पाँच राज्यों के चुनाव घोषित होते ही मीडिया महोत्सव शुरू हो गया है। कहा जा रहा है कि ये चुनाव 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों का सेमीफाइनल हैं और बीजेपी, कांग्रेस समेत उन सभी राजनीतिक दलों, जो इन चुनावों में मैदान में हैं, की अग्निपरीक्षा इन चुनावों में होगी। लेकिन वास्तविकता ये है कि ये चुनाव राजनीतिक दलों के लिए नहीं बल्कि आम जनता या मतदाताओं की अग्निपरीक्षा साबित होने जा रहे हैं। क्योंकि इन चुनावों के नतीजे ही मतदाताओं के मानस का पैमाना होंगे और उनके अनुसार ही देश की भावी राजनीतिक दिशा, दशा और उसके मुद्दे तय होंगे जो अगले लोकसभा चुनावों की भूमिका तैयार करेंगे।
बिहार और पश्चिम बंगाल की तरह ये विधानसभा चुनाव भी कोरोना महामारी के संक्रमण की छाया में हो रहे हैं। बिहार के चुनाव कोरोना की पहली लहर के उतार के दौर में हुए थे, जबकि पश्चिम बंगाल, असम और तमिलनाडु के चुनाव कोरोना की दूसरी लहर के चरम दौर में हुए जब पूरे देश में कोरोना संक्रमण से होने वाली मौतों और इलाज की अफरातफरी से लोग जूझ रहे थे। अब पांच राज्यों के चुनाव कोरोना की तीसरी लहर के उस शुरुआती दौर में शुरू हुए हैं जब आशंका है कि अगर ज़रूरी क़दम न उठाए गए तो तीसरी लहर भी भयावह हो सकती है। इसीलिए इस बार पहले से सबक़ लेकर चुनाव आयोग ने कोरोना प्रतिबंधों के सख्ती से पालन करने का संदेश और निर्देश राजनीतिक दलों और लोगों को दिया।
अब अगर इन चुनावों में मुद्दों की बात करें तो विपक्ष के लिए सबसे अहम मुद्दे महंगाई, बेरोज़गारी, डीजल-पेट्रोल की कीमतें, खाद की कीमत और किल्लत, गैस सिलेंडरों की बढ़ी कीमत, बिजली की बढ़ी दरें, खस्ताहाल अर्थव्यवस्था, छोटे दुकानदारों, व्यापारियों और उद्यमियों के कारोबार में सुस्ती, आवारा और छुट्टा पशुओं की समस्या, महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध, दलितों और वंचित वर्गों के उत्पीड़न हैं। इसके साथ ही कोरोना की पहली लहर के दौरान हजारों मील पैदल चलकर अपने गांव पहुंचने वाले प्रवासी मजदूरों की तकलीफें और दूसरी लहर में बीमारी और इलाज के अभाव में हुई बड़ी संख्या में मौतें, गंगा और अन्य नदियों में बहती और किनारों पर दफन होने वाली लाशों, श्मशान घाटों और कब्रिस्तानों में लगने वाली लंबी लाइनों की भयावह यादें भी चुनाव प्रचार में विपक्ष की तरफ से उठाई जाएंगी।
इनकी काट के लिए चार राज्यों में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा घोषित की गईं हजारों करोड़ की परियोजनाओं, शिलान्यास किए गए विकास कार्यों जिनमें जेवर हवाई अड्डा, गंगा एक्सप्रेस-वे, बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे डिफेंस कोरीडोर, सरयू नहर परियोजना और उद्घाटन किए जाने वाले पूर्वांचल एक्सप्रेस वे को मुद्दा बनाकर अपनी विकासवादी घोषणाओं से विपक्ष के आरोपों से पैदा होने वाली नकारात्मकता और सत्ताविरोधी रुझानों की धार को कुंद करने की कोशिश कर रही है। इसके साथ ही बीजेपी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के राज को अपराधियों का राज घोषित करते हुए जनता को आगाह करने में जुटी है कि अगर सपा जीती तो फिर उन माफियाओं का राज लौट आएगा जिन्हें योगी सरकार ने यों तो जेल में भेज दिया है या फिर पुलिस मुठभेड़ों में मार गिराया है।
