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बृजभूषण को नहीं रोक पा रहे तो पीएम महिलाओं को ‘गारंटी’ कैसे देंगे?

1993 के 73वें और 74वें संविधान संशोधनों ने एक तरफ महिला सशक्तिकरण को भारतीय लोकतंत्र की हर दीवार पर गोदने का काम किया ताकि महिलाओं को राजनीति व समाज के केंद्र में लाने के लिए किसी धर्म ग्रंथ, धर्म गुरु व ‘सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं’ की ‘रहमत’ पर न रहना पड़े तो दूसरी तरफ इस संशोधन ने 15 लाख से अधिक महिला राजनेताओं की ऐसी शक्ति को जन्म दे दिया है जिसे पीछे करना या धक्का देना अब लगभग असंभव है। इतनी मजबूत व बढ़ती हुई महिला नेतृत्व शक्ति के बावजूद बलात्कार व सामूहिक बलात्कार एक आम घटना बनती जा रही है।

2013 के ‘निर्भया’ कांड के बाद जिस सामाजिक चेतना का जन्म हुआ था वो ‘कठुआ’ व अलीगढ़ जैसे मामलों में सोती रही। लगता है कि अब बलात्कार कोई मुद्दा नहीं है। जब भारत के गौरव के लिए, भारत के झंडे को लेकर दुनिया भर में चलने वाली महिलाओं के यौन शोषण पर भारतीय समाज नहीं जाग पाया तो उसे ‘मृत’ कहना ही उचित होगा। भारतीय जनता पार्टी, जो इन दिनों भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की देखरेख में कार्य कर रही है, के लोकसभा सांसद बृजभूषण शरण सिंह, खुलेआम महिला पहलवानों के लिए अभद्र भाषा का इस्तेमाल करके व यौन शोषण के बावजूद पार्टी में बने रहने के योग्य है तो भारत की महिलाओं को सुरक्षा कैसे मिलेगी? भारत के प्रधानमंत्री अपनी ही पार्टी के इस सांसद को पार्टी से बाहर का रास्ता नहीं दिखा पा रहे हैं तो महिलाओं के खिलाफ अपराध कैसे रुकेंगे? नरेंद्र मोदी भारत की महिलाओं को ‘गारंटी’ कैसे देंगे?

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हाल में सम्पन्न हुए WFI यानी भारतीय कुश्ती महासंघ के चुनाव में बृजभूषण शरण सिंह का करीबी व्यक्ति WFI के अध्यक्ष पद का चुनाव जीत गया था। कहने के लिए कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार ने इस नवगठित WFI की मान्यता को रद्द कर दिया है। लेकिन यह स्वतः नहीं हुआ! इसके पीछे जो घटना घटी वह बेहद शर्मनाक थी। अपनी दशकों की मेहनत और देश में व्याप्त लिंग असमानता के लंबे इतिहास के बावजूद महिला पहलवानों ने जो राष्ट्रीय सम्मान अर्जित किए थे उन्हें भारत सरकार को वापस लौटा दिया। सिलसिला यहीं नहीं रुका और कुछ पुरुष पहलवानों ने भी अपने पद्म सम्मानों को भारत के प्रधानमंत्री के आवास के पास वापस छोड़ दिया, जब इतना हो गया, भारत के गौरव सड़क पर दिखने लगे, तब जाकर केंद्र में बैठी अपनी सहूलियत से जागने वाली सरकार ने WFI की मान्यता रद्द की। यदि इस बात से खिलाड़ियों को न्याय का एहसास हो गया होता तो, लेख लिखने तक कुश्ती खिलाड़ी विनेश फोगाट ने अर्जुन अवार्ड और खेल रत्न सम्मान प्रधानमंत्री कार्यालय में वापस न किया होता।

