चंपाई सोरेन
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पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव दरअसल बीजेपी से ज़्यादा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है। बंगाल देश का एक ऐसा राज्य है जहाँ क़रीब 50 सालों से धर्म, चुनाव का मुद्दा नहीं बना। वामपंथी दलों ने यहाँ 34 सालों तक राज किया, उसका एक बड़ा कारण बंगाल की राजनीति पर आर्थिक मुद्दों का बोलबाला था। उसके बाद 2011 में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस भी आर्थिक मुद्दों पर ही सत्ता तक पहुँची।
इस बार दो चरणों के मतदान के बाद राजनीतिक समीक्षकों का मानना है कि आरएसएस बंगाल के मतदाताओं को धर्म के आधार पर विभाजित करने में काफ़ी हद तक सफल हो गया है। बीजेपी को 2016 के विधान सभा चुनावों में महज़ तीन सीटें मिली थीं। और अब वो बहुमत के साथ सरकार बनाने की दावेदार बन गयी है। इसके पीछे बीजेपी की ये सोच है कि बंगाली हिंदू, धर्म के आधार पर वोट डाल रहे हैं।
आरएसएस लंबे समय से बंगाल और केरल में हिंदू राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाने की कोशिश में लगा है। इन दोनों ही राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। केरल पर संघ का जादू अब भी नहीं चल रहा है लेकिन बंगाल पर उसका असर दिखाई दे रहा है।
सवाल ये है कि क्या दो चरणों के मतदान के बाद ये कहा जा सकता है कि कभी लाल गढ़ के नाम से मशहूर बंगाल केसरिया गढ़ में बदल जाएगा? राजनीतिक समीक्षकों का मानना है कि इस तरह के किसी भी निर्णय तक पहुँचना अभी जल्दीबाज़ी होगी क्योंकि आठ चरणों में से सिर्फ़ दो चरणों का मतदान हुआ है और ममता के गढ़ के रूप में मशहूर दक्षिण बंगाल में अभी मतदान बाक़ी है।
बीजेपी और संघ के लिए बंगाल एक भावनात्मक मुद्दा भी है। आज़ादी से पहले 1920-1930 के दशक में यहाँ मुसलिम उभार शुरू हुआ। इसका नतीजा था 1947 में धर्म के आधार पर बंगाल का विभाजन। बंगाल ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी का कार्य क्षेत्र था। आज़ादी से पहले श्यामा प्रसाद मुखर्जी हिंदू महासभा के नेता थे। 1945-46 में उन्होंने अविभाजित बंगाल में मुसलिम लीग के साथ सरकार बनायी।
आज़ादी और बंगाल विभाजन के बाद मुखर्जी ने संघ के साथ मिलकर भारतीय जनसंघ नाम से पार्टी बनायी, जिसका विलय 1977 में जनता पार्टी में हो गया और 1980 में जनता पार्टी के विभाजन के बाद जनसंघ के लोगों ने ही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का निर्माण किया।
बंगाल में बीजेपी कभी भी राजनीतिक शक्ति नहीं बन पायी उसका एक बड़ा कारण बंगाली राष्ट्रवाद था। हिंदी भाषी राज्यों की तरह बंगाल में सिर्फ़ हिंदू या मुसलमान नहीं बल्कि बंगाली हिंदू और बंगाली मुसलमान नयी शक्ति के रूप में उभरा। 1971 के युद्ध और बांग्लादेश के उदय के बाद बंगाली राष्ट्रवाद और शक्तिशाली हुआ। नक्सलवादी आंदोलन और वाम पंथ के प्रभाव ने आर्थिक मुद्दों को धर्म से ज़्यादा असरदार बना दिया।
2014 में मोदी युग की शुरुआत के बाद संघ ने बंगाल पर नए ढंग से निशाना साधा। बंगाल के मुसलमान पहले कांग्रेस फिर वाम पंथ और बाद में ममता बनर्जी के मुख्य सहयोगी बने। संघ और बीजेपी ने इसे मुद्दा बनाकर हिंदू एकजुटता की पहल की। इन चुनावों पर इसका असर साफ़ दिखाई दे रहा है। लेकिन राजनीतिक समीक्षक इसे जीत के लिए पर्याप्त नहीं मानते हैं।
धार्मिक आधार पर विभाजन उन क्षेत्रों में ज़्यादा दिखाई दे रहा है जिन क्षेत्रों में मुसलिम आबादी ज़्यादा है। मुसलमानों के नए उभरे नेता अब्बास सिद्दीक़ी के वाम-कांग्रेस गठबंधन के साथ जाने के बावजूद आम मुसलमान ममता के पीछे खड़ा दिखाई दे रहा है।
इसके साथ ही शहरी क्षेत्रों में जो धार्मिक विभाजन दिखाई दे रहा है उसका असर ग्रामीण इलाक़ों पर बहुत कम लग रहा है।
बीजेपी का चुनाव प्रचार पूरी तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इर्दगिर्द केंद्रित है। पार्टी को मोदी लहर के ज़रिए चुनाव जीतने की उम्मीद है। प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की सभाओं में बेशुमार भीड़ जुट रही है। क्या इसे बीजेपी की जीत का संकेत माना जा सकता है?
