प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्थापित होने के बाद भारत की राजनीति में काफी कुछ बदल गया है। कांग्रेस भी अब उसी राह पर चल रही है, जिस पर चलकर बीजेपी सत्ता के शिखर पर पहुंची है। पार्टी के पुराने नेता धकियाये जा रहे हैं और बीजेपी से निकलकर कांग्रेस में आए नेता पार्टी में प्रमुख स्थान लेते जा रहे हैं। पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू को स्थापित करना इसका सबसे ताजा उदाहरण है।
पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह ने राज्य में कांग्रेस की राजनीति मजबूत की है। पंजाब के किसानों का आंदोलन बीजेपी को लगातार असहज किए हुए है। स्थिति यहां तक आई कि सितंबर 2020 में पंजाब की प्रमुख राजनीतिक ताकत अकाली दल ने बीजेपी से 22 साल पुरानी दोस्ती छोड़ दी।
स्वाभाविक रूप से किसान आंदोलन इस स्तर पर पहुंच गया है कि अकाली दल ने अपना अस्तित्व बचाने के लिए बीजेपी का दामन छोड़ देने में ही भलाई समझी। राज्य में अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस मजबूत बनी हुई है और वहां विपक्ष करीब करीब नदारद है।
कैप्टन की सुनवाई नहीं
इसके बावजूद कांग्रेस ने सिद्धू के विरोध को बहुत ज्यादा तवज्जो दी। कैप्टन ने अपने समर्थक सांसदों की बैठक कराई। अपने करीबी लोगों से बयान दिलवाए कि सोशल मीडिया पर सिद्धू ने जो लिखा, उसके लिए माफी मांगें।
कैप्टन ने अपने विरोधी रहे प्रताप सिंह बाजवा को अध्यक्ष बनाए जाने की बात चलाई, हिंदू और दलित अध्यक्ष बनाए जाने की चर्चा चलवाई, लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। आखिरकार क्रिकेटर से बीजेपी में शामिल होकर राजनेता बने सिद्धू की जीत हुई और सोनिया गांधी ने उन्हें पार्टी अध्यक्ष नियुक्त कर दिया।
दल बदलते रहे सिद्धू
2016 में पार्टी छोड़ने के पहले सिद्धू 13 साल तक बीजेपी को अपनी सेवाएं दे चुके थे। दो बार सांसद रहने के बाद उन्होंने 2014 में अरुण जेटली के लिए अपनी लोकसभा सीट छोड़ दी। इन तमाम कुर्बानियों और लंबी वफादारी के बावजूद बीजेपी ने उन्हें राज्यसभा की सदस्यता देने से ऊपर का नेता नहीं समझा था, तब उन्होंने आम आदमी पार्टी में आने के चक्कर में पाला बदला।
हालांकि उन्हें आम आदमी पार्टी में जगह नहीं मिल सकी और वह कांग्रेसी बन गए और महज 4 साल में कांग्रेस ने उन्हें पंजाब का अध्यक्ष बना दिया।
एबीवीपी के पूर्व नेता बने अध्यक्ष
कांग्रेस ने आंध्र प्रदेश की अपनी पूरी राजनीति बर्बाद कर दी। वाईएस जगन मोहन रेड्डी को पार्टी छोड़नी पड़ी और अलग राज्य तेलंगाना के गठन के बावजूद वह कांग्रेस के चंद्रशेखर राव को अपने पाले में नहीं कर सकी। उसके सारे दांव चित पड़ते गए। आखिरकार अनुमुला रेवंत रेड्डी को कांग्रेस ने तेलंगाना राज्य का अध्यक्ष बना दिया।
मलकाजगिरि लोकसभा क्षेत्र से सांसद रेवंत रेड्डी छात्र जीवन से ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) से जुड़े रहे और उन्होंने बीजेपी की राजनीति की। 2017 में वह कांग्रेस में आए और वह भी महज 4 साल की कांग्रेस राजनीति में पार्टी के अध्यक्ष बना दिए गए।
पटोले को बनाया अध्यक्ष
नाना पटोले महाराष्ट्र में बीजेपी के बड़े नेता थे। 2014 में बीजेपी के सांसद भी थे, जिन्होंने कांग्रेस के दिग्गज नेता और केंद्रीय मंत्री प्रफुल्ल पटेल को हराया था। उन्होंने 2017 में बीजेपी से इस्तीफा दे दिया और 2018 में कांग्रेस में शामिल हो गए। महाराष्ट्र प्रदेश अध्यक्ष बनने के लिए पटोले को कांग्रेस में महज 3 साल मेहनत करनी पड़ी।
तेलंगाना में कांग्रेस हाशिये पर है। महाराष्ट्र सरकार में सहयोगी की भूमिका में है। वहीं, पंजाब में कांग्रेस को सबसे मजबूत स्थिति में देखा जा रहा है। इसके बावजूद पार्टी ने अमरिंदर सिंह के पर कतर दिए।
विचारधारा से मतलब नहीं?
राहुल गांधी भले ही एबीवीपी, बीजेपी और आरएसएस को राजनीतिक जहर साबित करने में लगे रहते हैं, लेकिन महाराष्ट्र, तेलंगाना और उसके बाद अब पंजाब में आरएसएस-बीजेपी से आए लोगों को कमान सौंप दी गई। इसके पीछे गांधी परिवार की मंशा कांग्रेस पर मजबूत पकड़ बनाए रखने की ही नजर आ रही है, पार्टी को भले ही इसका नुक़सान हो जाए। इसका विचारधारा से भी कोई मतलब नहीं है।
सिर्फ एक ही वजह प्रभावी नजर आती है, गांधी परिवार (राहुल और प्रियंका) के प्रति वफादारी। पार्टी अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी ने सिद्धू की नियुक्ति को हरी झंडी देकर स्थिति साफ कर दी है कि वह राहुल और प्रियंका को ही पार्टी का उत्तराधिकार सौंपने जा रही हैं।
आडवाणी, जोशी दरकिनार
2014 के लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी को अपने हाथ में लेने के बाद मोदी ने सत्ता में बने रहने के लिए यही हथकंडे अपनाए थे। उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गज नेताओं की राजनीतिक पारी का खात्मा कर दिया। इतना ही नहीं, छोटे स्तर पर भी जो नेता कभी आडवाणी या जोशी के वफादार माने जाते थे, उन्हें धकिया दिया गया।
उनकी तुलना में कांग्रेस या दूसरे दलों से आए लोगों और ब्यूरोक्रेट्स को महत्वपूर्ण जगह दी गई। जनता के बीच यह स्थापित किया गया कि देश में नरेंद्र मोदी के अलावा कोई नेता नहीं है, चाहे बीजेपी हो या कोई दल।
कुछ उसी दिशा में कांग्रेस भी बढ़ती नजर आ रही है और राहुल-प्रियंका की कांग्रेस की कवायद है कि पार्टी को चाहे जितना नुकसान उठाना पड़े, सिर्फ उन्हीं नेताओं को तरजीह देनी है, जो उनके प्रति वफादार हों। राज्यों में इस तरह के कई वफादार तैयार किए जाएं, चाहे वह पार्टी के भीतर के हों या बाहर से आए हुए लोग हों।
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