हरियाणा की महिला पहलवानों के यौन शोषण का मामला, उनका संघर्ष, प्रतिरोध और राजनैतिक नेतृत्व की इस पर प्रतिक्रिया को किसी आम घटना के रूप में नहीं बल्कि वर्तमान भारतीय राजनैतिक नेतृत्व की अक्षमता और असंवेदनशीलता के अध्याय के रूप में समझा जाना चाहिए। मैं यह नहीं कहती हूँ कि यौन शोषण और बलात्कार, सरकारें व प्रशासन की मदद से होते हैं लेकिन इतना ज़रूर है कि ऐसी घटनाएं घट जाने के लिए ‘सरकार की अक्षमता’ एक बहुत बड़ा कारण है। घटना घट जाने के बाद भी उस पर उचित कार्रवाई न करना ऐसी घटनाओं को बढ़ावा देने का कारण बन जाता है। घटना घट जाने के बाद पीड़ित द्वारा किए जाने वाले प्रदर्शन को नकार देना, पीड़ित को पीटना और बेइज्जत करना सरकार की ‘नई नीति’ का संकेत करने लगता है। महिला पहलवानों- साक्षी मलिक और विनेश फोगाट ने स्वयं भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपील की थी कि बृजभूषण शरण सिंह पर कार्रवाई की जाए लेकिन पीएम मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने बृजभूषण पर कोई कार्रवाई नहीं की। कानूनी कार्रवाई अपने तरीके से चलेगी लेकिन प्रधानमंत्री की नैतिकता का क्या? वो क्यों नहीं जागे?

बृजभूषण के खिलाफ कार्रवाई न करने का ही नतीजा था कि उसका अहंकार  इतना अधिक बढ़ गया कि वो उसे अपना ‘दबदबा’ समझने लगा। देश की सबसे सशक्त महिलाओं के यौन शोषण के बावजूद, प्रधानमंत्री से अपील के बावजूद जो व्यक्ति सत्ताधारी दल का सदस्य बना रहेगा उसमें अहंकार तो आना ही था। यह भारतीय राजनैतिक नेतृत्व की असंवेदनशीलता और अक्षमता का नया अध्याय है। ‘कठुआ’, ‘उन्नाव’, ‘अलीगढ़’ जैसी घटनाओं के पीछे ऐसी ही असंवेदनशीलता और उदासीनता होती है। अब तक ऐसा कोई उदाहरण उपलब्ध नहीं था जिसमें यौन शोषण से पीड़ित महिलायें राष्ट्रीय स्तर पर इतनी अधिक ख्याति प्राप्त हों और स्वयं भारत के प्रधानमंत्री उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानते हों और उन्हें अपने ‘परिवार’ का कहते हों, इसके बावजूद उनके यौन शोषण पर सरकार की कान में जूं न रेंगे। यह इस अर्थ में बिल्कुल नया, विस्मयकारी और गहरी उदासीनता का प्रतीक है। 
भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप को मैं ‘पुरुषतन्त्र’ कहना ज्यादा पसंद करूंगी। पुरुषों से खचाखच भरी संसद में ‘बलात्कार’ कोई मुद्दा नहीं है।
महुआ मोइत्रा को एथिक्स कमेटी संसद से बाहर निकाल देती है लेकिन कॉंग्रेस नेता अल्का लांबा के खिलाफ अभद्र टिप्पणी करने वाले भाजपा सांसद के खिलाफ कार्यवाही की ‘महक’ तक नहीं सूंघने को मिलती। भरी संसद में प्रधानमंत्री एक साथी महिला सांसद को ‘रामायण काल की राक्षसी हंसी’ से जोड़कर देख लेते हैं। न्यायपालिका, जिसे महिलाओं के प्रति ‘अति’ संवेदनशील होना चाहिए था अक्सर ऐसी टिप्पणियाँ कर जाती है जो पुरुषों के समाज में आनंद का कारण बन जाती है। प्रधानमंत्री से लेकर संसद और न्यायपालिका तक भारत के पुरुषों को यह संदेश देने में नाकाम रहे हैं कि महिलाओं के खिलाफ अपराधों को न सिर्फ प्राथमिकता से सुना जाएगा बल्कि ऐसे व्यक्तियों की राजनीति में उपस्थिति को मुख्यधारा से विलुप्त कर दिया जाएगा। 
विमर्श से और

