जयंत चौधरी और उनकी आरएलडी पार्टी एनडीए में शामिल हो गए। हाल ही में केंद्र सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न दिया था। उनके पोते जयंत चौधरी ने एक लाइन लिखी- दिल जीत लिया। उसके बाद वो भाजपा के हो गए। वही जयंत चौधरी जो एक हफ्ता पहले पश्चिमी यूपी के गांव में साम्प्रदायिक शक्तियों से लड़ने की कसम खा रहे थे। लेकिन विचारधारा और निष्ठा रातोंरात बदल गई। लेकिन यहां सवाल यह है कि जयंत चौधरी की पार्टी आरएलडी को एनडीए में शामिल करने में इतनी देर क्यों लगाई गई। आखिर भाजपा ने उन्हें इतना इंतजार क्यों कराया। इसके अलावा सवाल यह भी है कि क्या जयंत के भाजपा से हाथ मिलाने के बाद पश्चिमी यूपी का किसान जो अधिकतर जाट है, भाजपा के साथ इस गठबंधन को पसंद करेगा। ये तमाम सवाल हैं जो जयंत चौधरी के पाला बदलने से उठ खड़े हुए हैं।
भाजपा ने लोकसभा चुनाव के लिए 195 उम्मीदवारों की अपनी पहली सूची शनिवार को जारी की। उसी दिन भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में जयंत चौधरी को इस क्लब में एंट्री दी गई। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने सोशल मीडिया पर लिखा- “मैंने अमित शाह की उपस्थिति में आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी से मुलाकात की। मैं एनडीए परिवार में शामिल होने के उनके फैसले का दिल से स्वागत करता हूं। पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में आप विकसित भारत और उत्तर प्रदेश के विकास की यात्रा में महत्वपूर्ण योगदान देंगे। अब की बार एनडीए 400 पार।”
राष्ट्रीय लोकदल या रालोद (आरएलडी) पहले इंडिया गठबंधन यानी विपक्ष का हिस्सा थी। पार्टी पश्चिमी यूपी की पांच सीटों बागपत, मथुरा, मुजफ्फरनगर, मेरठ, गाजियाबाद पर दिसंबर से तैयारी कर रही थी। इंडिया गठबंधन के तहत अखिलेश यादव उन्हें सपा कोटे से पांच से सात सीटें देने को तैयार हो गई थी। लेकिन अब समीकरण बदल गए। अब आरएलडी को भाजपा दो सीटें देने को तैयार है और जयंत चौधरी उस पर राजी नजर आ रहे हैं। लेकिन हो सकता है कि भाजपा इस बार जिस तरह से सीटों की संख्या को लेकर आक्रामक मूड में है, वो आरएलडी को चार सीट भी दे सकती है। जिस एक सीट को आरएलडी के लिए पक्का माना जा रहा है, वो बागपत की सीट है। वहां से जयंत चौधरी खुद बी चुनाव लड़ सकते हैं।
2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, जाट एक कृषक समुदाय है जो यूपी की 20 करोड़ आबादी का केवल 2% है। उनकी आबादी राज्य के पश्चिमी हिस्सों में गन्ना उत्पादक जिलों में फैली हुई है। उनकी आबादी उनकी प्रमुख सामाजिक स्थिति के साथ मिलकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चुनाव नतीजों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं। पश्चिमी यूपी का यह पैटर्न यूपी के अन्य हिस्सों में प्रभावी नहीं रहता है।
जाटों का समर्थन क्षेत्र में चुनावी राजनीति को कैसे प्रभावित कर सकता है इसका एक उदाहरण उत्तर प्रदेश में भाजपा के बढ़ते प्रभाव के रूप में देखा जा सकता है।
2009 के लोकसभा चुनावों में, पार्टी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आठ सीटों में से केवल तीन मेरठ, गाजियाबाद और आगरा में जीत मिली थी। आरएलडी ने पांच सीटें बागपत, बिजनौर, मथुरा, हाथरस और अमरोहा जीती थीं। 2014 और 2019 में भाजपा ने इस क्षेत्र में जीत हासिल की, जबकि आरएलडी को एक भी सीट नहीं मिली। 2019 में अमरोहा सीट बसपा ने जीती थी। इन तथ्यों से साफ है कि 2009 जैसा प्रदर्शन आरएलडी फिर कभी नहीं कर पाई। लेकिन अब जाट और किसान जिस तरह से नाराज हैं, भाजपा को मुजफ्फरनगर दंगों के बाद मिली बढ़त भी मदद नहीं कर पा रही है।
