तमिलनाडु (पिता-पुत्र की पुलिस हिरासत में मौत) और कानपुर (विकास दुबे पुलिस नरसंहार) में हुई घटनाओं के बाद पुलिस के रवैये और सुधार पर नये सिरे से बहस शुरू हुई है। उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह लंबे समय से पुलिस रिफ़ॉर्म की वकालत करते रहे हैं। इस मामले में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में भी याचिका दायर की। अदालत ने 2006 में फ़ैसला भी सुना दिया पर पिछले 14 सालों में सरकारों का नज़रिया टालमटोल वाला ही रहा। लिहाज़ा भारतीय पुलिस आज भी अंग्रेजों के ज़माने के संस्कारों में रची-बसी है जिसका एकमात्र काम है जनता का दमन। मौजूदा हाल पर प्रकाश सिंह से बात की वरिष्ठ पत्रकार संजय कुंदन ने।
प्रश्नः विकास दुबे प्रकरण और तमिलनाडु के मामले को लेकर पुलिस एक बार फिर कठघरे में है। क्या आपको लगता है कि पुलिस सुधार के लिए की गई आपकी पहलकदमी का कोई असर नहीं हुआ?
उत्तर: ऐसा नहीं है। हर राज्य में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुपालन का स्वांग तो रचा गया है और कोशिश की गई कि कम से कम कागज पर दिखा सकें कि हम अनुपालन कर रहे हैं। वे असल में कुछ करना नहीं चाहते हैं। लेकिन कई जगहों पर इसे गंभीरता से लिया भी गया है। अब जैसे तेलंगाना और केरल है, वहां फर्क आया है। कुछ राज्यों की ब्यूरोक्रेसी भ्रष्ट है, जैसे महाराष्ट्र है, यूपी है, इनको सुधार से कोई मतलब नहीं है।
प्रश्नः तो क्या माना जाए कि पुलिस का यह संकट दरअसल हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की बुनियादी समस्या से जुड़ा है?
उत्तर: लोकतंत्र की जो प्रक्रिया है, वह कुछ संस्थाओं के जरिए संचालित होती है। जैसे लोकसभा है, असेंबली है। अब उन्हीं में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग हैं जिनकी अपराधियों से साठगांठ है, जो अपराधियों को संरक्षण देते हैं, सारी व्यवस्था का दृश्य यही है। लेकिन इसी में कुछ अच्छे मुख्यमंत्री भी हैं। लेकिन बहुत ऐसे हैं जो यह देखते हैं कि कौन उनके कहने पर दिन को रात कहेगा।
जिसको वह कहेंगे कि अमुक व्यक्ति बदमाश है उसे पकड़ लो तो पकड़ लेगा। ऐसे लोगों को ही वे डीजीपी बनाते हैं। लेकिन अब इस पर अंकुश लग गया है। अब यूपीएसएसी का पैनल बन गया है। अब तीन में से एक को चुनना होता है। अब ऐसा नहीं है कि मनमाने ढंग से किसी को भी ले सकते हैं। 18-20 में से 18 भी लेंगे तो काम अच्छा ही होगा।
प्रश्नः ठीक है कि थोड़ा-बहुत अंकुश लगा है लेकिन ओवरऑल कोई बड़ा परिवर्तन तो आया नहीं है। पुलिस की चाल और चरित्र में कोई बड़ा सुधार नहीं आया है। अब तमिलनाडु के मामले को ही लीजिए…
उत्तर: यह बात तो सही है कि ओवरऑल कोई बड़ा सुधार नहीं आया है। दरअसल, कई स्तरों पर रिफॉर्म जरूरी हैं। पुलिस रिफॉर्म जरूरी है, जुडिशियल रिफॉर्म जरूरी है, प्रिजन रिफॉर्म जरूरी है। पूरे क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में रिफॉर्म जरूरी है।...जहां तक तमिलनाडु की बात है तो वहां इस तरह की शिकायतें शुरू से आती रही हैं। तमिलनाडु और महाराष्ट्र में “कस्टोडियल डेथ” की घटनाएं बहुत होती रही हैं।
प्रश्नः मगर सुधार हो तो कैसे? जिन्हें करना है, वे तो करना नहीं चाहते।
उत्तर: जिनके हाथ में हैं वे करते हैं। कुछ दिखाने के लिए करते हैं, कुछ दबाव में करते हैं।
प्रश्नः यह भी कहा जाता है कि पुलिस के पास संसाधनों की कमी है। उस पर जितना खर्च किया जाना चाहिए उतना नहीं किया जा रहा।
उत्तर: हां, संसाधनों की कमी है। जनशक्ति की कमी है, स्वायत्तता की कमी है। सब चीजों की कमी है।
प्रश्नः आखिर भारतीय पुलिस को प्रोफेशनल कैसे बनाया जाएगा?
उत्तर: इसके लिए राज्य सरकार को प्रतिबद्धता दिखानी होगी। उसके बगैर यह संभव नहीं है। अब जैसे यूपी में अभी मुख्यमंत्री अच्छा काम कर रहे हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि समाजवादी पार्टी की सरकार और मायावती के समय में विभाग को एकदम खोखला कर दिया गया। किसी चीज को बर्बाद करना आसान है, पर बनाना कठिन। नष्ट करने में तो एक दिन लगता है लेकेिन निर्माण में दस साल तक लग जाते हैं।
प्रश्नः पुलिस पर सांप्रदायिक होने का भी आरोप लगता रहा है। अल्पसंख्यकों के प्रति उसके रवैये पर सवाल उठे हैं।
उत्तर: पुलिस का चरित्र न सांप्रदायिक है, न कुछ और। यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसका नेतृत्व कैसा है और उस समय की पॉलिटिकल लीडरशिप उससे क्या करवाना चाहती है। राजनीतिक नेतृत्व अगर सांप्रदायिक काम करवाना चाहता है, सांप्रदायिक आदेश देता है तो वह नीचे तक चला जाता है। ऊपर से जो हुक्म आता है पुलिस उसका पालन करती है।
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अगर पुलिस का नेतृत्व सशक्त है तो वह गलत हुक्म को मानने से इनकार कर सकता है। लेकिन आम तौर पर ऐसा होता है कि पॉलिटकल एस्टैब्लिशमेंट जब सांप्रदायिक काम करवाना चाहता है, तब पुलिस ऐसा करती है। पुलिस का नेतृत्व निष्पक्ष हो तो यह आसान नहीं होगा।
प्रकाश सिंह, पूर्व पुलिस महानिदेशक, उत्तर प्रदेश
प्रश्नः तो क्या आपको रिफ़ॉर्म लागू होने की उम्मीद है? क्या इससे हालात वाकई बदलेंगे?
उत्तर: मैं उम्मीद कभी नहीं छोड़ता। उम्मीद के भरोसे प्रयास करता जा रहा हूं। कभी न कभी तो हालात सुधरेंगे। रिफॉर्म हमारे जीवनकाल में हो न हो पर देश में रिफॉर्म तो होना ही है।
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