भगवान विट्ठल (कृष्ण) और रुक्मिणी के पवित्र तीर्थस्थल पंढरपुर (जिसे दक्षिण काशी भी कहते हैं) में 1915 में जन्म लेकर ईसाइयों के मुल्क इंग्लैंड के शहर लंदन में अंतिम सांस लेने वाले हुसैन साहब 95 साल की उम्र तक हमारे बीच उपस्थित रहे। उनकी इतनी लंबी और शानदार ज़िंदगी में कई पड़ाव आए। जिस एक पड़ाव को हम सबसे ज़्यादा खूबसूरत मान सकते हैं वह उस वक्त आया जब वे अस्सी साल के होने जा रहे थे। यह पड़ाव अभिनेत्री माधुरी दीक्षित का उनकी पेंटिंग्स के रंगों में प्रवेश करने का था।
‘हम आपके हैं कौन’ फ़िल्म 1994 में रिलीज़ हुई थी। उसके पहले माधुरी की कई बड़ी और सफल फ़िल्में आ चुकी थीं पर इस एक फ़िल्म ने जैसे हुसैन साहब पर कोई जादू-टोना कर दिया था। उन्होंने न जाने कितनी बार यह फ़िल्म देखी होगी! बातचीत में कहा भी : ‘’हम आपके हैं कौन’ कोई क्लासिक फ़िल्म नहीं थी मगर पॉपुलर फ़िल्म की सुपर स्टार वाली बात माधुरी में थी।’’
मुंबई यात्रा के दौरान जब हुसैन साहब से मुलाक़ात हुई वे एक स्टूडियो में ‘गजगामिनी’ की एडिटिंग के काम में लगे हुए थे। बातचीत के दौरान हुसैन साहब ने फ़िल्म की एक-एक फ़्रेम का बखान ऐसे किया जैसे वे ‘गजगामिनी’ में माधुरी के ह्यूमन फॉर्म की रंगों और रेखाओं में व्यक्त की गई बारीकियों को समझा रहे हों। वे माधुरी में स्त्री के कई रूपों का दर्शन करने लगे थे। बातचीत की दूसरी किश्त में मैंने लिखा था कि माधुरी से मिलने के बाद जो आत्मकथा वे लिख रहे थे वह पाँच-छह साल पीछे चली गई।अस्सी साल की उम्र में भी ज़िंदगी को जुनून के साथ जीने की कितनी उत्कंठा उनमें थी समझा जा सकता है।
पढ़िए हुसैन साहब के साथ कोई पच्चीस साल पहले हुई लंबी बातचीत की तीसरी और आख़िरी किश्त :
‘’मैंने माधुरी को लेकर जब ‘गजगामिनी’ बनाने का फ़ैसला किया तो लोगों ने मुझसे कहा ‘टिंसेल टाउन’ क्यों जा रहे हैं? मगर यह मेरा एक मिशन था। मैंने माधुरी को फ़िल्म में काम करने के लिये तैयार किया। किसी अच्छी चीज से अट्रैक्ट होना बुरी बात नहीं है। माधुरी कमाल की हसीन हैं। अगर आप यह बात मुँह से नहीं कहते तो आप अपने आपको और दूसरों को धोखा देते हैं।
‘गजगामिनी’ माधुरी की वजह से ही पूरी हो सकी। माधुरी पर बेहद दबाव था कि वह फ़िल्म छोड़ दे। मैंने कहा भी कि मैं फ़िल्म छोड़ देता हूँ या रिमोट तरीक़े से डायरेक्ट करता हूँ। आप कहीं भी मेरा नाम मत दीजिए। मगर माधुरी ने हिम्मत दिखाई। फ़िल्म पूरी हुई।
मैं 1936 में बंबई गया था। वालिद का काम छूट गया था, बड़ी मुश्किल थी। मैं फ़िल्म बनाना चाहता था। हाशिये पर पेंटिंग चलती रही। फ़िल्मों के पोस्टर बनाने से लेकर ‘गजगामिनी’ बनाने तक फ़िल्मों का ऑब्सेशन मुझ पर लगातार हावी रहा। तीन शहर मुझे हमेशा से अट्रैक्ट करते रहे हैं : प्राग (चेकोस्लोवाकिया), जैसलमेर और हैदराबाद। ‘दो कदम और सही’ इन्हीं तीन शहरों और तीन अलग-अलग औरतों के बारे में फ़िल्म है। फ़िल्म के टाइटिल सांग के मुखड़े से आप फ़िल्म के बारे में अंदाज़ा लगा सकते हैं :
ज़िंदगी हाथ मिला साथ तो चल
उम्र भर साथ रही, दो कदम और सही !
क्रिएटर ने एक बहुत हसीन चीज बनाई है औरत! स्कल्पचर और पेंटिंग में हज़ारों साल से औरत का ज़िक्र आता रहा है। दरअसल,जब मैं डेढ़ साल का था मेरी मां चल बसी थी। मां की कमी के कई रूप हैं। मेरे लिए यह एक गहरा इमोशनल ज़ख़्म रहा। साठ-सत्तर साल बाद जब मैं पंढरपुर गया तो मुझे लगा कि मैं जन्मभूमि में नहीं बल्कि मातृभूमि में आया हूँ। मंदिर के अंदर ही मेरा स्वागत किया गया था। मुझे महसूस हुआ मानों मेरे दादाजी ने मेरे वेलकम के लिए बल्ब लगा रखे हैं। दीवारों में मेरी मां छुपी हुई है ! माँ अभी भी 28 साल की ही है मगर बेटा 80 का हो चुका है ! 28 साल की मां 80 साल के बेटे के सामने अधूरी है। मां-अधूरी !
माधुरी के लिए मैंने एक कविता लिखी थी। उसे मैंने ‘मां-अधूरी’ कहा था!
मुझे पता नहीं मैंने कोई एचीवमेंट किया है! गीता में जैसा कहा गया है, कर्म पर मेरा विश्वास है! चाइनीज़ मास्टर्स 70-80 साल के बाद भी सीखते रहते हैं! दस साल तक तो एक लाइन खींचने की प्रैक्टिस ही वे करते रहते हैं! क्रिएशन की मिस्ट्री आज तक कोई भी नहीं समझ पाया हैं! मुझे मीर तक़ी मीर का एक शेर याद आता है :
यही जाना कि कुछ न जाना हाए
सो भी इक उम्र में हुआ मालूम!
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