बिहार चुनाव में बदलाव की बयार के बरक्स चुनाव नतीजे आश्चर्यजनक रहे हैं। महागठबंधन की 110 सीटों के मुक़ाबले एनडीए ने 125 सीटों पर जीत दर्ज की है। एनडीए की जीत पर तेजस्वी यादव ने चुनाव आयोग की भूमिका को कटघरे में खड़ा किया है। तेजस्वी यादव ने आरोप लगाया है कि नजदीकी अंतर वाली बीस सीटों पर महागठबंधन के प्रत्याशियों को प्रशासन की मिलीभगत से हराया गया है। चुनाव आयोग से उन्होंने इन सीटों पर फिर से मतगणना कराने की माँग की है। हालाँकि, आज के हालातों में ऐसा नहीं लगता कि चुनाव आयोग तेजस्वी यादव की माँग को स्वीकार करेगा। लेकिन यह निश्चित है कि इस चुनाव का भारतीय राजनीति पर दीर्घकालीन असर होगा। इसलिए इस चुनाव के मायने समझने होंगे।
वामदलों का उभार भी इस चुनाव का महत्वपूर्ण पहलू है। सीपीआई (माले), सीपीआई और सीपीएम तीनों कम्युनिस्ट पार्टियाँ महागठबंधन में शामिल थीं। 2015 में केवल 3 सीटें जीतने वाली कम्युनिस्ट पार्टियों ने कुल 29 सीटों पर चुनाव लड़ा और 16 पर जीत हासिल की। इनमें सबसे अच्छा प्रदर्शन माले का रहा। माले ने 16 सीटों में से 12 पर जीत हासिल की। माले ने इस चुनाव में दलित और पिछड़े नौजवानों को तरजीह दी। जातिगत समीकरणों को ठीक से समझते हुए माले के नेताओं ने ज़मीन पर मेहनत की। राजद के समर्थन का भी उसे फायदा मिला। बंगाल से सीमा साझा करने वाले बिहार में आज़ादी के बाद से ही कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट आंदोलन का प्रभाव रहा है। लेकिन बिहार में वामपंथी राजनीति का विशेष उभार नहीं हो सका।
80 और 90 के दशक में जब लालू प्रसाद यादव पिछड़ी जातियों और पसमांदा मुसलमानों को जोड़कर आगे बढ़े, उस समय भी कम्युनिस्ट पार्टियों ने जाति को तवज्जो न देकर मज़दूर और किसान आधारित वर्ग की राजनीति को ही आगे बढ़ाया। हिन्दुत्व के उभार के साथ अगड़ी जातियाँ बीजेपी के साथ चली गईं। परिणामस्वरूप वामपंथी राजनीति आधारविहीन हो गई। लेकिन इस चुनाव में माले ने पिछड़ी जातियों के नौजवानों को आगे करके चुनाव लड़ा और जीता। इस दौर में वामपंथी दलों की जीत ज़्यादा मायने रखती है।
पिछले 6 साल में बीजेपी की सत्ता और आरएसएस खुलकर वामपंथ पर हमलावर हैं। इस पूरी वैचारिकी को सुनियोजित तरीक़े से बदनाम किया गया। वामपंथियों को नक्सलवादी और विदेशी विचारधारा का पोषक घोषित किया गया। वामपंथ समर्थक बुद्धिजीवियों को अर्बन नक्सल कहा गया।
हिंसक हिन्दूवादी संगठनों द्वारा एम. एम. कलबुर्गी, नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पानसरे और गौरी लंकेश की हत्या की गई। बीजेपी समर्थकों ने इन हत्याओं को न्यायसंगत ही नहीं ठहराया बल्कि जश्न भी मनाया। कवि वरवर राव, आनंद तेलतुंबड़े, गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज, जी. एन. साईंबाबा, फादर स्टेन स्वामी जैसे कई प्रख्यात बुद्धिजीवियों पर यूएपीए और सीडीशन जैसी संगीन धाराएँ लगाकर जेल में डाल दिया गया। बीजेपी का आईटी सेल और आरएसएस द्वारा वामपंथियों को हिंसक, हिन्दू विरोधी और देशद्रोही तक घोषित किया गया है। जेएनयू पर लगातार हमला होना इसका हिस्सा है।
बिहार चुनाव की एक स्थाई महत्ता है। इस चुनाव में बीजेपी का सांप्रदायिक एजेंडा नहीं चल सका। हालाँकि इसकी भरपूर कोशिश हुई। सांप्रदायिक एजेंडे के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लगाया गया था। उन्होंने धारा 370 और राम मंदिर के मुद्दों पर बात की। लेकिन सीमांचल में योगी आदित्यनाथ द्वारा घुसपैठियों को बाहर निकालने की हुंकार को नीतीश कुमार ने ही 'फालतू बात' कहकर खारिज कर दिया। चुनाव प्रचार के पहले दौर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंकवाद का मुद्दा उठाया। सैनिकों की शहादत को उन्होंने मुद्दा बनाना चाहा। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले 14 फ़रवरी 2019 को पुलवामा में 44 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे। इन शहीदों में दो बिहार के सैनिक शामिल थे। बिहार के शहीदों के नाम पर नरेंद्र मोदी ने वोट मांगने की कोशिश की। लेकिन जनमानस पर इन मुद्दों का कोई असर नहीं हुआ। इसलिए नरेन्द्र मोदी ने इन मुद्दों को छोड़ दिया।
हमेशा की तरह इस चुनाव में भी पाकिस्तान आया। लेकिन इस बार थोड़े जुदा अंदाज़ में। पुलवामा में हुए हमले का ज़िक्र करते हुए इमरान सरकार के एक मंत्री फवाद चौधरी ने इसे पाकिस्तान सरकार और कौम की कामयाबी बताया। विरोधियों ने इसकी टाइमिंग को लेकर शंका जाहिर करते हुए बीजेपी पर सवाल उठाए। क्या पाकिस्तान के साथ बीजेपी नेताओं की कोई साँठगाँठ है? क्या बिहार चुनाव में फायदा पहुँचाने के लिए यह बयान दिलवाया गया है? अथवा यह महज इत्तिफ़ाक़ है? यह सवाल बराबर बना रहेगा।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि बिहार चुनाव में बीजेपी का हिंदुत्व का मुद्दा हावी नहीं हो सका। तब नरेंद्र मोदी ने इसके विपरीत जाकर एक रैली में पूछा, क्या एनआरसी-सीएए से किसी की नागरिकता ख़त्म हुई?
