सऊदी अरब एक के बाद एक सुधार के क़दम उठा रहा है। इसने पहले महिलाओं को कार चलाने, खेल प्रतियोगिताओं, कंसर्ट में जाने की आज़ादी दी, अब यह कोड़े मारने वाली सज़ा को ख़त्म करने जा रहा है। इसकी घोषणा भी कर दी गई है। तो क्या अब मध्यकालीन बर्बर क़ानून-क़ायदों में जकड़ा सऊदी अरब बाहर आज की दुनिया में निकलने के लिए छटपटा रहा है? क्या कोड़े मारने की सज़ा को ख़त्म कर इसने उस दकियानूसी मानसिकता से बाहर आने की प्रक्रिया को और तेज़ कर दिया है?
कोड़े मारने की सज़ा को ख़त्म करना इतना अहम क्यों माना जा रहा है और क्यों यह दुनिया भर में ख़बर बनी? दरअसल, कोड़े मारने की सज़ा को अमानवीय माना जाता है और इसे मानवाधिकार का हनन करने वाला क़रार दिया जाता रहा है। हाल के वर्षों में कोड़े मारने का एक चर्चित मामला 2014 में आया था और इसे मानवाधिकार हनन का मामला बताया गया था। तब सऊदी अरब के ही मानवाधिकार कार्यकर्ता और ब्लॉगर रइफ बदावी को इसलाम का अपमान करने के आरोप में 10 साल जेल और 1000 कोड़े मारे जाने की सज़ा सुनाई गई थी। यह ख़बर दुनिया भर में चर्चा में रही थी। तब इस क़ानून की काफ़ी आलोचना हुई थी और कहा गया था कि ऐसी सज़ा तो तब दी जाती थी जब कभी सामंती-व्यवस्था हुआ करती थी और बर्बर क़ानून हुआ करते थे।
हालाँकि, कोड़े मारने की सज़ा का इतिहास इससे भी काफ़ी पहले का है और तब ऐसा लोकतंत्र भी नहीं था। इसका प्रावधान तब से है जब न तो ऐसे लोकतांत्रिक क़ायदे-क़ानून थे और न ही मानवाधिकार जैसा कुछ विचार था। शासक वर्ग मनमर्जी से सज़ा तय करता था। अपनी प्रकृति में यह सज़ा बर्बर थी।
इसे बर्बर इसलिए कह सकते हैं कि अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह के कोड़े मारने के क़ायदे थे। न तो यह नियम था कि ये कोड़े कैसे होने चाहिए और न ही यह कि किस अपराध के लिए कौन सी सज़ा दी जाए। यानी फ़ैसला सुनाने वाले की मर्जी होती थी कि वह क्या फ़ैसला देता है। कुछ कोड़े के आख़िरी छोर पर लोहे जैसी चीज लगी होती थी जिससे मारने पर शरीर से माँस तक निकल आता था।
प्राचीन समय में धार्मिक रिवाज़ों के कारण कई मामलों में ख़ुद से अपने आप को कोड़े मार कर सज़ा देने के तौर पर भी आजमाया जाता था। ईसा पूर्व में तो यूनान के शहर और राज्य स्पार्टा में कोड़े मारकर यह परीक्षा ली जाती थी कि बच्चा जवान हुआ या नहीं। लेकिन ज़्यादातर इसका इस्तेमाल कड़ी सज़ा देने के तौर पर होता था। प्राचीन समय में यहूदियों में भी कोड़े मारने की सज़ा का ज़िक्र आता है। लेकिन तब नियम यह था कि यह उनको सज़ा दी जाएगी जिनको मौत की सज़ा न हो और किसी भी परिस्थिति में 40 कोड़े से ज़्यादा नहीं मारे जाएँ।
रोमन साम्राज्य में यह सज़ा सख़्त थी। अक्सर लोगों को सूली पर चढ़ाने से पहले कोड़े मारे जाते थे। अधिकतर मामलों में कोड़े के आख़िर में लोहे की कोई नुकीली चीज लगी होती थी जिससे पीड़ित ज़्यादा तड़पे।
कुछ मामलों में तो खंभे से बाँधकर कोड़े मारे जाते थे। कई मामलों में ऐसे लोगों की तो वहीं मौत हो जाती थी और कई मामलों में बाद में गहरे जख़्म के कारण। इसी कारण इसे कई बार 'आधा मौत' की सज़ा के तौर पर भी देखा जाता था।
लेकिन जब मध्यकालीन युग आया तो इंग्लैंड में 1530 में ह्विपिंग एक्ट यानी कोड़े से मारने के लिए क़ानून बनाया गया। इस क़ानून में कहा गया था कि दोषी को आसपास की उस जगह पर ले जाया जाए जहाँ घनी आबादी हो, उसको नंगा किया जाए, गाड़ी के आख़िरी छोर से बाँध दिया जाए और तब तब कोड़े मारे जाएँ जब तक कि ख़ून न बहने लगे। ऐसी सज़ा पाने वाले अधिकतर लोग चोरी के मामले में दोषी होते थे। बाद में 17वीं शताब्दी में कई अदालतों ने कहा कि ऐसी सज़ा सड़क पर देने से बेहतर होगा कि जेल या सुधार गृह में दिया जाए। 1817 में महिलाओं को सार्वजनिक जगहों पर कोड़े मारने की सज़ा को बंद कर दिया गया। इंग्लैंड में आख़िरकार 1948 में कोड़े मारने की सज़ा को ही ख़त्म कर दिया गया। इंग्लैंड के अधीन रहे ऑस्ट्रेलिया में भी कोड़े मारने की सज़ा दी जाती थी। भारत में भी अंग्रेज़ों के अधीन कोड़े मारने की सज़ा दी जाती थी। एक रिपोर्ट के अनुसार, 1877 में 72650 भारतीयों को कोड़े मारने को लेकर इंग्लैंड की संसद के सदन हाउस ऑफ़ कॉमन्स में सवाल पूछा गया था।
