अमेरिकी राष्ट्रपति बेंजामिन फ़्रैंकलिन कहते थे- “जो लोग थोड़ी-सी सुरक्षा के लिये स्वतंत्रता को छोड़ देते हैं वे न तो सुरक्षा के हक़दार हैं और न ही स्वतंत्रता के।” आज के हुक़्मरानों और तथाकथित देश-भक्त जनता को बेंजामिन की बातें शायद बेहूदा और बकवास लगे। लेकिन अगर भारत देश ने लोकतंत्र को चुना है तो उसे यह सोचना चाहिये कि हर कुछ समय के बाद यह मूर्ख़ता क्यों की जाती है कि फलाँ फ़िल्म पर बैन लगनी चाहिये, फलाँ पेंटिंग से किसी की धार्मिक भावनाएँ आहत हो रही हैं? किसी की जातिगत भावना आहत हो रही है या किसी की हिंदू भावना, किसी की मुसलिम भावना पर आघात हो रहा है तो किसी को लग रहा है कि उसके ख़ानदान पर चोट की जा रही है। कुछ लोग तो ऐसे भी हैं जिनको सेक्स से ही एतराज़ है क्योंकि फ़िल्मों में ‘ग़लत’ तरह से दिखाया जा रहा है, या फिर समलैंगिकता को इतनी तवज्ज़ो क्यों दी जा रही है? और तो और एक नया बहाना चल निकला है, राष्ट्रवाद के नाम पर, जन गण मन के नाम पर, वंतेमातरम के नाम पर। सब एक दूसरे को मरने-मारने पर उतारू हैं। ऐसा लग रहा कि भावनाएँ न हुईं किसी देवदास का दिल हो गया जो ज़रा-सा लरजते ही टूट जाता है। मुझे लगता है कि पिछले कुछ सालों में एक समाज के स्तर पर जहाँ हम आसमान की नई बुलंदियों को छूने का प्रयास कर रहे हैं वहीं एक ऐसा समाज भी हमारे बीच खड़ा हो रहा है जो अपने खोदे कुएँ ये बाहर निकलना ही नहीं चाहता।