इन चुनावों को कवर करने वाले कई प्रमुख पत्रकारों का कहना है किसी भी पार्टी की सभाओं में भीड़ के आधार पर बंगाल में जीत का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। सभाओं में भीड़ कई कारणों से होती है लेकिन उसका मतलब ये नहीं है कि वोट भी उसी पार्टी को मिलेगा। मोदी और शाह की सभाओं में एक दिक़्क़त भाषा को लेकर भी आ रही है। ठेठ बंगाली के लिए हिंदी समझना आसान नहीं है।
बंगाल में एक बड़ी आबादी हिंदी भाषियों की है। इनमें से ज़्यादातर लोग बिहार और उत्तर प्रदेश से गए हैं। ग़ैर हिंदी भाषी आबादी बीजेपी के साथ खड़ी दिखाई दे रही है। बंगालियों का एक हिस्सा इससे भड़का हुआ लग रहा है। ममता ख़ुद को बंगाली स्वाभिमान के तौर पर स्थापित करने की कोशिश कर रहीं हैं। बंगाल की बेटी का उनका नारा असर दिखा रहा है। दिनेश त्रिवेदी जैसे नेताओं के पार्टी छोड़ कर बीजेपी में शामिल होने से तृणमूल को जो नुक़सान हुआ है उसकी भरपायी यशवंत सिन्हा को पार्टी में लाकर करने की कोशिश की गयी है।
दूसरे चरण में नंदीग्राम में मतदान की नाटकीय घटनाओं पर पूरे देश का ध्यान केंद्रित रहा। ममता यहाँ से उम्मीदवार हैं इसलिए ये स्वाभाविक भी है। नंदीग्राम और सिंगूर के किसान मज़दूर संघर्ष से ही ममता की राजनीति चमकी थी। बीजेपी के शोर और मीडिया की एक तरफ़ा रिपोर्टिंग से परे ममता का असर भी इस इलाक़े में है।
बीजेपी ने इस क्षेत्र में पूरी ताक़त झोंक दी थी फिर भी यहाँ मतदान को एकतरफ़ा नहीं कहा जा सकता है। राजनीतिक समीक्षकों का मानना है कि अभी 6 चरणों का मतदान बाक़ी है इसलिए बीजेपी समर्थक मीडिया ममता की हार की घोषणा करके बाक़ी मतदान को प्रभावित करना चाहता है। नंदीग्राम और सिंगूर बंगाल के किसानों के संघर्ष का प्रतीक भी हैं। इसलिए आसानी से किसी नतीजे पर पहुँचना सिर्फ़ जल्दीबाज़ी होगी।
राष्ट्रीय मीडिया से सीपीएम और वाम मोर्चा तथा उसके चुनावी गठबंधन में शामिल कांग्रेस पूरी तरह से ग़ायब है। क्या इन बड़ी शक्तियों का वजूद ख़त्म हो गया है। बंगाल के पत्रकारों का कहना है कि इस चुनाव को ममता और बीजेपी के बीच सीधी टक्कर मानना भी एक बड़ी ग़लती होगी। सीपीएम एक नयी रणनीति के तहत पार्टी के युवा चेहरों के साथ मैदान में उतरी है। स्थानीय स्तर पर लंबे समय से काम करने वाले इन नेताओं की ज़मीन पर बेहतर पकड़ है।
वाम और कांग्रेस के चुनाव प्रचार में शोर नहीं है लेकिन उनकी उपस्थिति को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। ये अलग बात है कि बीजेपी के रणनीतिकार मानते हैं कि ये मोर्चा ममता का वोट काटेगा जिससे बीजेपी की जीत आसान हो जाएगी। लेकिन दूसरी तरफ़ ममता के दस सालों के शासन से नाराज़ लोगों के लिए एक विकल्प भी है जिसका नुक़सान बीजेपी को भी होगा।
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