कोड़े मारने की सज़ा रूसी साम्राज्य में भी थी। फ़्रांस की क्रांति के दौरान भी लोगों का दमन करने के लिए कोड़े मारने की सज़ा दी जाती थी। 18वीं और 19वीं शताब्दी में यूरोपीय देशों की सेनाओं में नियमों का उल्लंघन करने पर अपने ही जवानों को कोड़े मारने की सज़ा दी जाती थी।
अमेरिका में भी ग़ुलामों को कोड़े मारने की सज़ा दी जाती थी। तब ग़ुलामों के पास कोई अधिकार नहीं थे और उन्हें ख़रीदा-बेचा जाता था। ग़ुलामी के क़ायदों को तोड़ने पर मालिक ग़ुलामों पर कोड़े बरसाते थे।
लेकिन अब आधिकारिक तौर पर पश्चिमी देशों में इस सज़ा को ख़त्म कर दिया गया है। हालाँकि सिंगापुर जैसे कुछ गिने-चुने देशों में अभी भी कोड़े मारने की सज़ा बरकरार है लेकिन इसे तय नियमों के अनुसार और डॉक्टर की निगरानी में दी जाती है।
सऊदी अरब में यह सज़ा देने का प्रावधान शरिया या इसलामिक क़ानून के तहत अब तक बरकरार रहा है। हालाँकि इसके लिए कोई व्यवस्थित रूप से क़ानून नहीं बना कि किस अपराध में किसे कितनी सज़ा दी जानी है। विवाहेत्तर यौन संबंध, शांति भंग करना और हत्या तक के मामलों में अदालतें आसानी से दोषी को कोड़े मारने की सज़ा सुनाती रही हैं। कोई व्यवस्थित क़ानून नहीं होने की वजह से ऐसे मामलों की सुनवाई करने वाला हर जज अपने तरीक़े से धार्मिक शब्दों का अर्थ निकालते रहे हैं और इसी कारण अलग-अलग सज़ा भी दी जाती रही है।
अब इसमें बदलाव आ रहा है। सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस यानी युवराज ने कोड़े से मारने की सज़ा को ख़त्म करने का निर्णय लिया है। देश के सुप्रीम कोर्ट ने एक बयान में कहा है कि भविष्य में न्यायाधीशों को जुर्माना, जेल या फिर सामुदायिक सेवा जैसी सज़ा चुननी होगी।
इसे मानवाधिकार की दिशा में उठाया गया क़दम क़रार दिया जा रहा है।
तो क्या सच में क्राउन प्रिंस यानी युवराज सुधारवादी नेता बन गए हैं? अभी यह कहना जल्दबाज़ी तो नहीं होगी? भले ही उन्होंने महिलाओं को ज़्यादा आज़ादी दी है और कोड़े मारने की सज़ा ख़त्म करने का फ़ैसला लिया है, लेकिन मानवाधिकार समूहों का विरोध अभी भी है। उनका कहना है कि प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान की देखरेख में होने वाले क़ानूनी सुधारों की वजह से देश में सरकार से असहमति रखने वालों के दमन में कोई कमी नहीं आई है। वे यह भी कहते हैं कि मौत की सज़ा का इस्तेमाल शासन के ख़िलाफ़ उठने वाली आवाज़ों को दबाने के लिए होता है।
कहा तो यह जा रहा है कि जब से जून 2017 में किंग सलमान ने अपने बेटे प्रिंस मुहम्मद को युवराज और सिंहासन का उत्तराधिकारी बनाया है तब से सऊदी अरब के मानवाधिकार रिकॉर्ड की आलोचना बढ़ गई है। हालाँकि युवराज ने आर्थिक और सामाजिक सुधार किए हैं, लेकिन अक्टूबर 2018 में इस्तांबुल स्थित सऊदी वाणिज्य दूतावास में पत्रकार जमाल ख़शोगी की हत्या और उसके बाद विरोध करने वालों पर अत्याचारों के कारण राजकुमार की छवि धूमिल हुई है।
सवाल तो इस पर भी उठ रहे हैं कि चोरी करने पर शरीर के अंग काट देने और आतंकवादी अपराधों के लिए सर धड़ से अलग करने, हत्या करने जैसे क़ानूनों को ग़ैर-क़ानूनी घोषित क्यों नहीं किया गया है?
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