कैलिफोर्निया डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने एलिजाबेथ होम्स को 11 साल से अधिक की सजा सुनाई है। एलिजाबेथ होम्स ने 19 साल की उम्र में स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर 2003 में ‘थेरानोस’ नाम की कंपनी बनाई। इस कंपनी का दावा था कि उनके पास ऐसी तकनीक है जिससे रक्त की कुछ बूंदों से ही बीमारी का पता लगाया जा सकेगा। लेकिन उनका दावा पूरी तरह झूठा निकला। थेरानोस कंपनी ने दावा किया कि उनके पास ‘एडीसन’ नाम की मशीन है जोकि एक रक्त परीक्षण (ब्लड टेस्टिंग) मशीन थी जो रक्त की कुछ बूंदे इस्तेमाल करके कैंसर,मधुमेह(डायबिटीज) और अन्य बीमार स्थितियों का पता लगा सकती है।
जब देश और दुनिया में कोरोना से होने वाली मौतों का बवंडर थमने का नाम नहीं ले रहा था, पूरी दुनिया वैक्सीन बनाने में लगी हुई थी। अरबों डॉलर रीसर्च पर खर्च हो रहे थे तब रामदेव ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके दावा किया कि “कोरोना की दवाई, पतंजलि ने बनाई”। मंच पर दो केन्द्रीय मंत्री बैठे थे जिसमें से एक तो कोरोना काल में काफी समय तक भारत के स्वास्थ्य मंत्री भी रहे थे। तो दूसरे मंत्री वह थे जिन्हे ‘बहुत काम करने वाला’ और ‘प्रगतिशील’ माना जाता है। इस दवा को तत्काल प्रभाव से महाराष्ट्र सरकार ने प्रतिबंधित कर और मद्रास उच्च न्यायालय ने फर्म पर 10 लाख रुपये का जुर्माना लगा दिया। लेकिन दवा की बिक्री होती रही।
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पतंजलि कंपनी ने भारतीयों के ‘डर’ और ‘विश्वास’ का फायदा उठाया और जो दवा उत्तराखंड के आयुष विभाग द्वारा सिर्फ ‘सहायक उपचार’ के रूप में उद्धृत की गई थी उसे ‘कोरोना की दवाई’ के रूप में प्रचारित किया गया। एक झूठ पर कंपनी करोड़ों कमा चुकी थी लेकिन न सरकार को कोई फिक्र थी न ही कोर्ट को।
2022 की शुरुआत में भी रामदेव की पतंजलि आयुर्वेद ने ऐसे ही विज्ञापन छपवाए थे। जिसमें छपी दवाओं के लिए यह दावा किया गया था कि यह मधुमेह का इलाज करती हैं, कोलेस्ट्रॉल को कम करती हैं और फैटी लीवर और लीवर सिरोसिस जैसी स्थितियों में "तुरंत लाभ" प्रदान करती हैं। कानून की धज्जियां उड़ाने वाले इन विज्ञापनों पर तत्काल रोक लगाने और पतंजलि आयुर्वेद कंपनी को यह बात याद दिलाने की जरूरत थी कि यह देश कानून से चलता है और कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं किया गया।
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देश का काला धन वापस लाने का दावा करने वाला दल इन दिनों सत्ता में है लेकिन झूठी सूचना और देश के कानून को तोड़कर झूठ से पैसा बनाने वालों को सबक सिखाने का साहस उनमें नहीं है।
ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स रूल्स, 1945 के नियम 106 - जिसे ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940 के माध्यम से स्थापित किया गया था – किसी दवा द्वारा, अनुसूची-J में उल्लिखित किसी भी बीमारी को रोकने या ठीक करने का का दावा करने से रोकता है। इस अनुसूची में मधुमेह (14वें नंबर) और लीवर संबंधी विकार(33वें नंबर) पर दिए गए हैं इसके बावजूद रामदेव और उनकी कंपनी इसे ठीक करने का दावा करने से बाज नहीं आ रही है।
