कांग्रेस के लिए बिहार का विधानसभा चुनाव और कुछ राज्यों के उपचुनाव एक बड़ा मौक़ा था, जहां वह बेहतर प्रदर्शन कर अपने आलोचकों का मुंह बंद कर सकती थी। क्योंकि पार्टी में वरिष्ठ नेताओं की चिट्ठी के बाद मचा बवाल हो या आंतरिक चुनाव कराने की मांग को लेकर पार्टी नेताओं की बयानबाज़ी, यह कहा जाने लगा था कि चुनाव जीतना तो दूर, कांग्रेस अपने संगठन को ही दुरुस्त नहीं रख पा रही है।
ऐसे में बिहार के साथ ही मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में उसका प्रदर्शन कैसा रहेगा, इस पर राजनीतिक विश्लेषकों की निगाहें लगी हुई थीं। लेकिन नतीजे आने के बाद उसने उससे सशक्त विपक्ष बनने की उम्मीद लगाए बैठे लोगों को सिर्फ निराश ही किया है।
बिहार में फीका प्रदर्शन
बिहार के चुनाव में उसने महागठबंधन के साथ मिलकर 70 सीटों पर चुनाव लड़ा और वह सिर्फ 19 सीटों पर जीत हासिल कर पाई है। उसकी तुलना में वाम दलों ने शानदार प्रदर्शन किया, जो सिर्फ 29 सीटों पर लड़कर 16 सीटें महागठबंधन की झोली में डालने में सफल रहे। मतलब, कांग्रेस की हालत यह हो चुकी है कि उसकी तुलना अब ऐसे दलों से हो रही है, जिन्हें शायद ही ज़्यादा लोग जानते हों।
बिहार और कई राज्यों के उपचुनाव के नतीजों से दो बातें सामने आती हैं।
पहली बात बिहार के स्तर पर और दूसरी राष्ट्रीय स्तर पर। बिहार के स्तर वाली बात यह है कि नतीजों के बाद राजनीतिक विश्लेषकों का साफ कहना है कि कांग्रेस ने तेजस्वी यादव की लुटिया डुबो दी। उनके मुताबिक़, अगर कांग्रेस 15 सीटें और जीत जाती तो, आज बिहार में महागठबंधन सरकार बना रहा होता।
वास्तव में बिहार में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद ख़राब रहा है। 2015 के चुनाव में उसने 41 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे 27 सीटें मिली थीं। यह अच्छा प्रदर्शन था और चुनाव से पहले आरजेडी को उससे उम्मीद रही होगी कि वह इस बार भी ऐसा ही प्रदर्शन करेगी।
अब कहा जा रहा है कि कांग्रेस भले ही बिहार में 15 सीटें और नहीं जीती लेकिन उसे 50 ही सीटों पर लड़ना चाहिए था। क्योंकि बाकी बची 20 सीटों पर आरजेडी लड़ती तो वह निश्चित रूप से बीजेपी-जेडीयू की राह मुश्किल करती।
100 सीटें मांगी थीं
लेकिन चुनाव से पहले जब सीट बंटवारे की बात चल रही थी तो कांग्रेस 100 सीटों पर अड़ी हुई थी। उसका तर्क था कि महागठबंधन में पिछली बार जेडीयू भी थी और वह 101 सीटों पर लड़ी थी, क्योंकि इस बार वह नहीं है, इसलिए ये सीटें उसे मिलनी चाहिए।
तेजस्वी को हुआ नुक़सान
जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी के महागठबंधन को छोड़कर चले जाने के बाद शायद तेजस्वी यादव भी दबाव में आए होंगे और उन्होंने 70 सीटों के लिए हामी भर दी। लेकिन यह फ़ैसला उन्हें भारी पड़ा है। आरजेडी ने 144 सीटों पर चुनाव लड़कर 75 सीटों पर जीत हासिल की है और कई सीटों पर वह बेहद कम मतों के अंतर से हारी है। लेकिन दूसरी ओर कांग्रेस उन्हें बिलकुल भी सहारा नहीं दे सकी। जनाधारविहीन वाम दल तक 16 सीटें जीत लाए लेकिन राष्ट्रीय स्तर की पार्टी कांग्रेस का प्रदर्शन फीका रहा।
दूसरों के भरोसे है पार्टी