नवंबर 2021 में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा तीन विवादास्पद कानूनों को वापस लेने से पहले एक साल से अधिक समय तक दिल्ली की सीमाओं पर डटे रहने वालों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हजारों किसान भी शामिल थे। पश्चिमी यूपी में लोगों को अब भी लगता है कि मोदी सरकार की रियायतें किसानों के लिए पर्याप्त नहीं हैं। उसके हालात नहीं बदल रहे हैं। चूंकि पिछले किसान आंदोलन में जयंत चौधरी ने पुलिस की लाठियां उसके लिए खाई थीं तो वो उसे अपना हितैषी मानता है। लेकिन अब हितैषी भाजपा और एनडीए के साथ है तो वो पसोपेश में है। उसके सामने अब सवाल है कि जयंत के पीछे खड़े होकर भाजपा को वोट दे या फिर इंडिया गठबंधन के दलों कांग्रेस-सपा को वोट दे। जयंत ने उसे मुश्किल में डाल दिया है।
पश्चिमी यूपी में जाट ही किसान हैं। फरवरी के अंतिम सप्ताह में सिसौली में जो किसान पंचायत हुई थी, उसमें साफ-साफ सरकार विरोधी रुख सामने आया था। उसके बाद पश्चिमी यूपी के किसान नेताओं राकेश टिकैत-नरेश टिकैत के नेतृत्व में ट्रैक्टर रैली भी निकाली थी। लेकिन स्थिति अब बदल गई। हालांकि टिकैत बंधुओं की विपक्ष के प्रति और किसान संगठनों की एकजुटता के प्रति काफी समय से संदिग्ध लग रही है। ऐसे में अब यह भी देखा जाएगा कि क्या पश्चिमी यूपी का किसान इन सभी के चंगुल से निकलकर अपनी स्वतंत्र राय के तहत मतदान करेगा।
देश की नामी महिला पहलवानों ने जब भाजपा सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह के कथित यौन उत्पीड़न के खिलाफ मोर्चा खोला तो उन महिला पहलवानों के साथ सबसे पहले हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी यूपी के जाट और किसान खड़े हुए। क्योंकि आंदोलन करने वाली महिला पहलवान जाट थीं। बाद में पहलवान जब अपने मेडल विसर्जित करने हरिद्वार पहुंचे तो नरेश टिकैत ने उन्हें ऐसा करने से रोका। खुद जयंत चौधरी ने महिला पहलवानों के प्रदर्शन स्थल जंतर मंतर पर पहुंचकर उन्हें समर्थन दिया।
महिला पहलवानों की नाराजगी आज भी दूर नहीं हुई है। ब्रजभूषण शरण सिंह का दबदबा वैसे ही कायम है। मामला अदालत में चल रहा है और वहां लंबी-लंबी तारीखें लगती हैं। चंद दिनों बाद होने वाला लोकसभा चुनाव 2024 यह भी तय करेगा कि क्या महिला पहलवानों का मुद्दा पश्चिमी यूपी के जाट और किसान मतदाताओं को कुछ हद तक प्रभावित कर पाया। क्या किसी महिला पहलवान में यह हिम्मत होगी कि वो चुनाव में पश्चिमी यूपी जाकर जाटों के जमीर को ललकारे। यह सिर्फ पश्चिमी यूपी की ही बात नहीं है, हरियाणा और राजस्थान के जाटों के जमीर को भी ललकारने की बात है। लेकिन इसका जवाब वक्त पर मिलेगा।
पिछले दस वर्षों में बीजेपी जाट समुदाय से कोई बड़ा नेता पार्टी के अंदर पैदा नहीं कर पाई है। साहिब सिंह वर्मा एक समय बीजेपी का जाट चेहरा थे, लेकिन उनके निधन के बाद न तो उनके बेटे प्रवेश वर्मा और न ही कोई अन्य नेता वह जगह बना सके। कोशिशें तो हुईं लेकिन सफल नहीं हो सकीं। ऐसे में भाजपा अब जयंत चौधरी को जाट नेता के रूप में ही पसंद कर रही है और उसी छवि का फायदा उठाना चाहती है। लेकिन क्या पश्चिमी यूपी के जाट और किसान जयंत चौधरी की आड़ में भाजपा को यह फायदा उठाने देंगे, क्योंकि जाटों और किसानों को इस सरकार से तमाम शिकायतें हैं।
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