झूठे विज्ञापनों से लड़ने के लिए ही ‘स्वास्थ्य पर संसदीय स्थायी समिति’ के सुझाव पर 2018 में आयुष मंत्रालय द्वारा ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स रूल्स, 1945 में नये नियम-170को जोड़ा गया था। यह विशेष प्रावधान यह स्पष्ट करता है कि "आयुर्वेदिक, सिद्ध या यूनानी दवाओं के निर्माता या उनके एजेंट, निदान, इलाज, शमन, उपचार या रोकथाम के उपयोग के लिए किसी भी दवा से संबंधित किसी भी विज्ञापन के प्रकाशन में भाग नहीं लेंगे।"
इसके अतिरिक्त ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम, 1954की धारा 3 "अनुसूची में निर्दिष्ट किसी भी बीमारी, विकार या स्थिति के निदान, इलाज, शमन, उपचार या रोकथाम" के लिए विज्ञापनों के प्रकाशन पर रोक लगाती है। इस कानून की अनुसूची में "डायबिटीज़" (नंबर 9) और "हृदय रोग" (नंबर 26) शामिल हैं। इसके बावजूद रामदेव और पूरा पतंजलि आयुर्वेद हाइपर्टेन्शन, ब्लड प्रेशर और डायबिटीज़ के सफल इलाज का दावा करके न सिर्फ कानून का उल्लंघन कर रहे हैं बल्कि जनता को गुमराह भी कर रहे हैं।
मुझे नहीं लगता कि उन्हे नहीं मालूम होगा कि इस कानून के तहत गैरकानूनी विज्ञापन प्रकाशित करने पर छह महीने की जेल और/या एक अघोषित वित्तीय जुर्माना है। जबकि इसी अपराध के लिए दूसरी बार दोषी पाए जाने पर एक साल की कैद का भी प्रावधान है। ऐसा नहीं है कि भारत की सभी संस्थाएं खामोश बैठी हैं। समय समय पर संस्थाओं द्वारा समुचित विरोध किया जाता है लेकिन कानून बनाने की जिम्मेदारी लेकर बैठे लोगों द्वारा ही जब कानून तोड़ने वालों को प्रश्रय मिलेगा तब संस्थाओं की भूमिका सीमित हो जाएगी, और यही हो भी रहा है। 2016 में भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (ASCI) ने रामदेव की पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड को "झूठे और भ्रामक" विज्ञापनों के लिए फटकार लगाई थी, लेकिन उस पर सरकार द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गई।
10 जुलाई को देश के सभी बड़े हिन्दी अंग्रेजी अखबारों में पतंजलि आयुर्वेद की तरफ से एक विज्ञापन छापा गया। इस विज्ञापन का दावा था कि मॉडर्न मेडिकल साइंस अर्थात एलोपैथी और फार्मा कंपनियां भ्रम फैला रही हैं। दावा इस बात का भी था कि आयुर्वेद विशेषतया पतंजलि आयुर्वेद के पास ‘जेनेटिक बीमारियों’, ‘बांझपन’ ‘यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फेक्शन’(UTI), ‘हार्ट ब्लॉकेज’ जैसी बीमारियों का ‘स्थायी’ इलाज उपलब्ध है। जब इस भ्रामक विज्ञापन के खिलाफ सरकार ने कुछ नहीं किया तब अगस्त 2022 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार से कहा कि वह रामदेव द्वारा एलोपैथी पद्धति और इससे संबंधित डॉक्टर्स के बारे में की जा रही टिप्पणियों पर रोक लगाए।
इसी मामले पर भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश एन वी रमना ने पतंजलि आयुर्वेद से यह भी पूछा कि क्या गारंटी है कि आयुर्वेद या वह जिस भी प्रणाली का पालन कर रहे हैं, वह सभी बीमारियों को ठीक कर देगी?पतंजलि आयुर्वेद के पास कोई जवाब नहीं था। कोई रिसर्च नहीं की गई, किसी शोधपत्र में इससे संबंधित कुछ नहीं छपा, कोई भी वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं इसके बावजूद जो मन में आया बोल दिया, जहां मन में आया छपवा दिया, जिसको मन आया खराब और शोषण करने वाला घोषित कर दिया।
