मेरठ के मलियाना में 1987 के दंगों के दौरान हुए नरसंहार के 40 आरोपी दोषमुक्त करार दिए गए, जबकि 23 आरोपी इस दुनिया से विदा हो चुके हैं और 30 आरोपी लापता हैं, जिनके खिलाफ मुकदमा चलता रहेगा। अदालत के समक्ष अभियोजन पक्ष पर्याप्त साक्ष्य प्रस्तुत करने में असफल रहा, जिसकी वजह से आरोपियों को संदेह का लाभ मिला। अदालत को फैसला सुनाने में 36 साल लग गए यानी जो लोग जवानी में आरोपी बने थे, वे बुढ़ापे में दोषमुक्त हुए और जिन बच्चों के मां-बाप मारे गए थे, वे युवावस्था को लांघ चुके हैं।
इससे ज्यादा शर्मनाक बात नहीं हो सकती कि आरोपियों को दर्ज हुई एफआईआर की सत्य प्रतिलिपि तक कई बार आवेदन करने के बाद भी थाने से प्राप्त नहीं हो सकी। न्यायिक व्यवस्था पर कोई टिप्पणी करना अनुचित होगा लेकिन हैरानी की बात है कि इस कांड के प्रत्यक्षदर्शी मोहम्मद याकूब की फाइल कोर्ट से गायब हो गई थी। एडवोकेट अलाउद्दीन के मुताबिक़ मोहम्मद याकूब की फाइल को कोर्ट 10 साल तक तलाश नहीं करवा पाया। बीते 36 सालों में करीब 800 तारीखें पड़ीं लेकिन 35 गवाहों में से सिर्फ तीन गवाहों से ही अभियोजन पक्ष जिरह कर पाया।
23 मई 1987 को मलियाना में हुए नरसंहार में (जिसे आधिकारिक रूप से दंगा कहा गया) 106 घरों में आग लगा दी गई थी। इस दंगे में 73 लोग मारे गए लेकिन शव बरामदगी या शिनाख्त मात्र 36 लोगों की हुई थी। बाकी लोगों को बीस बीस हजार मुआवजा दे दिया गया था। मलियाना के होली चौक पर एक परिवार के लोगों के 11 शव उस घर के सामने बने एक कुंए से बरामद किए गए थे। पुलिस रिपोर्ट्स के मुताबिक उन्मादी भीड़ मलियाना की मुस्लिम बस्ती में घुसी थी और लोगों को घरों से निकालकर मारा और आगजनी की वारदातें कीं जबकि वहां पुलिस और पीएसी के सशस्त्र जवान भारी संख्या में तैनात थे।
मलियाना से पहले क्या हुआ था?
मेरठ में उत्तर भारत का प्रसिद्ध मेला नौचंदी अपने शबाब पर था। रमजान का पवित्र महीना चल रहा था। इसी दौरान 18-19 मई की रात को मेरठ के हापुड़ रोड पर दो व्यक्तियों या पक्षों में तकरार हुई जो खून खराबे तक जा पहुंची। अफवाहों का बाजार गर्म हुआ और दंगा भड़क उठा। शाहपीर गेट से हापुड़ रोड तक कई जगह आगजनी, चाकूबाजी और गोलीबारी हुई। देखते ही देखते शहर में भयानक दंगा भड़क गया। मारकाट शुरू हुई तो पूरे शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया। हालात बेकाबू होने पर शहर भर में सन्नाटा पसरा था लेकिन बागपत रोड पर साबुन गोदाम के आगे कर्फ्यू नहीं लगाया गया था। यहीं स्थित मलियाना भी कर्फ्यू से मुक्त था। पर 23 मई 1987 को मलियाना में कर्फ्यू लगने से पहले जो हुआ वह इंसानियत को शर्मसार करने वाला नहीं बल्कि हैवानियत के दायरे में आता है।
क्या हुआ मलियाना में?
गोलियों की तड़तड़ाहट दूर सड़क तक सुनाई देने लगी और धुंआ उठने लगा जिसे दूर से भी देखा जा सकता था। इसी बीच अमर उजाला के एक रिपोर्टर और फोटोग्राफर वहां पहुंचे तो गोलियों की गुर्राहट के आगे बस्ती में नहीं घुस सके। बाहर मुख्य सड़क यानी बागपत रोड पर मलियाना के एंट्री प्वाइंट के पास किसी जगह आड़ लेकर खड़े हो गए तभी उधर से पीएसी के जवान अपने वाहन से निकले तो कैमरा देखकर रुक गए। उनके वाहन में कुछ लोग ठुसे हुए थे। कैमरे से फोटो खींचते देख उन्होंने अभद्रता की और कैमरा छीन लिया। बाद में कैमरे से रील निकालकर उन्हें वापस करते हुए लौट जाने को कहा। प्रेस पर वापस आकर उन्होंने घटना की जानकारी दी।
मैंने क्या देखा और पीड़ितों ने क्या बताया?
