तेजस्वी यादव के तेज को सिर्फ़ चुनाव में हार जीत के परिप्रेक्ष्य में देखना एक बड़ी भूल होगी। इस चुनाव से जो सबसे बड़ी बात सामने आयी है वह यह कि तेजस्वी अपने पिता लालू प्रसाद यादव की विरासत को संभालने में सक्षम हैं और चुनाव की बिसात पर गठबंधन की रणनीति बनाने की समझ भी उनमें आ गयी है।
चुनौती स्वीकार
तेजस्वी ने
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे स्थापित नेतृत्व की चुनौती को स्वीकार किया और विधान सभा चुनाव के एजेंडा को बदल डाला। इस चुनाव में रोज़गार प्रमुख मुद्दा बना तो इसका श्रेय तेजस्वी को ही जाता है।
तेजस्वी इस महाभारत के अभिमन्यु की तरह लड़ रहे थे, जहाँ एक तरफ़ नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार और एक अन्य पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम माँझी जैसे महारथी थे तो दूसरी तरफ़ सिर्फ़ तेजस्वी।
उनके पुराने साथी उपेन्द्र कुशवाहा, उनके पिता के पुराने दुश्मन पप्पू यादव और सांप्रदायिक राजनीति के खिलाड़ी असदउद्दीन ओवैसी एक अलग मोर्चा खोलकर कर तेजस्वी पर चोट कर रहे थे।
जेपी युग का अंत
1990 के बाद बिहार की राजनीति तीन मूर्तियों के इर्द गिर्द घूम रही थी। लालू यादव,
नीतीश कुमार और रामविलास पासवान ने बिहार के सवर्ण नेतृत्व को खुली चुनौती देकर पिछड़ों और दलितों के नेतृत्व को स्थापित किया। साठ के दशक में समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने पिछड़ों और दलितों को सामाजिक और आर्थिक न्याय दिलाने के लिए राजनीति पर क़ब्ज़े की जो लड़ाई शुरू की थी उसके असली नायक बने लालू यादव।
1974 के छात्र आंदोलन ने बिहार और उत्तर प्रदेश में
समाजवादी विचारों के छात्र नेताओं की एक नई खेप तैयार की। लालू, नीतीश और पासवान राजनीति की इसी ज़मीन पर खड़े हुए। इस क़तार में सबसे आगे लालू थे, जो 1990 में मंडल आंदोलन की हवा पर सवार होकर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँच गए।
लालू सामाजिक न्याय के सबसे बड़े योद्धा के तौर पर भी उभरे। उन्होंने सामंती सोच में जकड़े जातिवादी बिहार में पिछड़ों और दलितों को स्वाभिमान दिलाया। लेकिन लालू का सामाजिक न्याय का संघर्ष खुले अपराध और भ्रष्टाचार के दलदल में धँस गया।
सामाजिक न्याय
अति- पिछड़ा और अति- दलित के लिए सामाजिक न्याय के नए नारे के साथ 2005 में नीतीश कुमार ने लालू को राजनीति के हाशिये पर धकेल दिया। लालू और पासवान दोनों के लिए नीतीश एक बड़ी चुनौती बन गए। राजनीतिक लाभ के लिए लालू, नीतीश और पासवान ने कई बार हाथ तो मिलाया, लेकिन उनका दिल कभी नहीं मिला। नीतीश तो लालू का पुत्र होने के कारण तेजस्वी को भी बर्दाश्त नहीं कर पाए। इसलिए 2015 में बनी उनकी साझा सरकार दो साल भी नहीं चल पायी। लालू अब जेल में हैं और रामविलास पासवान की मृत्यु हो चुकी है। लालू की विरासत संभालने के लिए तेजस्वी आगे आए और पासवान की राजनीतिक पूँजी उनके बेटे चिराग़ के पास गयी। इस चुनाव में तेजस्वी ने तो नीतीश को चुनौती दी ही, चिराग़ भी अपने पिता की राजनीतिक विरासत बचाने के लिए नीतीश के ख़िलाफ़ ताल ठोंक रहे थे।
व्यूह रचना
लालू यादव की ग़ैर मौजूदगी में यह तेजस्वी का दूसरा चुनाव था। 2019 में लोकसभा के चुनाव के साथ तेजस्वी ने स्वतंत्र रूप से चुनाव के गणित को समझना शुरू किया। इस चुनाव में उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (जेडीयू) और उनका गठबंधन बालाकोट के शोर में डूब गया।
चुनावी रणनीति की बात करें तो तेजस्वी ने जीतन राम माँझी, उपेन्द्र कुशवाहा, मुकेश सहनी के साथ कांग्रेस को लेकर एक ठोस व्यूह रचना की थी। इस चुनाव में माँझी, सहनी और कुशवाहा का साथ छूटा तो तेजस्वी ने वामपंथी दलों को जोड़कर एक नयी चुनौती खड़ी कर दी।
रोज़ी-रोटी
तेजस्वी ने रोटी और रोज़गार का नारा बुलंद किया तो नीतीश और मोदी जैसे महारथियों को लालू के जंगल राज का शंख फूंकना पड़ा। बीजेपी ने राम नाम जपना भी शुरू कर दिया। तेजस्वी ने पिता लालू के अच्छे बुरे से भी किनारा करने की कोशिश की।
अनुभवहीन नेता के विशेषण के साथ चुनाव अभियान शुरू करने वाले तेजस्वी ने चुनाव परिणाम से परे हट कर इतना तो साबित कर ही दिया कि नीतीश और बीजेपी के सामने नयी पीढ़ी के सबसे बड़े चैलेंजर वही हैं।
राजनीतिक भविष्य
बिहार के इस चुनाव में उभरे दो युवा नेताओं में एक चिराग़ पासवान महज़ नीतीश कुमार को हराने के इरादे से मैदान में आए थे और वो बस एक नकारात्मक भूमिका ही निभा पाए। जेडीयू की सीटें कम हो जाने से चिराग़ को दुख में सुख का अनुभव हो सकता है, लेकिन उनकी अपनी पार्टी सम्मानजनक जीत नहीं हासिल कर पायी। जबकि तेजस्वी भविष्य के नेता के तौर पर उभर चुके हैं। तेजस्वी का राजनीतिक भविष्य इस बात पर निर्भर होगा कि वह अपने पिता की छाया से कितनी दूरी बनाए रखते हैं और इस चुनाव में जिन मुद्दों को उठाया, उसको लेकर कितना संघर्ष करते हैं। रोटी और रोज़गार को लेकर संघर्ष ही तेजस्वी की हार को भविष्य की जीत में बदल सकता है।
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