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अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण होते ही जिस तरह चीन ने आगे बढ़ कर 'दोस्ती और सहयोग का रिश्ता' रखने की पेशकश कर दी और सरकार बनने के बाद आर्थिक मदद का एलान कर दिया, उससे यह सवाल उठता है कि क्या बीजिंग संकट में फँसे अफ़ग़ानिस्तान की नैया पार लगा देगा?
लेकिन इससे ज़्यादा अहम सवाल यह है कि क्या चीन के बलबूते काबुल की सरकार आर्थिक स्थायित्व हासिल कर लेगी?
इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि चीन अफ़ग़ानिस्तान के लिए अपना खजाना कितना, कब तक और किन शर्तों पर खोलेगा?
क्या अंत में अफ़ग़ानिस्तान चीन का 'सैटेलाइट स्टेट' बन कर रह जाएगा?
इन सवालों के अंतिम उत्तर देना अभी मुश्किल है, लेकिन अनुमान लगाया जा सकता है।
सोमवार को जिनीवा में हुए एक सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति नाजुक है, मानवीय संकट गहरा है और तत्काल 60 करोड़ डॉलर की ज़रूरत है।
संयुक्त राष्ट्र जैसे संस्थान के लिए इतनी रकम जुटाना कोई बड़ी बात नहीं है और अफ़ग़ानिस्तान जिस तरह के मानवीय संकट के मुहाने पर खड़ा है, आगे बढ़ कर दान देने वालों की कमी भी नहीं होनी चाहिए।
पर मुख्य संकट यही है।
ज़्यादातर दानदाताओं ने कन्नी काट ली है और संकेत दिया है कि वे तालिबान नेतृत्व को पैसे देना नहीं चाहते क्योंकि उन्हें आशंका है कि ये पैसे उस मद में खर्च नहीं होगे जिसके लिए दिए जाएंगे। यह मुमकिन है कि ये पैसे आतंकवाद को बढावा देने पर खर्च हों।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंटोनियो गुटेरेस की अफ़ग़ानिस्तान दूत डेबोरा लॉयन्स ने पैसे की तुरन्त व सख़्त ज़रूरत तो बताई, पर यह भी माना कि यह व्यवस्था विकसित करनी होगी जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि ये पैसे उसी पर खर्च हों जिसके लिए गए हैं, प्रशासन के लोग इसका दुरुपयोग न करें।
यह महत्वपूर्ण है कि डेबोरा लॉयन्स अफ़ग़ानिस्तान में कनाडा की पूर्व राजदूत हैं। उन्होंने जो कुछ कहा, वह कई दानदाताओं के मन की बात है।
उन्होंने कहा,
“
अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था को कुछ समय के लिए सहारा देने की ज़रूरत है और इस दौरान तालिबान लोगों को आश्वस्त करे कि वह मानवाधिकार, लैंगिक भेदभाव और आतंकवाद विरोधी उपायों पर विश्व जनमत की उम्मीदों पर ख़रा उतरेगा।
डेबोरा लॉयन्स, संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंटोनियो गुटेरेस की अफ़ग़ानिस्तान दूत
इसके ठीक पहले अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान को मिलने वाले 9.5 अरब डॉलर के भुगतान पर रोक लगा दी था। समझा जाता है कि वाशिंगटन वह पैसे अब नहीं देगा क्योंकि वह तो अशरफ़ ग़नी सरकार के लिए था, तालिबान के लिए नहीं।
अब तक अफ़ग़ानिस्तान का लगभग 75 प्रतिशत खर्च अमेरिका उठाता रहा है। वह पैसा अब बंद हो चुका है।
दूसरी ओर विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी अफ़ग़ानिस्तान को किसी तरह की आर्थिक मदद से साफ इनकार कर दिया है।
ऐसे में सामने आता है चीन। बीजिंग ने सरकार बनते ही 3.10 करोड़ डॉलर की मानवीय मदद का एलान कर दिया है। इसमें खाने पीने की चीजें, दवा, कपड़े और दूसरी मानवीय ज़रूरतों के सामान होंगे। इसके अलावा वह कोरोना वैक्सीन की 30 लाख खुराक़ें भी देगा।
यह तो फौरी मदद है।
अफ़ग़ानिस्तान के साथ त्रासदी यह रही है कि वहाँ विकास के लिए किसी ने खास कुछ नहीं किया है। अमेरिका की मदद अफ़ग़ान सेना के प्रशिक्षण, वेतन, हथियार व दूसरे साजो-सामान वगैरह की आपूर्ति और रख- रखाव के अलावा अफ़ग़ान सरकार को चलाने के लिए दिए जाने वाले पैसे तक सीमित थी। अमेरिका अपने सैनिकों के वहाँ रहने पर जो खर्च करता था, वह भी अफ़ग़ानिस्तान के ही नाम पर था। यह स्वाभाविक भी है।
