शकील अहमद ख़ान की रिपोर्ट में साफ़ तौर पर कहा गया है कि ग़ुलाम नबी आज़ाद ही जम्मू-कश्मीर में लगभग मुर्दा हो चुकी कांग्रेस को दोबारा जिंदा कर सकते हैं। प्रदेश के नेताओं को भरोसा है कि आज़ाद के नेतृत्व में ही कांग्रेस दोबारा सत्ता में आ सकती है
उनकी रिपोर्ट पर फ़ैसला करते हुए आलाकमान ने आज़ाद को दोबारा जम्मू-कश्मीर की कमान सौंपने का बना लिया है। इस बारे में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी आज़ाद से बात कर चुके हैं। सूत्रों के मुताबिक़, फ़ैसला हो चुका है सिर्फ़ इसके एलान की देर है। इसके लिए आज़ाद की तरफ से हां करने का इंतजार किया जा रहा है। सूत्रों का दावा है कि इस बार जम्मू-कश्मीर जाने में आनाकानी नहीं करेंगे।
पीडीपी को टक्कर
दरअसल 2016 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और बीजेपी की मिलीजुली सरकार बनी थी। पहले मुफ़्ती मुहम्मद सईद मुख्यमंत्री, बने थे बाद में उनके देहांत के बाद महबूबा मुफ़्ती मुख्यमंत्री बनीं। लेकिन बीजेपी के साथ लगातार चलते वैचारिक टकराव की वजह से सरकार चल नहीं पाई। बीजेपी से समर्थन वापस ले लिया। उसके बाद की पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने मिलकर सरकार बनाने की कोशिश की तो बीजेपी ने विधानसभा भंग करा दी। राज्य में अब लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभा चुनाव भी होंगे। पिछले विधानसभा चुनावों में जम्मू और कश्मीर दोनों हिस्सों से कांग्रेस का लगभग सफ़ाया हो गया था। जम्मू में कांग्रेस का जनाधार छीनकर बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। कश्मीर घाटी में उसका जनाधार नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी ने हथिया लिया था। कांग्रेस की स्थानीय इकाई का मानना है कि अगर आज़ाद जम्मू-कश्मीर कांग्रेस की बागडोर संभालते हैं तो घाटी में पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस में गए अपने जनाधार को कांग्रेस वापस हासिल कर सकती है। वहीं जम्मू जम्मू क्षेत्र में पिछले चुनाव में बड़े बीजेपी के क़द को भी छोटा किया जा सकता है। ग़ुलाम नबी आज़ाद जम्मू के डोडा क्षेत्र के हैं।
कश्मीर में क़ामयाब आज़ाद
ग़ौरतलब है कि 2002 में विधानसभा चुनाव से करीब 6 महीने पहले आज़ाद को जम्मू-कश्मीर कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर भेजा गया था। उस समय आज़ाद मानसिक तौर पर यह ज़िम्मेदारी संभालने के लिए तैयार नहीं थे। लिहाज़ा, उन्होंने करीब 2 हफ़्ते आलाकमान के इस फ़ैसले पर चुप्पी साधे रखी थी। दो हफ़्ते बाद उन्होंने चुप्पी तोड़ते हुए जम्मू-कश्मीर जाने का फ़ैसला किया था। लेकिन साथ ही यह भी कहा था कि इससे पहले उन्होंने कभी सूबे की सियासत नहीं की है। लिहाज़ा उनसे बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं रखी जाए। इस मौक़े पर मेरे साथ खास बातचीत करते हुए ग़ुलाम नबी आज़ाद ने कहा था, 'अपनी पार्टी की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी का हुक़्म मानते हुए वह जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस को सत्ता में लाने के लिए अपनी पूरी ताक़त झोंक कर उनकी उम्मीदों पर खरा उतरने की पूरी कोशिश करेंगे। क्योंकि वक़्त कम है और उन्हें सूबे की सियासत का तज़ुर्बा नहीं है, उनसे बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं रखी जाए।' उस वक्त आज़ाद को आतंकवादी संगठनों की तरफ से ख़तरा भी था। उनके परिवार पर कई हमले हो चुके थे।
आज़ाद सूबे की सियासत में उतरे और 1996 के चुनाव में सिर्फ़ 6 सीटें जीतने वाली कांग्रेस कांग्रेस को सत्ता में लाकर ख़ुद को साबित किया और अपनी विरोध पार्टी में अपने विरोधियों को धूल चटा दी।
क्या इत्तेफ़ाक है!
सियासत में अगर इत्तेफ़ाक देखना हो तो उसके लिए ग़ुलाम नबी आज़ाद एक बेहतरीन मिसाल है। 2002 में जो आज़ाद को महासचिव पद से हटा कर पहली बार जम्मू-कश्मीर कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था, उस समय भी वह उत्तर प्रदेश के प्रभारी थे। अब जब 2019 में लोकसभा चुनाव के साथ होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले उन्हें जम्मू-कश्मीर भेजने की तैयारी है, वह उत्तर प्रदेश के प्रभारी महासचिव हैंं। 2002 में भी उनके प्रभारी रहते प्रदेश में कांग्रेस का बंटाधार हुआ था। उन्हीं के प्रभारी रहते 2017 में हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस दहाई का आंकड़ा भी नहीं छू पाई। हालांकि इससे पहले आज़ाद को जिन प्रदेशों की ज़िम्मेदारी मिली थी वहां वह कांग्रेस को सत्ता में लाने में कामयाब रहे थे। लेकिन उत्तर प्रदेश एक अपवाद रहा। साल 2002 में उनके उनके प्रभारी रहते कांग्रेस विधानसभा की सिर्फ 25 सीटें ही जीत पाई थी और साल 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में नेतृत्व में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के बावजूद कांग्रेस धारी का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई।
यूपी रास नहीं
कांग्रेस के कई नेताओं का मानना यह भी है कि उत्तर प्रदेश आज़ाद को रास नहीं आ रहा है। इसलिए वह उसमें ख़ास दिलचस्पी भी नहीं ले रहे। यही वजह है कि विधानसभा चुनाव के बाद से लेकर अब तक समाजवादी पार्टी के साथ लोकसभा चुनाव में गठबंधन को लेकर उन्होंने कोई कोई नीति नहीं बनाई और ना ही कोई दूसरा प्लान बनाया। हालांकि इधर पिछले कई महीने से ज़िलाध्यक्षों और मंडल अध्यक्षों के साथ मुलाकात करके कांग्रेस को फिर से जिंदा करने की कोशिशों में जुटे हैं।
सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस के शामिल नहीं होने से यह संदेश गया है कि आज़ाद ने इसके लिए ढंग से प्रयास नहीं किए। पार्टी के कई नेता आपसी बातचीत में खुल कर आज़ाद के ख़िलाफ़ बोल बोल रहे हैं।
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