प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, मुख्यमंत्री आदित्यनाथ, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा समेत सभी भाजपा नेता इस मुद्दे को जोरशोर से अपनी सभाओं में उठा रहे हैं। जब वो माफिया कहते हैं तो उनका इशारा आम तौर पर अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी जैसों की तरफ़ होता है जिससे दो निशाने सधते हैं एक तो अपराधीकरण के ख़िलाफ़ बीजेपी का नारा बुलंद होता है तो साथ ही मुसलिम विरोधी ध्रुवीकरण में मदद मिलती है। जबकि कई अपराधी और माफिया चरित्र वाले लोग सत्ता के गलियारों और बीजेपी नेताओं के मंच पर भी देखे जाते हैं।
विपक्ष भी इसे अपने तरीक़े से मुद्दा बना रहा है, जिसमें सबसे ज़्यादा नाम लखीमपुर खीरी कांड के अभियुक्त आशीष मिश्रा के पिता और केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी का लिया जा रहा है, जिनके इस्तीफे की मांग लगातार किसान संगठन और विपक्षी दल करते रहे हैं।
इन चुनावों में उत्तर प्रदेश में बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने उस सामाजिक समीकरण को साधे रखने की है जिसकी वजह से उसे उत्तर प्रदेश में 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में लगातार भारी जीत मिली है। इन चुनावों में जहाँ सवर्ण हिंदू पूरी तरह एक मुश्त उसके साथ रहे वहीं ग़ैर यादव पिछड़े और ग़ैर जाटव दलितों का बड़ा समर्थन बीजेपी को मिला और एक तरह से आरएसएस की हिंदुत्व की अवधारणा जातीय गोलबंदी पर भारी पड़ी। लेकिन इस बार हालात बदले हुए हैं। केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर चुनाव लड़ने के बावजूद उनकी जगह एकाएक योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाने, जातीय जनगणना के मुद्दे पर बीजेपी की हीला हवाली, और शासन प्रशासन में सवर्णों के वर्चस्व ने पिछड़ों को नाराज़ किया है। जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पिछले तीन चुनावों में बीजेपी के लिए मज़बूती से डटे रहने वाले जाट और अन्य किसान जातियों को किसान आंदोलन ने नाराज़ कर दिया और तीनों कृषि क़ानून वापस लेने के बावजूद अभी उनकी नाराज़गी कितनी दूर हुई यह कहना मुश्किल है। वहीं सोनभद्र, हाथरस जैसे कांडों, आगरा बलिया प्रयागराज में दलितों की हत्याओं और मुठभेड़ के नाम पर पुलिस की मनमानी, गोरखपुर में युवा व्यापारी की हत्या जैसी घटनाओं ने सरकार की छवि पर असर डाला है। जहाँ कांग्रेस की तरफ़ से प्रियंका गांधी ने हर ऐसी घटना पर खुद मौक़े पर जाकर सरकार के लिए मुसीबत ख़ड़ी की तो सपा के अखिलेश यादव अब अपनी हर सभा में इनको उठा रहे हैं।
अखिलेश यादव ने इस सामाजिक असंतोष को भांप कर अपने चुनाव अभियान को पिछड़ों के इंकलाब का नाम दिया है और उन्होंने ग़ैर यादव पिछड़ों के सपा के साथ पहले की तरह गोलबंद करने के लिए ओम प्रकाश राजभर की सभासपा, संजय चौहान की पार्टी, केशवदेव मौर्य के महान दल, जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल, अपना दल के संस्थापक सोनेलाल पटेल की पत्नी कृष्णा पटेल, कांग्रेस से सपा में शामिल हुए पाल समाज के नेता राजाराम पाल, जाटों के नेता हरेंद्र मलिक और पंकज मलिक, सुखदेव राजभर के बेटे रामअचल राजभर, लालजी वर्मा समेत कई पिछड़े और किसान जातियों के नेताओं को साथ लेकर सपा के जनाधार का विस्तार करने की कोशिश की है। आम आदमी पार्टी के भी सपा के साथ गठबंधन की चर्चा है।