अमेरिका के किसी राष्ट्रपति ने अफ़ग़ानिस्तान में ढाँचागत सुविधाओं के विकास या, अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए कुछ नहीं किया। अफ़ग़ानिस्तान में एक टिकाऊ अर्थव्यवस्था हो जो अपना खर्च खुद निकाल ले, इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया।
ताज़िक नस्ल के नेता और पूर्व मुजाहिदीन कमान्डर अता मुहम्मद नूर ने अमेरिका से कहा था कि वे अफ़ग़ानिस्तान में कुछ कारखाने वगैरह लगाने में मदद करें।
उन्होंने समाचार एजेंसी एपी को दिए एक इंटरव्यू में अमेरिका की यह कह कर तीखी आलोचना की थी कि उसने अफ़ग़ानिस्तान को कभी आत्मनिर्भर नहीं बनने दिया।
अता मुहम्मद नूर चाहते थे कि हवाई जहाज़ के कल-पुर्जे, छोटे-मोटे हथियार और दूसरे छोटे हथियार अमेरिका से लाने के बजाय अफ़ग़ानिस्तान में ही बने और यह काम अमेरिकी कंपनी ही करे।
नूर ने बाल्ख़ प्रांत का गवर्नर रहते हुए अफ़ीम की खेती बंद करवा दी थी और अमेरिका से कहा था कि वह इसके बदले काबुल को व्यापारिक मदद दे।
लेकिन ऐसा नहीं हो सका। नतीजा यह है कि अफ़ग़ानिस्तान में कोई उद्योग धंधा नहीं है, बड़ी खेती नहीं है, बागवानी है, पर वह बहुत बड़ा व्यापार नहीं है। तालिबान आतंकवादी गुट के रूप में भले ही अफ़ीम की खेती और उसका व्यापार करता था, पर वह सरकार में रह कर ऐसा नहीं कर सकता।
भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में लगभग तीन अरब डॉलर निवेश किए और बड़े पैमाने पर स्थानीय स्तर पर विकास का काम किया। तालिबान के नियंत्रण होते समय लगभग 400 परियोजनाओं पर भारत काम कर रहा था।
तालिबान के क़ब्ज़े के बाद सारा कामकाज ठप पड़ा है, सारे भारतीय लौट चुके हैं, भारत ने दूतावास तक बंद कर दिया है। भारत शायद ही उन परियोजनाओं में अब और पैसे लगाए।
फिर पैसे कहाँ से आएंगे? ऐसे में उसके सामने एक बार फिर चीन तारणहार बन कर आ सकता है।
इसकी सबसे बड़ी वजह अफ़ग़ानिस्तान की भौगोलिक रणनीतिक स्थिति है। उत्तर पश्चिमी चीनी प्रांत शिनजियांग से सटा हुआ अफ़ग़ानिस्तान दूसरे छोर पर त़ाजिकिस्तान, उजब़ेकिस्तान और ईरान को छूता है।चीन ताज़िकिस्तान, उजब़ेकिस्तान, किर्गीस्तान होते हुए तुर्की तक पहुँच सकता है और वहां से उसे बुल्गारिया का बंदरगाह मिल जाएगा। इस रास्ते चीन यूरोप तक पहुँच सकता है।
अपनी अति महात्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) परियोजना के तहत चीन इन सभी देशों में किसी न किसी परियोजना पर काम कर रहा है। अफ़ग़ानिस्तान बचा हुआ था, जहाँ चीन की दाल नहीं गल रही थी।
इसके अलावा एक मोटे अनुमान के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान में लगभग तीन ट्रिलियन डॉलर का खनिज दबा पड़ा है। इसमें सबसे अहम लिथियम है, जिससे इलेक्ट्रिक बैटरी बनती है, वही इलेक्ट्रिक बैटरी जो इलेक्ट्रिक कार में लगती है और चीन इसका सबसे बड़ा केंद्र बनना चाहता है।
लेकिन सवाल यह है कि चीन के लिए अफ़ग़ानिस्तान की कितनी बड़ी भूमिका है। चीन बोर्डर रोड इनीशिएटिव यानी बीआरआई के तहत अफ़ग़ानिस्तान में कितने पैसे लगाएगा।
उससे भी बड़ी बात यह है कि चीन पर पूरी तरह निर्भर होने के बाद अफ़ग़ानिस्तान उसे पैसे कैसे और कहाँ से वापस करेगा। अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था कितना निवेश सोख पाएगी।
सबसे अहम सवाल यह है कि इसके बाद अफ़ग़ान अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर बन पाएगी या चीन पर ही निर्भर रहेगी।
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