‘लाड़ली बहना’ और ‘महतारी’ सम्मान अगर सिर्फ़ पैसे देने और पेट भरने से संबंधित हैं तो इनकी आवश्यकता को ख़त्म कर दिया जाना चाहिए। अब ऐसी योजना की ज़रूरत है जो महिलाओं की सुरक्षा को सुनिश्चित कर सके, महिला अपराध करने वाले चाहे कितने बड़े नेता या उद्योगपति ही क्यों न हों उन पर कार्यवाही सुनिश्चित हो सके, यदि देश का प्रधानमंत्री और प्रदेश का मुख्यमंत्री महिलाओं की सुरक्षा में नाकाम रहता है तो उसे किसी भी हालत में अपना नेता मानने से अब महिलाओं को इंकार ही कर देना चाहिए। भारत की कोई इमारत, कोई संस्था और कोई भी परंपरा बेजान ही है जब तक उसमें इतनी भी रीढ़ न हो जो महिलाओं के खिलाफ अपराध करने वालों के सामने डट कर खड़ी हो सके। कम से कम महिलायें अपना नेता उस व्यक्ति को चुनें जो ‘धर्म’ और ‘राष्ट्र’ के पीछे अपनी अक्षमता को न छिपाता हो, जो देश की महिलाओं द्वारा एक बार भी बुलाए जाने पर प्रतिक्रिया देने जरूर आता हो, जो अनाज बांटने से पहले महिलाओं को न्याय वितरित करने के लिए आतुर हो और जो महिलाओं के बलात्कार और यौन शोषण को अपने बलात्कार और यौन शोषण से जोड़कर देखता हो। 

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की 2023 की रिपोर्ट यह बताती है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध पिछले साल की अपेक्षा 4% बढ़ गए हैं। महिलाओं के खिलाफ सबसे अधिक अपराध भाजपा शासित उत्तर प्रदेश में दर्ज किए गए हैं। दिल्ली का पुलिस प्रशासन गृहमंत्री अमित शाह के अंतर्गत कार्य करता है और यह शहर महिलाओं के लिए देश का ‘सबसे असुरक्षित शहर’ है। ऐसा नहीं है कि दिल्ली पहली बार महिला अपराधों पर शीर्ष पर आया है। दिल्ली लगातार तीन सालों से महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में शीर्ष पर है। गृहमंत्री क्या कर रहे थे? उन्होंने कोई सार्थक और निर्णायक कदम क्यों नहीं उठाया? क्या महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध चुनाव का मुद्दा नहीं होना चाहिए? क्या गृहमंत्री की दिल्ली को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने की अक्षमता मुद्दा नहीं होना चाहिए? 

महिला एंकरों से पटे पड़े भारत के तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया में से महिला अपराधों पर गायब चर्चा क्या चुनाव का मुद्दा नहीं होना चाहिए?

लगता है कि आज के भारत में महिला अपराध मुद्दा ही नहीं है। मधुमक्खी के छत्ते की तरह समाज में बिलबिला रहे यौन अपराधियों और बलात्कारियों की रीढ़ तोड़ने की कोई योजना नहीं है। इसीलिए दिन हो या रात, घर के अंदर हो या बाहर, महिलायें कहीं और किसी भी हाल में सुरक्षित नहीं हैं। ‘मिशन शक्ति’ का क्या करेंगे अगर 14 साल की एक बच्ची को कुछ धनपति गुंडे अलीगढ़ में दिन दहाड़े उठा ले जाते हैं और गैंगरेप करते हैं? भारत रत्न मदन मोहन मालवीय द्वारा बड़े शौक से बनवाई गई इमारत BHU के कैंपस में तमाम सुरक्षा के बावजूद कुछ गुंडे छात्रा का यौन शोषण करते हैं और सामूहिक बलात्कार करते हैं। इस मामले में जहां डीन, और कुलपति पर कार्यवाही होनी चाहिए थी वहाँ यह खबर ही मीडिया से गायब हो गई, छात्र-छात्राओं का धरना प्रदर्शन बंद करवा दिया गया, आश्वासन दिया गया या धमकी मुझे नहीं पता लेकिन इस मामले में अब तक किसी भी अपराधी को नहीं पकड़ा जा सका है। 

