बाबूलाल मरांडी
बीजेपी - धनवार
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ममता बनर्जी के तेवरों और कदमों की चाल देख कर चर्चा शुरु हो गई है कि तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री खुद को 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में तैयार कर रही हैं। लेकिन ममता मोदी का विकल्प बनने से पहले तृणमूल कांग्रेस को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विकल्प बनाने के राजनीतिक अभियान में जुट गई हैं।
उनके इस अभियान की पूरी रूपरेखा चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने तैयार की है, जिसमें आगे चलकर मूल कांग्रेस के अलग हो चुके धड़ों को एकजुट करके गांधी नेहरू पटेल अंबेडकर की कांग्रेसी विचारधारा वाली एक ऐसी पार्टी बनाना भी शामिल है जो 2024 का लोकसभा चुनाव आते-आते सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस का विकल्प बन सके।
इसके लिए शरद पवार, जगन मोहन रेड्डी और चंद्रशेखर राव जैसे पूर्व कांग्रेसियों और अब महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में सरकारें चला रहे इन दिग्गजों से इस राष्ट्रीय संभावना पर बातचीत भी हो चुकी है।
इस रणनीति के मुताबिक अगर सबकुछ ठीक रहा तो 2024 से पहले तृणमूल कांग्रेस, शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस, जगन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस और चंद्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति का परस्पर विलय होकर एक नया राष्ट्रीय दल भी बन सकता है जिसका नाम झंडा और चुनाव चिन्ह सब कुछ नया और राष्ट्रीय भावना वाला होगा।
ममता के इस अभियान के तीन चरण हैं। पहला चरण है कि कांग्रेस और अन्य दलों के उन नेताओं को जो अपने दलों में हाशिए पर हैं पर उनकी अपने राज्यों, क्षेत्रों और देश में पहचान है, को साथ जोड़कर तृणमूल कांग्रेस का विस्तार किया जाए। इसकी शुरुआत सबसे पहले पूर्व वित्त मंत्री और भाजपा के असंतुष्ट नेता रहे यशवंत सिन्हा को तृणमूल कांग्रेस में शामिल करके हुई।
इसके बाद हाल ही में ममता के दिल्ली दौरे के दौरान जद(यू) के पूर्व राज्यसभा सांसद पवन कुमार वर्मा के साथ कांग्रेस नेता कीर्ति आजाद, कांग्रेस से बाहर जा चुके हरियाणा प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए।
इसके पहले एक जमाने में कांग्रेस के दिग्गज ब्राह्मण नेता और पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व केंद्रीय मंत्री कमलापति त्रिपाठी के पौत्र राजेशपति त्रिपाठी और उनके पुत्र पूर्व विधायक ललितेश पति त्रिपाठी टीएमसी में शामिल हो चुके हैं।
बंगाल जीतने के बाद से ही ममता पूर्वोत्तर में टीएमसी को एक राजनीतिक ताकत बनाकर कांग्रेस को पीछे करके और भाजपा को चुनौती देने के अभियान में जुटी हुई हैं।
इसी कड़ी में त्रिपुरा के स्थानीय चुनावों में तृणमूल कांग्रेस पूरे दमखम से उतर रही है और इसे लेकर भाजपा के साथ उसका वैसा ही हिंसक टकराव हो रहा है जैसा कि प.बंगाल में विधानसभा और लोकसभा चुनावों से पहले शुरु हुआ था।
असम में दिग्गज नेता रहे संतोष मोहन देव की बेटी और महिला कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं सुष्मिता देव ने पाला बदलकर ममता का हाथ थाम लिया। बदले में तत्काल उन्हें प.बंगाल से राज्यसभा में भेज दिया गया। गोवा में पूर्व मुख्यमंत्री लुइजिन्हो फलेरो के कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस में शामिल होने का झटका कांग्रेस झेल ही रही थी कि मेघालय में पार्टी के एक दर्जन विधायक पाला बदलकर तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए।