अखिलेश यादव की नज़र बीजेपी के साथ गए निषाद पार्टी के नेता संजय निषाद और योगी सरकार के कुछ मंत्रियों पर भी है। अखिलेश की कोशिश बीजेपी के हिंदुत्व की काट में मंडल के जमाने का पिछड़ा गठबंधन करके चुनाव की बाजी पलटने की है। इसके अलावा इस चुनाव में ब्राह्मण समुदाय जिसकी तादाद राज्य में क़रीब 12 फीसदी है जो सर्वाधिक मुखर मतदाता समूह है, उसे अपने साथ लेने की होड़ सभी दलों में हैं। बीजेपी उसे अपना परंपरागत जनाधार मानती है और कांग्रेस के कमजोर होने के बाद बीजेपी ही ब्राह्मण की स्वाभाविक पसंद और अपनी पार्टी रही है। लेकिन 2007 में बसपा के नारों ‘पंडित शंख बजाएगा हाथी बढ़ता जाएगा’ और ‘हाथी नहीं गणेश है ब्रह्मा विष्णु महेश है’ ने बड़ी तादाद में ब्राह्मणों को बसपा के साथ जोड़ा और उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार बनी।
बाद में ब्राह्मण 2012 में सपा और फिर बीजेपी के साथ हो गए। इस बार अनेक कारणों से राज्य में यह धारणा बन गई है कि ब्राह्मण उपेक्षित हैं और इसीलिए समाजवादी पार्टी जहां परशुराम मंदिर का उद्घाटन करके ब्राह्मणों को जोड़ने की कोशिश में है तो बसपा ने सतीश मिश्र को आगे करके प्रबुद्ध सम्मेलनों के ज़रिए ये कोशिश की है। साथ ही बसपा विकास दूबे कांड में जेल में बंद खुशी दूबे का मुद्दा भी उठा रही है और सतीश मिश्र खुद इसकी क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं।
बीजेपी इसे भाँप चुकी है। इसलिए बीजेपी ने एक बार फिर हिंदू ध्रुवीकरण के दांव को तेज किया है। एक तरफ़ उसने अपने ब्राह्मण नेताओं के ज़रिए इस वर्ग को साधने की कोशिश की है। सबसे ज़्यादा ब्राह्मण उत्पीड़न का मुद्दा उठाने वाले कांग्रेस नेता जितिन प्रसाद को बीजेपी ने अपने साथ लेकर उन्हें राज्य में मंत्री बना दिया। तमाम विरोध के बावजूद खीरी कांड में विवादित गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी को नहीं हटाया गया है। साथ ही अपने विकास कार्यों से ज्यादा बीजेपी नेता अखिलेश और समाजवादी पार्टी को यादव मुसलमानों की पार्टी साबित करने में जुटे हैं ताकि मुसलमानों का डर दिखाकर हिंदुओं का ध्रुवीकरण किया जा सके। इसके लिए एक तरफ़ काशी विश्वनाथ कोरीडोर, अयोध्या में राम मंदिर और मथुरा के श्रीकृष्ण मंदिर के विकास का नारा दिया जा रहा है तो दूसरी तरफ़ जिन्ना से लेकर गाय तक को प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के भाषणों में जगह मिल रही है।
बीजेपी के हिंदू ध्रुवीकरण और सपा के जातीय गोलबंदी के दांव की काट के लिए कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को आगे करके लैंगिक न्याय का दांव खेला है। प्रियंका गांधी ने महिलाओं को चालीस फीसदी टिकट देने से लेकर छात्राओं को स्मार्ट फोन और स्कूटी तक देने, महिलाओं को विशेष अवसर देने के वादे करते हुए उनके लिए अलग से पार्टी का घोषणापत्र जारी किया है। ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ के नारे के साथ प्रियंका ने गोरखपुर वाराणसी से लेकर महोबा और चित्रकूट तक में महिलाओं की प्रतिज्ञा रैलियाँ की हैं और कई शहरों में लड़कियों की मैराथन दौड़ आयोजित की जा रही है। महिला सुरक्षा और सशक्तीकरण को प्रियंका ने इतना बड़ा मुद्दा बना दिया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी प्रयागराज में महिलाओं के सम्मेलन को संबोधित करना पड़ा।
