इस ऑस्ट्रेलिया दौरे पर टीम इंडिया को किस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता इसका अंदाज़ा पूर्व कप्तान और मौजूदा बीसीसीआई अध्यक्ष सौरव गांगुली को जुलाई 2020 के पहले हफ्ते में ही पता चल गया था जब उन्होंने कहा था कि यह बेहद मुश्किल सीरीज़ होगी और जो 2018 में हुआ उसे दोहराना आसान नहीं होगा। हो सकता है कि गांगुली कोच रवि शास्त्री और कप्तान विराट कोहली पर दबाव बनाने की भी कोशिश कर रहे हों क्योंकि ऑस्ट्रेलिया में 70 साल में पहली बार ऐतिहासिक सीरीज़ को वह और कई जानकार महज़ तुक्का इसलिए मान रहे थे कि क्योंकि उस सीरीज़ में ना तो डेविड वार्नर थे और ना ही स्टीवन स्मिथ।
लेकिन, अब 3 मैचों के बाद और वह भी नियमित कप्तान कोहली के बग़ैर और अपने 4 पहले पसंदीदा (ईशांत शर्मा, मोहम्मद शमी, उमेश यादव और भुवनेश्वर) गेंदबाज़ों की कमी के बावजूद अगर भारत सीरीज़ जीतने की उम्मीदों को ज़िंदा रखने में अब भी कामयाब है तो इसकी मिसाल भारतीय क्रिकेट में आपको कहीं नहीं मिलेगी। कम से कम ऑस्ट्रेलिया या किसी मुश्किल विदेशी दौरे पर तो क़तई नहीं। यह ठीक है कि एडिलेड की बेहद शर्मनाक नाकामी के बाद मेलबर्न में भारत ने ज़बरदस्त पलटवार कर सीरीज़ में 1-1 की बराबरी कर ली लेकिन जो कुछ और जिस अंदाज़ में सिडनी में हुआ वह अभूतपूर्व नज़ारा था।
इस ड्रॉ (कई लोग इसे जीत भी मान रहें हैं और मैं भी उन्हीं की सोच से सहमत हूँ) के हीरो तो कई थे लेकिन सबकी कहानी लगभग एक जैसी थी। हर कोई इस बड़े युद्ध में अपनी-अपनी निजी जंग भी लड़ रहा था। अगर टीम के उप-कप्तान की निष्ठा पर ख़ुद कोहली ने सीरीज़ से पहले सवाल उठा दिये थे तो युवा शुभमन गिल को यह एहसास था कि मयंक अग्रवाल की सिर्फ़ 2 टेस्ट की नाकामी (ऑस्ट्रलिया पहुँचने से पहले मयंक का औसत 57 से ज़्यादा का था) उन्हें प्लेइंग इलवेन से बाहर का रास्ता दिखा सकती है तो उनके पास ख़ुद को साबित करने के लिए बहुत वक़्त नहीं था।
पुजारा ने पहली पारी में एक धीमा अर्धशतक क्या लगाया कि उनके पिछली सीरीज़ के 521 रन और 30 घंटे से भी ज़्यादा वक़्त क्रीज़ में बिताने को तुरंत भुला दिया गया। कप्तान रहाणे के पास आक्रमण करने के लिए सिर्फ़ जसप्रीत बुमराह और रविचंद्रण अश्विन ही थे। हनुमा विहारी संभवत: अपना आख़िरी मैच खेल रहे थे और ऋषभ पंत की विकेटकीपिंग और बल्लेबाज़ी शैली का मज़ाक़ तो सोशल मीडिया में उड़ना आम बात हो चुकी है।
अविश्वसनीय तरीक़े से इन्हीं खिलाड़ियों ने सिडनी में ऐसा कौशल दिखलाया कि बस कंगारु स्तब्ध रह गए। लाचार दिखे।
रोहित और गिल ने पहली पारी के बाद दूसरी पारी में भी 70 से ज़्यादा रनों की साझेदारी की ओपनिंग जोड़ी के तौर पर दोनों पारियों में 20 से ज़्यादा ओवर खेलने का कमाल 2004-05 (पाकिस्तान के ख़िलाफ़ बैंगलोर में) का पहली बार दिखा। पुजारा ने तो चौथी पारी में एक और दिलेर पारी खेली। पंत भले ही 3 रनों के चलते शतक से चूक गये, लेकिन इतिहास उनके 97 रन को गुंडप्पा विश्वनाथ के 1975 में वेस्टइंडीज़ के ख़िलाफ़ बनाये गये 97 के बराबर नहीं तो शायद अहमियत के लिहाज़ से कम भी नहीं आँकेगा। इसके बाद विहारी ने जिस तरह हनुमान की तरह संजीवनी भारतीय पारी में डाली उसकी मिसाल कहाँ आसानी से मिलती है। अश्विन ने भले ही टेस्ट में 4 शतक और 11 अर्धशतक लगाए हैं लेकिन इस नाबाद 39 के आगे सारी पारियाँ उनकी फीकी हैं।
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अगर आपको कोई यह कहे कि दुनिया के सबसे धारदार आक्रमण जहाँ पैट कमिंस (नंबर 1 टेस्ट गेंदबाज़), नेथन लॉयन (शेन वार्न के बाद सबसे कामयाब ऑस्ट्रेलियाई स्पिनर जो 400 विकेट से सिर्फ़ 4 क़दम पीछे हैं), मिशेल स्ट्रार्क और जोश हेज़लवुड जो दोनों टेस्ट में 200-200 विकेट के क्लब में शामिल हैं, के ख़िलाफ़ पाँचवें दिन 131 ओवर की बल्लेबाज़ी करके मैच को बचाया जा सकता है तो समझिए कोई आपको यह बता रहा हो डोनल्ड ट्रंप ही अमेरिका के राष्ट्रपति हैं!
रहाणे के साथियों ने वह कमाल दिखाया जो उन्होंने टीवी पर भी नहीं देखा था। आख़िरी बार टेस्ट की चौथी पारी में 100 से ज़्यादा ओवर की बल्लेबाज़ी तो भारत ने 2002 में की थी जब इस टीम के ज़्यादातर खिलाड़ी क्रिकेट की एबीसी भी नहीं जानते थे।
इसे महज़ इत्तिफ़ाक़ ही कहा जा सकता है कि यह ड्रॉ राहुल द्रविड़ के जन्मदिन पर आया जिसने भारतीय क्रिकेट को विदेशी ज़मीं पर लड़ना सिखाया। यह बताया कि अगर जीत नहीं सकते हो तो हारो कभी मत। पुजारा और रहाणे तो उसी द्रविड़ को अपना सबसे बड़ा हीरो मानते हैं जबकि गिल की प्रतिभा को द्रविड़ ने राष्ट्रीय स्तर पर सबसे पहली बार पहचाना था। यह ड्रॉ का नतीजा सिर्फ़ द्रविड़ के जन्म-दिन का ही नहीं भारतीय क्रिकेट का इस युवा टीम की तरफ़ से एक बेशक़ीमती उपहार है। और कौन जानता है कि ब्रिसबेन में वह हो जाए जो आज तक किसी भारतीय टीम ने हासिल नहीं किया है। टेस्ट मैच में जीत। इस टीम से अब किसी भी तरह की उम्मीद चमत्कारिक या असंभव तो नहीं लगती है।
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