2015 में कांग्रेस आरजेडी, जेडीयू महागठबंधन के भरोसे चुनाव लड़ी थी, इस बार भी वह आरजेडी के साथ महागठबंधन में रहकर चुनाव लड़ी। नतीजे बताते हैं कि अगर उसे गठबंधन में जगह न मिले, तो वह शायद शून्य से आगे न बढ़ पाए। इसका मतलब साफ है कि बिहार में कांग्रेस संगठन की हालत बदतर है।
यूपी में नहीं मिली थी जगह
कांग्रेस को याद रखना चाहिए कि उसके बेहद पस्त सांगठनिक ढांचे की वजह से ही उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव से पहले बने बीएसपी, एसपी और आरएलडी के महागठबंधन में उसे जगह नहीं मिली थी। इसके बाद वह अकेले लड़ी लेकिन उसे सिर्फ एक सीट मिली और कांग्रेस की परंपरागत सीट अमेठी भी कांग्रेस गंवा बैठी।
अब दूसरी बात पर आते हैं। कांग्रेस के ऐसे प्रदर्शन के कारण तो राज्यों में क्षेत्रीय दल उसके साथ गठबंधन बनाना ही छोड़ देंगे। जिस पार्टी ने देश की आज़ादी के बाद कई वर्षों तक एकछत्र राज किया हो, आज उसकी हालत यह है कि वह गिने-चुने राज्यों में अपने दम पर सत्ता में है और महाराष्ट्र और झारखंड की सरकार में एक सहयोगी दल की भूमिका में अपनी सियासी इज्जत बचा रही है।
कांग्रेस के पास राज्यों में बड़े सहयोगी दलों के नाम पर आरजेडी के अलावा एनसीपी, डीएमके और जेडीएस बची है। बंगाल में वह तृणमूल कांग्रेस के, असम में एआईयूडीएफ़ के, यूपी में एसपी-आरएलडी के सहारे की बाट जोह रही है।
बिहार और कई राज्यों के उपचुनाव में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद पार्टी के भीतर एक बार फिर स्थायी अध्यक्ष के चयन का मसला जोर पकड़ सकता है।
स्थायी अध्यक्ष पर चुप है पार्टी
कांग्रेस डेढ़ साल से किसी तरह घिस-घिसकर चल रही है। प्रियंका और राहुल आम लोगों के मुद्दे सोशल मीडिया पर उठा रहे हैं लेकिन इतने भर से बीजेपी का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता।
प्रदेश, जिला, शहर, ब्लॉक कांग्रेस कमेटियों में काम कर रहे नेता स्थायी अध्यक्ष के मसले का हल चाहते हैं। शशि थरूर से लेकर कई नेता इस पर बोल चुके हैं लेकिन पार्टी कोई फ़ैसला ही नहीं ले पाती। वह चाहती है कि हाईकमान के ख़िलाफ़ कोई नेता आवाज़ न उठाए। हाल ही में ग़ुलाम नबी आज़ाद के पर कतरकर उसने यह संदेश दिया भी था।
लेकिन कांग्रेस को यह समझना होगा कि राज्यों में उसकी पस्त होती हालत उसे राष्ट्रीय राजनीति में बौना कर देगी। दूसरी ओर, बीजेपी तेजी से विजय अभियान की ओर बढ़ रही है। बिहार में उसने अपनी सीटों में जबरदस्त इज़ाफा किया है और अब वह बंगाल, असम, केरल के विजय अभियान पर निकल पड़ी है। इन तीनों ही राज्यों में अगले 6-7 महीनों में चुनाव होने हैं और यहां कांग्रेस दूसरे दलों के भरोसे है और वह ख़ुद चुनाव लड़ने की स्थिति में नहीं दिखती।
ऐसे में पार्टी को आगामी चुनौतियों के लिए कमर कसनी होगी वरना ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के रास्ते पर चल रही बीजेपी 2024 तक उसे जिन राज्यों में वह है, वहां से भी उसे उखाड़कर उसका राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा ख़त्म करने की जल्दी में है।
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