कांग्रेस के नेताओं का एक-एक करके तृणमूल कांग्रेस में शामिल होना ममता बनर्जी और उनके रणनीतिकार प्रशांत किशोर की बेहद दूरगामी योजना का हिस्सा है।
बात सिर्फ कांग्रेस नेताओं की ही नहीं है। ममता चाहती हैं कि उनके साथ देश के वो तमाम नेता और कार्यकर्ता तृणमूल कांग्रेस में आकर जुड़ें जो भाजपा के सिद्धांतों, विचारधारा और कार्यशैली से न सिर्फ असहमत हैं बल्कि उसे सत्ता से हटाना भी चाहते हैं। लेकिन विकल्प को लेकर परेशान हैं। ममता तृणमूल कांग्रेस को उनके लिए ऐसा मंच बना रही हैं जो कालांतर में चलकर कांग्रेस का विकल्प बन जाए।
तृणमूल सूत्रों के मुताबिक योजना यह है कि सबसे पहले तृणमूल कांग्रेस को प.बंगाल की सीमाओं से बाहर निकालकर उसकी उपस्थिति देश के हर राज्य और क्षेत्र में बनाई जाए। इसके लिए ही पार्टी के दरवाजे हर राज्य में उन नेताओं के लिए खोल दिए गए हैं जिनकी अपने राज्यों और क्षेत्रों में पहचान है, लेकिन दलों में पूछ नहीं है। भले ही उनके पीछे कोई बड़ा जनाधार न हो।
पड़ोसी पूर्वोत्तर राज्यों में तृणमूल कांग्रेस को नेता और जनाधार दोनों आसानी से मिल रहे हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, गोवा महाराष्ट्र, उड़ीसा, कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में ममता बनर्जी को तृणमूल का झंडा डंडा लेकर चलने वाले नेताओं की तलाश है।
बिहार में यशवंत सिन्हा, कीर्ति आजाद और पवन वर्मा यह काम करेंगे और मुमकिन है कि देर-सबेर कांग्रेस व अन्य दलों के कुछ और नेता भी तृणमूल का झंडा उठा लें। हरियाणा में फिलहाल अशोक तंवर अब तृणमूल का काम संभालेंगे तो उत्तर प्रदेश विशेषकर पूर्वांचल में कमलापति त्रिपाठी परिवार की प्रतिष्ठा के वाहक राजेशपति और ललितेश पति त्रिपाठी तृणमूल कांग्रेस के रथ को आगे बढ़ाएंगे।
तृणमूल के एक रणनीतिकार का कहना है कि गरम खिचड़ी हमेशा किनारे से खाई जाती है क्योंकि बीच से खाने से मुंह जल जाता है। इसलिए जो नेता अभी तृणमूल में आ रहे हैं भले ही वो अपने दलों में किनारे पर लगाए गए लोग हैं, लेकिन उन दलों को कुतरने की शुरुआत किनारे से ही की जा रही है, खासकर कांग्रेस को।
अपने अभियान को आगे बढ़ाते हुए ममता बनर्जी गैर भाजपा दलों के शीर्ष नेताओं से भी मिलेंगी। उन्होंने घोषणा की है कि वह मुंबई जाकर शरद पवार, उद्धव ठाकरे से मिलेंगी। पटना में संभव है वह लालू यादव से मिलें। यह भी संभावना है कि वह एम के स्टालिन, चंद्रशेखर राव, जगनमोहन रेड्डी, नवीन पटनायक, हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल जैसे गैर भाजपा शासित राज्यों के उन मुख्यमंत्रियों से भी मिलेंगी जिनकी अपनी राज्यों में अलग पहचान और मजबूत पकड़ है।
रणनीति यह है कि इस तरह ममता सबसे मेल मुलाकातों के जरिए पूरे देश के गैर भाजपा खेमे में अपनी स्वीकार्यता स्थापित करेंगी और कांग्रेस के नेताओं को तृणमूल में शामिल कराती रहेंगी।
योजना है कि 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले तक तृणमूल कांग्रेस अकेले कम से कम लोकसभा की सौ सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की स्थिति में आ जाए। जिन राज्यों में पार्टी का जनाधार कमजोर रहेगा वहां मजबूत क्षेत्रीय दल के साथ गठबंधन का रास्ता भी खुला हुआ है।
जैसे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव के साथ ममता बनर्जी के रिश्ते मधुर हैं। प.बंगाल के चुनावों में सपा ने बिना शर्त तृणमूल कांग्रेस का समर्थन करते हुए अपनी सांसद जया बच्चन को प्रचार के लिए भेजा था। ममता ने भी कहा है कि अगर अखिलेश उनसे कहेंगे तो वह जरूर उनकी मदद करेंगी। संभव है कि ललितेश पति त्रिपाठी के लिए समाजवादी पार्टी उनकी विधानसभा सीट तृणमूल कांग्रेस के लिए छोड़ दे।
