शनिवार को हुई कांग्रेस की अहम बैठक के बाद पार्टी में संगठन स्तर पर बड़े फेरबदल की क़वायद शुरू हो गई है। कई प्रदेशों के अध्यक्ष बदले जाने की चर्चा है। ‘माउंट एवरेस्ट’ की तरह मुंह बाए खड़ी चुनौतियों से पार पाने के लिए कांग्रेस ने अब जल्द ही चिंतन शिविर बुलाने का फैसला किया है। इसमें 2014 के बाद चुनाव दर चुनाव हारने पर पार्टी चिंतन करेगी और जीत का रास्ता तलाशेगी।
बैठक के बाद महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पृथ्वीराज चव्हाण ने बताया था कि पार्टी की अंदरूनी कलह से निपटने के लिए पार्टी में बैठकों का सिलसिला बढ़ाया जाएगा और जल्द ही ‘शिमला’ और ‘पंचमढ़ी’ की तर्ज पर चिंतन शिविर भी होगा। कांग्रेस का ये शिविर कब और कहां होगा, ये अभी तय नहीं हैं।
दरअसल, कांग्रेस में पिछले कई साल से चिंतन शिविर बुलाए जाने की ज़रूरत महसूस की जा रही थी। कई नेताओं ने आलाकमान से इसकी मांग भी की थी। लेकिन आलाकमान के टालमटोल वाले रवैये के चलते इस मांग पर कभी ध्यान नहीं दिया गया।
शनिवार की बैठक में जब ये मामला उठा तो सोनिया और राहुल गांधी मना नहीं कर पाए। दरअसल, कांग्रेस में चिंतन शिविर के दौरान नेताओं के कैंप में ठहरने और दो-तीन दिन तक अलग-अलग मुद्दों पर खुली चर्चा की पंरपरा है। कई बार चिंतन शिविर कांग्रेस की दशा और दिशा बदलने में कारगर भी साबित हुए हैं।
शिमला का चिंतन शिविर
2003 में शिमला में हुए कांग्रेस के चिंतन शिविर में कांग्रेस ने केंद्र में गठबंधन की राजनीति को अपनाने का फ़ैसला किया था। इसी से 2004 में कांग्रेस की जीत का रास्ता खुला था। इसके बाद कांग्रेस ने दस साल तक गठबंधन की सरकार चलाई। 2014 में केंद्र की सत्ता से बाहर होने के बाद उसके हाथ से एक-एक कर सभी राज्य निकलते चले गए।
2018 में कांग्रेस ने तीन राज्यों में सत्ता में वापसी ज़रूर की लेकिन 15 महीने बाद ही भितरघात की वजह से उसे मध्य प्रदेश की सरकार गंवानी पड़ी। राजस्थान की सरकार भी जाते-जाते बची। इससे पहले कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन सरकार भी बीजेपी ने उससे छीन ली।
इंदिरा ने लगवाया पहला शिविर
कांग्रेस में इस तरह की बैठकों की परंपरा पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शुरू की थी। जयप्रकाश नारायण के बढ़ते प्रभाव के कारण कांग्रेस में ऐसे चिंतन की ज़रूरत महसूस हुई थी। उस समय पार्टी ने तय किया था कि तीन दिन तक पार्टी की चुनौतियों पर चर्चा होनी चाहिए। 1974 में 22 से 24 नवंबर तक पार्टी का पहला चिंतन शिविर यूपी के नरौरा (बुलंदशहर) में लगा था।
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री और पार्टी के क़द्दावर नेता हेमवती नंदन बहुगुणा को इस चिंतन शिविर की जिम्मेदारी दी थी। इसमें बड़े नेताओं को कैंप में रुकवाने का फैसला किया गया। यह पहला मौक़ा था जब कांग्रेस के तमाम दिग्गज नेताओं ने सर्दियों में तंबुओं में दो रातें गुज़ारी।
इस दौरान अलग-अलग कमेटियों ने अलग-अलग मुद्दों पर चर्चा करके सरकार और इंदिरा गांधी पर लगातार तेज़ होते जा रहे व्यक्तिगत हमलों की काट ढूंढने पर विचार-विमर्श किया था। नरौरा चितन शिविर में पार्टी ने ‘ब्रेन स्टर्मिंग सेशन’ के बाद संगठन की मजबूती के लिए 13 बिंदु तय किए थे।
