लाशों के ढेर। चिताओं की कतार। हर तरफ़ राख। फ़िज़ा में धुएँ का गुबार। और इन सबके दरमियान कराहता लखनऊ।
मैं जब घर लौटी तो घर में सब लाठी लेकर बैठे थे, एक साथ टूट पड़े कि क्यों गयी थी भैंसा कुंड, क्या ज़रूरत थी उन चिताओं के दरमियान जाने की, जाकर नहाओ कपड़े बदलो।
लेकिन हकीकत यही है कि मैं इस गुलशन को तहस-नहस होते हुए देखना चाहती थी, एक शहर जो गोमती नदी के ऊपर इठलाता था, अपनी नाज़ों अदा के जलवे बिखेरता था, आज गोमती में अस्थियों का विसर्जन देखने को मजबूर है।
मैं देख रही थी उन लोगों को जो 16 घंटे से अपनों को जलाने की बारी का इंतज़ार कर रहे थे। उनमें कुछ ऐसे थे जिनकी आँखों का आँसू दौड़ते-भागते जुगाड़ करते सूख चुका था। कोई पंडित जी से मान मनौव्वल कर रहा था, कोई लकड़ी के रेट कम करवा रहा था, कोई चबूतरे के इंतज़ाम के लिए दौड़ रहा था और कोई जलवाने के इंतज़ार में सिसक रहा था।
मैं सबको देख रही थी, अपनी आँखों की कोर से निकलते आँसू को पोछते हुए हिम्मत नहीं कर पा रही थी कि किसी से बात कर सकूँ। बस लाश देख रही थी। क़रीब 20 अर्थियाँ गेंदे के फूल में लिपटी अपने भस्म होने का इंतज़ार 20 घंटे से कर रही थी। चबूतरा भर चुका था। लिहाज़ा लोगों के खड़े होने की जगह पर भी चिताओं को जलाया जाने लगा...।
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