वो भूल गए कि भले ही कॉरोनिल के बहाने उन्होंने करोड़ों कमाए हों लेकिन कोरोना काल के पहले साल में कोरोना की वैक्सीन ने दुनिया भर में 2 करोड़ लोगों की जान बचाई, पोलियो की वैक्सीन अब तक करोड़ों बच्चों को लकवे से बचा चुकी है, हर रोज हजारों लोगों को डॉक्टर्स बाइपास सर्जरी द्वारा जीवन प्रदान कर रहे हैं, स्वयं भारत सरकार करोड़ों रुपये की जीवन रक्षक दवाएं सस्ते दामों में भारतीय नागरिकों को उपलब्ध करवा रही है ताकि ज्यादा से ज्यादा जिंदगियाँ बचाई जा सकें।
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रामदेव का स्वतंत्र ‘विचार’ लोकतंत्र के लिए अच्छा हो सकता है लेकिन हर साल नई बीमारियों से जूझ रहे स्वास्थ्य के पारितन्त्र के लिए तो बिल्कुल नहीं।
मुझे एलिजाबेथ होम्स और बाबा रामदेव के दावों और तरीकों में कोई खास भेद नहीं समझ आता। अगर फिर भी अंतर निकालना ही हो तो कहना चाहिए कि एलिजाबेथ होम्स एक विश्वस्तरीय यूनिवर्सिटी से पढ़ी लिखी होनहार, महत्वाकांक्षी महिला हैं जिन्होंने अपनी महत्वाकांक्षा को दावों के माध्यम से धोखे की ओर मोड़ दिया जिसका खामियाजा उन्हे 11 साल की कैद से चुकाना पड़ेगा क्योंकि शायद अमेरिका में लोगों के स्वास्थ्य से खेलना, उन्हे धोखा देना सहज अपराध नहीं है। लेकिन रामदेव के मामले में ‘विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय’, ‘पढ़-लिखा’ जैसे शब्दों के मायने कुछ नहीं है। अगर कुछ है तो बस महत्वाकांक्षा, दावे और झूठ की दास्तान है जिसमें साक्ष्यों का अभाव है, जो तर्क और विज्ञान के साथ-साथ लोगों के स्वास्थ्य को भी खा रहा है। जिसे रोके जाने की आवश्यकता है।
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आज 2006 जैसा वक्त नहीं है। तकनीक के उभार के कारण सूचना का विस्फोट हो चुका है। एक सूचना को करोड़ों लोगों तक पहुँचने में मिनटों का समय लगता है। और अगर ऐसे समय स्वास्थ्य से संबंधित कोई सूचना, जो वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित नहीं है, फैलती है तो लाखों करोड़ों लोगों के स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचा सकती है। ऐसी सूचना भारत के संविधान के अनुच्छेद-21, जीवन के अधिकार, का अतिक्रमण करती है।
ऐसी सूचना से बचाव का दायित्व न सिर्फ सरकारों का है बल्कि यह भारत के सर्वोच्च न्यायालय की जिम्मेदारी है कि जो संस्थाएं/संगठन/कंपनियां ऐसी सूचनाएं जानबूझकर या अनजाने में फैलाती हैं उन्हे एलिजाबेथ होम्स की तरह जेल में भेजने का प्रबंध होना चाहिए साथ ही जुर्माना इतना अधिक हो कि कोई भी भारत के कानूनों और भारतीयों के स्वास्थ्य से खेल न सके, भले ही उसे देश के सर्वोच्च राजनैतिक पद का समर्थन ही क्यों न प्राप्त हो। क्योंकि यही ‘कानून का राज’ है। इसी की कल्पना देश के निर्माताओं ने की थी।
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