इसके अलावा कांग्रेस किसानों को गेहूं-धान का उचित मूल्य दिलाने, बिजली के बिल आधे करने जैसे वादे भी कर रही है। इससे आगे बढ़कर अखिलेश यादव ने बिजली मुफ्त देने का वादा कर दिया है तो चुनाव घोषणा होने से पहले योगी सरकार ने बिजली के बिल आधे कर दिए। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश के चुनावों में विकास के तड़के से लेकर धार्मिक, जातीय और लैंगिक ध्रुवीकरण के दांव भी हैं।
उत्तराखंड में कांग्रेस ने बीजेपी द्वारा पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बदलने के मुद्दे को जनादेश का अपमान और सरकार की अक्षमता के रूप में पेश करना शुरू कर दिया है। हालांकि तीसरे मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी खासी मेहनत कर रहे हैं लेकिन उन्हें अपनी पार्टी के भीतर से लेकर बाहर तक विरोध का सामना भी करना पड़ रहा है। वहीं हरीश रावत को भी कांग्रेस के भीतर की गुटबाजी झेलनी पड़ी और उन्होंने जब तीखे तेवर दिखाए तो हाईकमान ने उन्हें पूरे अधिकार दे दिए। रावत ने अपने चुनाव अभियान को उत्तराखंडियत के मुद्दे पर केंद्रित कर दिया है।
पंजाब में इस बार चुनाव दो ध्रुवीय न होकर बहु ध्रुवीय हो गया है। कांग्रेस और अकाली बसपा गठबंधन के अलावा आम आदमी पार्टी, भाजपा और कैप्टन अमरिदंर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस गठबंधन, किसान आंदोलन के बाद किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल की पार्टी और गुरुनाम सिंह चढूनी की पार्टी भी मैदान में उतर रही हैं। एक समय लगता था कि पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस फिर बाजी मारेगी। लेकिन जब कैप्टन सिद्धू झगड़े के बाद कैप्टन को मुख्यमंत्री पद से हटाया गया तो लगा कि कांग्रेस ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। भाजपा ने इसमें अपने लिए अवसर देखा क्योंकि अकाली दल पहले ही उससे अलग हो चुका था। भाजपा ने फौरन अमरिंदर से दोस्ती की और चुनावी तालमेल कर लिया। लेकिन जिस तरह पंजाब के मुख्यमंत्री बने चरणजीत सिंह चन्नी ने पिछले कुछ महीनों में न सिर्फ पार्टी के भीतर अपने विरोधियों को शांत किया और प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के विरोध को भी कमजोर किया, वहीं दूसरी तरफ़ आम जनता से सीधा संवाद करने के उनके अंदाज़ ने जल्दी ही उन्हें लोकप्रिय बना दिया।
पांच जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फिरोजपुर यात्रा के दौरान उनकी सुरक्षा में लगी सेंध के मुद्दे का चन्नी ने जिस तरह राजनीतिक जवाब दिया है उससे उनका कद और बढ़ गया। साथ ही राज्य के पहले दलित मुख्यमंत्री होने की वजह से सूबे के 33 फ़ीसदी दलितों के समर्थन को कांग्रेस को पूरा भरोसा है। उधर प्रकाश सिंह बादल की जगह अकाली दल की पूरी कमान अब उनके बेटे सुखबीर बादल के हाथों में आ गई है और अकाली दल में सुखदेव सिंह ढींढसा जैसे नेता अलग हो चुके हैं, इससे भी अकाली दल की पकड़ कमजोर हुई है। बीजेपी से गठबंधन टूटने के कारण शहरी और खासकर हिंदू मतदाताओं का समर्थन भी अकाली दल को मिलना मुश्किल है। जबकि बीजेपी के सामने पंजाब के ग्रामीण इलाक़ों में अकेले चुनाव लड़ने की कठिन चुनौती है जो उसने कैप्टन अमरिंदर सिंह के ज़रिए पूरा करने की रणनीति बनाई है, लेकिन जिस तरह अमरिंदर सिंह की सभाओं में लोग नहीं आ रहे हैं, उससे भी बीजेपी चिंतित है।