ये अलग बात है कि तमाम चिंतन और मंथन के बावजूद इंदिरा सरकार की लोकप्रियता गिरती गई और विपक्ष हावी होता गया और आख़िरकार इंदिरा गांधी को आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी।
कांग्रेस में घमासान पर देखिए चर्चा-
'एकला चलो' की नीति
कांग्रेस का दूसरा चिंतन शिविर साल 1998 में पचमढ़ी में लगा था। तब कांग्रेस के सामने फिर नई चुनौती थी। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को ख़ुद को साबित करना था। पचमढ़ी में कांग्रेस ने 'एकला चलो' की नीति अपनाई। पचमढ़ी में पारित किए गए राजनीतिक प्रस्ताव में कहा गया था कि कांग्रेस देशभर में लोकसभा चुनाव तो अपने दम पर अकेले लड़ेगी। लेकिन पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और बिहार में स्थानीय राज्य स्तरीय पार्टियों के साथ सम्मानजनक गठबंधन करके विधानसभा चुनाव लड़ेगी और खुद को इन राज्यों में मज़बूत करेगी। इन राज्यों में कांग्रेस कितनी मज़बूत हुई है, सबको पता है।
कांग्रेस का तीसरा चिंतन शिविर 2003 में शिमला में हुआ था। ये अब तक का सबसे अहम शिविर माना जाता है। दरअसल, इसी चिंतन शिविर में कांगेस ने 'एकला चलो' की नीति छोड़कर गठबंधन राजनीति की राह पकड़ी थी।
2004 में की सत्ता में वापसी
1996 में केंद्र की सत्ता से बाहर होने के बाद जब कांग्रेस 1998 और 1999 के चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई तो कांग्रेस के नेताओं में सत्ता में वापसी की छटपटाहट बढ़ने लगी थी। 1998 में गठबंधन के सहारे प्रधानमंत्री बनने के बाद 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी और मज़बूत होकर उभरे थे। उस समय कांग्रेसियों को लगने लगा था कि अब अगर कांग्रेस ने गठबंधन राजनीति को नहीं अपनाया तो पार्टी कभी सत्ता में वापसी नहीं कर पाएगी। लिहाज़ा कांग्रेस ने नीति बदली और 2004 में सत्ता में वापसी की।
चिंतन शिविर से पार्टी को फ़ौरी तौर पर भले ही फ़ायदा न हुआ हो लेकिन इसके दूरगामी परिणाम उसके हक़ में रहे हैं। सच्चाई ये है कि 2003 के बाद कांग्रेस में कोई प्रभावी चिंतन शिविर नहीं हुआ है।
जयपुर का चिंतन शिविर
यूं तो जनवरी 2013 में जयपुर में चिंतन शिविर हुआ था। लेकिन इसमें चिंतन कम और नेहरू-गांधी परिवार की चापलूसी ज़्यादा हुई थी। इस बात पर चर्चा ही नहीं हुई थी कि दस साल की सत्ता विरोधी लहर को कैसे निष्प्रभावी बनाया जाए। न ही इस बात पर चर्चा हुई कि देश में चारों तरफ़ उठ रही मोदी नाम की गूंज को कैसे रोका जाए।
जयपुर में चिंतन के नाम पर एकमात्र फ़ैसला राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाने का हुआ था। 2017 में उत्तर प्रदेश और गुजरात के विधानसभा चुनाव से पहले राज्यस्तरीय चिंतन शिविर लगे थे। लेकिन दोनों का ही नतीजा ‘ढाक के तीन पात’ रहा।
कांग्रेस के इन चिंतन शिविरों में जिस तरह सोनिया और राहुल के क़सीदे पढ़े गए उनसे पार्टी को कुछ हासिल नहीं हुआ है। अब पार्टी में प्रियंका गांधी भी जयकारे लगवाने के लिए बतौर महासचिव मौजूद हैं। अगर शीर्ष नेताओं के जयकारे लगाना ही चिंतन है तो फिर यक़ीन मानिए कि कांग्रेस के प्रस्तावित चिंतन शिविर से जीत का रास्ता निकलने की उम्मीद भी कम ही है।
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