के खिलाफ अपनी राष्ट्रवादी नीति पर केन्द्रित करना चाहते हैं।
भारत के साथ सीमा विवाद को जीवंत बनाए रख कर वह भारत पर सैनिक, आर्थिक व कूटनीतिक दबाव बनाए रखना चाहते हैं। यही वजह है कि सीमा मसले के हल के लिये उनके पूर्व राष्ट्रपतियों ने भारत के साथ जो सहमतियां की थी उसे वह तोड़ते हुए दिख रहे हैं।
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