बलात्कार सिर्फ कोई अपराध नहीं है बल्कि यह एक त्रासदी है जिससे एक महिला को गुजरना पड़ता है। इस त्रासदी के अनगिनत उदाहरण हर रोज सामने आ रहे हैं- अजमेर, राजस्थान में एक 15 वर्षीय बच्ची को ज़हर खाना पड़ जाता है क्योंकि उसका बलात्कार करने वाले गुंडे उसे धमका रहे थे (27 दिसंबर)। यूपी की राजधानी लखनऊ से कुछ दूर बाराबंकी में 4 अपराधी एक दलित महिला को जबरन कार में बिठा लेते हैं, उसके मुँह में कपड़ा ठूंस देते हैं, हाथ-पैर बांधकर उसके साथ सामूहिक बलात्कार करते हैं (26 दिसंबर)। दिल्ली में एक 52 वर्षीय मकान मालिक बाहर खेल रही 9 वर्षीय बच्ची को कार में घुमाने के बहाने ले जाता है, उसके साथ बलात्कार करता है और बाद में उसकी हत्या करके नहर में फेंक देता है (12 दिसंबर)। मतलब अपराधियों में पुलिस का डर ‘शून्य’ है। पुलिस का भी क्या कहें, राजस्थान के अलवर में एक ऐसा मामला सामने आया है जिसमें 3 कांस्टेबल एक 18 वर्षीय लड़की का एक साल से बलात्कार कर रहे थे। हरियाणा के एक हेड पुलिस कांस्टेबल ने उसके घर में काम करने वाली 14 वर्षीय बच्ची के साथ बलात्कार किया। मतलब पुलिस का भी डर ‘शून्य’ है। 

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पुलिस को यह भय नहीं कि जब यह बात जनता और उसके प्रतिनिधि तक पहुंचेगी तब क्या होगा, शायद उन्हें उनके अपराधों के कभी भी नहीं खुलने का भ्रम हो गया है। अब जन प्रतिनिधि का भी क्या कहें? BJP विधायक रामदुलार गोंड को बलात्कार के एक मामले में 25 साल की सजा हो गई है। जहां देखिए सिर्फ बलात्कार ही दिखेंगे, जिंदल स्टील के MD सज्जन जिंदल पर एक अभिनेत्री ने बलात्कार का आरोप लगाया है। साल भर की मशक्कत के बाद इस धनपति के खिलाफ FIR दर्ज हो सकी है। महिलाओं के लिए योजनाओं का गट्ठर लादने वाले नेताओं और नीति निर्माताओं के लिए शायद बलात्कार कोई मुद्दा ही नहीं है। धनपतियों को लगता है कि उसका ‘व्हाइट कॉलर’ उसे बचा लेगा, पुलिस को लगता है कि उसकी वर्दी और नेताओं को बचाने के लिए तो पूरी की पूरी सरकार ही दांव पर लगा दी जाती है, पार्टी का आईटी सेल, पार्टी के अघोषित समर्थक, ‘विचारधारा के प्रहरी’ और चापलूसों की पूरी पूरी की बारात उन्हें बचाने आ जाती है, यही काम बृजभूषण शरण सिंह के मामले में हुआ। सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं करके उसे बचाया और उसने किराये के धर्मगुरुओं के माध्यम से खुद को पाक-साफ करने की कोशिश की। पर किसी को उन महिला पहलवानों की चिंता नहीं थी, न ही यह चिंता थी कि जब इतनी शक्तिशाली लड़कियों का यौन शोषण हो सकता है तब देश की कोई बेटी सुरक्षित नहीं है। ज़रूरत पड़ने पर किसी की कोई ‘गारंटी’ काम नहीं आएगी।     

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अहम यह है कि पुरुषों में महिला अपराधों को लेकर कानून का डर ‘शून्य’ है, बलात्कार को लेकर मीडिया में चर्चा ‘शून्य’ है, संसद भी इस मुद्दे पर ‘शून्य’ है और न्यायपालिका के लिए यह भी महज एक अपराध भर है। 56 इंच धारण करने वाले ‘गारंटियाँ’ बाँट रहे हैं लेकिन उनके द्वारा बलात्कार शब्द अपने भाषण में भी नहीं लाया जाता, इसे विमर्श का मुद्दा बनाना तो बहुत दूर की बात है। आंबेडकर, गाँधी और नेहरू के भारत में जो संविधान बना, उसमें एक बहुत अनोखी बात यह है कि महिलायें यहाँ वोट डाल सकती हैं और सरकार चुन सकती हैं। यदि यह 50% आबादी यह तय कर ले कि भारत का नेता वो होगा जो महिला अपराधों  के प्रति संवेदनशील होगा तो ‘साहब’ से लेकर प्यादा तक सभी महिला सम्मान की यात्रा, रैली और लड़ाई में जुट जाएंगे। 
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वंदिता मिश्रा
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