शाम के समय मैं अपनी दिनचर्या के मुताबिक करीब पांच बजे मेडिकल कॉलेज पहुंचा। इमरजेंसी में पहुंचने पर वहां के स्टाफ से पता चला कि बुलेट इंज्यूरी के पेशेंट एडमिट हैं। डॉक्टर उपचार में लगे थे। अफरातफरी मची हुई थी। पर गोली लगने से गंभीर घायल भर्ती लोगों के साथ कोई तीमारदार नहीं था। उन्हें पुलिस भर्ती करा कर गई थी। पुलिस का एक सिपाही मौजूद था जिसने बताया कि थाना टीपी नगर से लाए गए हैं। जब पुलिसकर्मी से पत्रकारिता वाली चतुराई दिखाते हुए पूछा कि इसमें जो मरे उनकी बॉडीज कहां हैं तो उसने कहा कि अभी आ रही हैं और घायल भी आने वाले हैं। उसने बताया कि बॉडीज मोर्चरी में पहुंचा कर घायलों को यहां ले आए हैं। इसी बीच वहां दिनमान टाइम्स के रिपोर्टर जसवीर सिंह जस्सी भी आ गए। हम लोग मोर्चरी पहुंचे जहां कुछ शव रखे थे।
वहीं पता चला कि मलियाना में दंगा भड़का हुआ है और मृतक वहीं से संबंधित हैं। इसके बाद मैंने अपने ड्राइवर को मलियाना चलने को कहा। जस्सी भी मेरे साथ ही कार में बैठ गए और हम मलियाना पहुंच गए।
मलियाना की आँखो देखी
बागपत रोड पर हमने मलियाना बस्ती के बाहर कार मुख्य सड़क पर छोड़ दी और पैदल बस्ती की तरफ़ बढ़ने लगे। वहीं पर पुलिस ने हमें रोक लिया। वहाँ एक डिप्टी एसपी मौजूद था जो मुझे अच्छे से जानता था। मैंने उसे देख उसकी तरफ़ रुख किया और कहा कि मीडिया को रोकने के क्या कोई आदेश दिए गए हैं तो वह बोला कि आपकी सुरक्षा की वजह से आपको रोका जा रहा है। हमने कहा कि आप उसकी परवाह मत करो क्योंकि मुझे पंजाब के आतंकवाद से लेकर देश में हुई कई हिंसक घटनाओं और चंबल जैसी जगहों पर घुसकर रिपोर्टिंग करने का शौक भी है और तुजुर्बा भी। इसके बाद हमने आखिर में कहा कि हमें रोकना या प्रतिबंधित करना है तो हमें गिरफ्तार करना होगा। वह समय पत्रकारिता के लिए आज जैसा नहीं था कि किसी भी पत्रकार को विपरीत दिशा में चलने पर हवालात में भेज दिया जाए। आखिरकार जद्दोजहद के बाद हम बस्ती के भीतर थे।
सन्नाटा पसरा हुआ था। चारों तरफ अंधेरा था। रात हो चुकी थी। कहीं कोई प्रकाश व्यवस्था नहीं थी। पुलिस और पीएसी के लोगों ने आगे भी रोका लेकिन हम यह कहते हुए आगे बढ़ते गए कि साहब से बात हो गई है… मीडिया से हैं।
बस्ती में एक जोहड़ था जिसके किनारे लोग बैठे सुबक रहे थे। उनके चेहरों पर खौफ साफ़ नज़र आ रहा था। वहीं शव पड़े थे। हमने 18 शव देखे। मरघट में तब्दील हो चुकी थी बस्ती। हम वहां लोगों के पास जाकर बैठ गए। सहमे हुए लोगों को देखकर हमें उस अफसर की चेतावनी याद आई। उसने हमें यह कहकर रोका था कि उपद्रवी भीड़ हमलावर है और अंदर जाने पर तुम्हारे साथ कुछ भी हो सकता है। ज़िंदा आना भी बहुत मुश्किल है।
लोगों ने हमें बताया कि हर तरफ़ से गोलियाँ चलाई जा रही थीं। हिंदू आबादी की तरफ़ से भी पथराव और फायरिंग थी। हर तरफ़ से हमलावर अंधाधुंध फायरिंग पथराव कर रहे थे। फिर भीड़ आई और पीएसी के जवान भी, फिर हमारे घरों में आगजनी शुरू हो गई। एक युवक ने कहा कि पहले वर्दी वालों ने शराब के ठेके पर शराब लूटी और फिर उसे पीकर यहां कोहराम मचा दिया। इसके बाद हम वहां से प्रेस (ऑफिस) के लिए निकल लिए।
फिर क्या हुआ?
इसके बाद मलियाना में भी कर्फ्यू लगा दिया गया। मामले की गूंज दिल्ली तक पहुंची। नेताओ के दौरे हुए। जांच आयोग बैठे। पर इससे पहले ही पुलिस ने मुस्लिम पक्ष यानी पीड़ितों की तरफ से एफआईआर दर्ज की जिसमें सारे आरोपी हिंदू पक्ष के थे। पुलिस और पीएसी को सीन से बाहर कर दिया गया जबकि कोर्ट में आरोपियों की तरफ से आरोप लगाए गए कि पुलिस और पीएसी ने तांडव किया। साक्ष्य किसी के खिलाफ नहीं थे। इस तरह अदालत ने कथित दोषियों को दोषमुक्त करार दिया।
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