वहीं आम आदमी पार्टी जिसने पिछले चुनावों में तमाम कोशिशों के बावजदू भले ही सरकार न बना पाई हो लेकिन उसने अकाली दल को ज़रूर पीछे छोड़ दिया था। इस बार आम आदमी पार्टी फिर पूरी ताक़त से मैदान में है और उसने एक नया विकल्प देने का नारा भी दिया है।
लेकिन उसकी समस्या है कि उसके पास पंजाब का कोई स्थानीय चेहरा नहीं है। इसलिए मुख्यमंत्री चन्नी ने भी पंजाब और पंजाबियत को एक मुद्दा बनाना शुरू कर दिया है। क्योंकि बीजेपी सीमावर्ती पंजाब में राष्ट्रवाद को एक मुद्दा बनाना चाहती है और प्रधानमंत्री के काफिले में सुरक्षा सेंध को एक बड़े हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहती है, चन्नी इसकी काट पंजाबियत से करना चाहते हैं। अब देखना है कि दलित अस्मिता और पंजाबियत के मुद्दे से चन्नी के नेतृत्व में कांग्रेस बीजेपी के राष्ट्रवाद और आप की चुनौती का मुक़ाबला कैसे और किस हद तक कर पाती है। जबकि अकाली दल की हालत पंजाब में वैसी ही दिखाई दे रही है जैसी उसकी सहयोगी बसपा की उत्तर प्रदेश में दिख रही है।
गोवा और मणिपुर में पिछले चुनावों में भी कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी लेकिन बीजेपी ने जोड़ तोड़ करके अपनी सरकार दोनों राज्यों में बनाई। गोवा में इस बार बीजेपी बिना अपने कद्दावर नेता मनोहर पर्रिकर के चुनाव मैदान में है और मौजूदा मुख्यमंत्री को लेकर बीजेपी का ही एक खेमा खासा असहज है। उधर कांग्रेस की संभावनाओं पर ग्रहण लगाने के लिए आम आदमी पार्टी के साथ साथ इस बार तृणमूल कांग्रेस ने भी गोवा में खम ठोंका है। लेकिन मुख्य मुक़ाबला सत्ताधारी बीजेपी और विपक्षी कांग्रेस के ही बीच है। यही स्थिति मणिपुर की भी है। यहाँ बीजेपी में ज़्यादातर नेता वही हैं जो पहले कांग्रेस में थे, जबकि कांग्रेस अपने नए नेताओं के साथ मैदान में है। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा बीजेपी की पूर्वोत्तर राजनीति के प्रमुख रणनीतिकार हैं। अगर गोवा और मणिपुर में कांग्रेस फिर बहुमत से चूक गई तो बीजेपी पिछला इतिहास दोहरा सकती है।
इसीलिए ये चुनाव राजनीतिक दलों से ज़्यादा आम जनता और मतदाताओं की अग्निपरीक्षा हैं कि उन्हें कौन से मुद्दे पसंद हैं और वह कैसा जनादेश देते हैं। क्या उत्तर प्रदेश में महंगाई, बेरोजगारी, महिला सुरक्षा, महिला सशक्तीकरण, कोरोना कुप्रबंधन, पुलिस ज्यादती, दलित उत्पीड़न, व्यापार उद्योग के पटरी से उतरने, खाद संकट, किसानों की घटती आमदनी, आवारा और छुट्टा पशुओं की समस्या, महंगे पेट्रोल डीजल, रसोई गैस को ध्यान में रखकर लोग वोट देंगे या विकास परियोजनाओं की घोषणाओं, शिलान्यासों और उद्घाटनों, मुफ्त राशन, मुसलिम माफियों से कानून व्यवस्था बिगड़ने के डर, काशी विश्वनाथ धाम, अयोध्या में राम मंदिर, मथुरा में श्री कृष्ण मंदिर के विकास, जिन्ना और गाय के नारों को तरजीह देकर मतदान करेंगे।
और सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा तो प्रधानमंत्री मोदी की है।
(साभार - अमर उजाला)
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