दलित आंदोलन या उसे और व्यापक बनाते हुए कहें तो बहुजन आंदोलन आज लगभग नेतृत्वविहीन होकर पस्त पड़ा हुआ है। दिलचस्प बात है कि यह परिदृश्य ऐसे दौर में सामने आया है, जब दलित और बहुजन समाज में सचेत, शिक्षित और सक्रिय लोगों की संख्या सबसे ज़्यादा है। समाज में ज़मीनी स्तर से लेकर सोशल मीडिया तक, इन समुदायों की सक्रियता देखी जा सकती है। ऐसा पहले कभी नहीं था। समाज में सबसे अधिक ग़रीबी इन्हीं समुदायों में है। पर पहले की तुलना में इनकी आर्थिक ताक़त बढ़ी है। इनके बीच का एक छोटा सा हिस्सा समृद्ध भी हुआ है। यानी वह चाहे तो पहले के मुक़ाबले अपनी-अपनी पसंद के संगठनों या नेताओं को चंदा भी ज़्यादा दे सकता है। इन सारी संभावनाओं और शक्तियों के बावजूद दलित-बहुजन आंदोलन और उसके नेतृत्व के प्रभाव और गुणवत्ता में बढ़ोतरी नहीं दिखाई देती।
‘हिंदुत्व राजनीति’ ने क्यों और कैसे पछाड़ा ‘सोशल जस्टिस’ की राजनीति' को!
- सियासत
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- 1 Sep, 2019

अगर हम बीते तीन दशकों के सामाजिक-राजनीतिक इतिहास, ख़ासतौर पर हिन्दी पट्टी के राज्यों पर नज़र डालें तो एक बात आईने की तरह साफ़ है कि इस दौर के ज़्यादातर नेताओं के पास ब्राह्मणवादी मूल्यों और हिन्दुत्वा से निपटने की वह बौद्धिक-राजनीतिक चेतना नहीं थी, जिसका विस्तार बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की वैचारिकी की रोशनी में ही संभव हो सकता था। उसी वैचारिक विरासत को आगे बढ़ाते हुए आज के हिन्दुत्वा की भीषण चुनौतियों से निपटा जा सकता था।