ममता के अभियान का दूसरा चरण पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद शुरु होगा। इन चुनावों में कांग्रेस की स्थिति क्या बनती है। क्या कांग्रेस पंजाब में अपनी सरकार बचा पाती है और उत्तराखंड में बना पाती है। साथ ही उत्तर प्रदेश, गोवा और मणिपुर में कांग्रेस कैसा प्रदर्शन करती है, इस पर बहुत कुछ निर्भर है।
अगर परिणाम कांग्रेस के पक्ष में आए तो ममता की मुहिम को झटका लग सकता है, तब उन्हें अपने कदम कुछ वापस खींचने पड़ सकते हैं। लेकिन अगर चुनाव नतीजे कांग्रेस के खिलाफ आए तो पार्टी के भीतर एक बड़े विद्रोह की उम्मीद ममता और उनके रणनीतिकारों को है। तब जी-23 में शामिल कुछ बड़े नेता भी ममता के साथ आ सकते हैं।
इसके बाद तेज होगा ममता की मुहिम की बड़ी योजना पर अमल, जिसमें कांग्रेस से अलग होकर बने दलों एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस, वाईएसआर कांग्रेस और तेलंगाना राष्ट्र समिति के परस्पर विलय कराए जाने पर काम शुरु होगा। इसके लिए प्रशांत किशोर पूरी भूमिका तैयार कर रहे हैं। ममता के दूत के रूप में उनकी मुलाकातें तमाम गैर भाजपा दलों के नेताओं के साथ हो रही हैं। कांग्रेस के भी कुछ वरिष्ठ नेताओं के संपर्क में वह हैं।
सारा दारोमदार फरवरी-मार्च में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों पर है। इनके नतीजों को लेकर अपने-अपने आकलन हैं। कांग्रेसी खेमे का आकलन है कि पंजाब में ले देकर कांग्रेस की सरकार दोबारा बन सकती है और उत्तराखंड में कांग्रेस सत्ता में आ सकती है जबकि उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी के तूफानी अभियान ने पार्टी को चर्चा में ला दिया है और उसके मत प्रतिशत और सीटों दोनों में खासा इजाफा हो सकता है और गोवा व मणिपुर में भी पार्टी सरकार बनाने के करीब पहुंच सकती है।
लेकिन दूसरी तरफ तृणमूल कांग्रेस, ममता के रणनीतिकारों और कांग्रेस के भी असंतुष्ट गुट का आकलन है कि पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह, नवजोत सिद्धू और चरणजीत चन्नी के तिकोने झगड़े ने पार्टी की हालत बिगाड़ दी है जबकि उत्तराखंड में आप और गोवा में तृणमूल और आप के मैदान में आ जाने से कांग्रेस की जीतने की संभावनाएं खत्म हो गईं हैं और मणिपुर में भी जिस तरह पार्टी के नेता कांग्रेस छोड़ रहे हैं उससे संकेत हैं कांग्रेस यहां भी पिछड़ रही है।
ऐसे में चुनावों के बाद कांग्रेस के भीतर असंतोष और फूटेगा तब उसमें भगदड़ मच सकती है जिसका लाभ तृणमूल कांग्रेस को मिलेगा। अब इन दोनों आकलनों में कौन सही होगा, यह भविष्य के गर्भ में है, लेकिन दोनों ही परिस्थितियों के लिए तृणमूल कांग्रेस ममता बनर्जी और उनके रणनीतिकार खुद को तैयार कर रहे हैं।
उनका यह भी मानना है कि अगर पांच राज्यों के चुनावों में कांग्रेस के लिए अनुकूल नतीजे आते हैं तो भी तृणमूल अपने विस्तार की मुहिम जारी रखेगी और 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले होने वाले सभी विधानसभा चुनावों में वह कुछ राज्यों में अपने उम्मीदवार भी उतार सकती है जिससे उन राज्यों में उसकी उपस्थिति दर्ज हो सके और इसके लिए जरूरत पड़ने पर क्षेत्रीय दलों से गठबंधन भी किया जा सकता है।
इसके बाद लोकसभा चुनावों में उसका लक्ष्य कम से कम सौ सीटें जीतकर कांग्रेस के मुकाबले गैर भाजपा सरकार ममता बनर्जी के नेतृत्व में बनाने का दावा ठोक करके कांग्रेस को समर्थन देने के लिए विवश करना होगा।
नेहरू-गांधी परिवार के वफादार कांग्रेसी इसे ममता और पीके का दिवास्वप्न कहकर हंसी में उड़ा देते हैं, लेकिन दशकों से राजनीति की गहरी समझ रखने वाले एक वरिष्ठ और दिग्गज कांग्रेसी नेता इसकी संभावना से इनकार नहीं करते हैं।
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