बीजेपी चुनावी रणनीति में कई स्तरों पर काम करती है। हिन्दुत्व उसका स्थाई चुनावी मुद्दा ही नहीं, बल्कि उसकी विचारधारा है। प्राथमिक एजेंडा है। बीजेपी का लक्ष्य है, हिन्दू राष्ट्र। बहुमत आधारित संसदीय लोकतंत्र में बीजेपी और संघ हिंदू राष्ट्र के एजेंडे को अपना दायित्व ही नहीं बल्कि अधिकार भी समझते हैं। लोकतंत्र का मतलब उनके लिए सिर्फ़ बहुमत है। जबकि लोकतंत्र का असली मक़सद कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति की रायशुमारी है। लोकतंत्र में अंतिम व्यक्ति का भी उतना ही महत्व है जितना बहुमत का। लेकिन संघ और बीजेपी के लिए लोकतंत्र का मतलब सिर्फ़ बहुमत है। बहुमत उनके लिए सत्ता प्राप्त करने का महज एक हथियार है। बीजेपी और संघ विशेषकर कांग्रेस पर मुसलिम तुष्टीकरण का आरोप लगाते हैं। उनका आरोप है कि कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राजद जैसे दलों ने सेकुलरिज्म के नाम पर मुसलमानों का तुष्टीकरण किया है।
लेकिन संघ और बीजेपी ने दलित, आदिवासियों और पिछड़ों पर आधारित राजनीति को यानी सामाजिक न्याय के प्रश्न को सीधे तौर पर कभी खारिज नहीं किया। हिंदुत्व के भीतर इन समुदायों की क्या हैसियत है, यह किसी से छिपा नहीं है। आरएसएस स्त्रियों के प्रति आज भी संकीर्ण और असंवेदनशील है। मोहन भागवत सिर्फ़ आरक्षण की समीक्षा की ही बात नहीं करते बल्कि वे खुले तौर पर स्त्री विरोधी बयान देते हैं। उनका यह वक्तव्य ग़ौरतलब है कि पत्नी अगर पति की सेवा ना करे तो पति उसे त्याग सकता है।
यह दरअसल, मनुस्मृति के विधान का 21वीं सदी वाला संस्करण है। गनीमत है कि उन्होंने ऐसी स्त्री को शारीरिक दंड देने की बात नहीं कही। इन सब विसंगतियों के बावजूद संघ हिन्दू बहुमत के साथ होने वाले अन्याय का नैरेटिव गढ़ने में सफल हुआ है। इस नैरेटिव से ध्रुवीकरण करके चुनाव में सफलता भी मिली है। जबकि बहुमत के नैरेटिव की सच्चाई कुछ और है। 1966 में भारत में फ्रांस के राजदूत ने एक लेखक से बातचीत में कहा था कि अगर भारत का लोकतंत्र सफल होता है तो यहाँ बहुजनों की सत्ता स्थापित होगी क्योंकि इनका बहुमत है। जाहिर तौर पर बहुमत के आधार पर सत्ता दलित और पिछड़ों के पास होनी चाहिए।
सामाजिक न्याय का सवाल राजनीति के केंद्र में होना चाहिए। लेकिन बीजेपी और संघ के हिंदुत्व में सामाजिक न्याय का सवाल नहीं होता बल्कि पारंपरिक सामाजिक सत्ता को बरकरार रखने की चिंता होती है। इस सामाजिक सत्ता में सवर्णवाद के साथ पितृसत्तात्मक व्यवस्था भी शामिल है।
चुनाव में जब हिंदुत्व का मुद्दा नहीं चलता है तब बीजेपी-संघ कथित जातिवाद की राजनीति का मुद्दा सामने लाते हैं। जातिवाद की राजनीति का सच क्या है? दरअसल, यह 80 और 90 के दशक में दलित और पिछड़ों के उभार वाली राजनीति है। इसे मंडल की राजनीति भी कहा जाता है। विदित है कि मंडल की राजनीति में नेतृत्व पिछड़ी जाति के नेताओं के पास था। सामाजिक न्याय की दूसरी किस्त में बी. पी. मंडल आयोग की अनुशंसा को वी. पी. सिंह सरकार द्वारा लागू किया गया। पिछड़ों को मिलने वाले आरक्षण के अधिकार को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।
सरकार बनाम इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पिछड़ों के 27 फ़ीसदी आरक्षण को न्यायसम्मत मानते हुए आरक्षण की सीमा 50 फ़ीसदी तय कर दी। आरक्षण से प्राप्त विशेष अवसर का लाभ उठाकर पिछड़ी जातियाँ मज़बूत हुईं। उनमें जातिगत चेतना और शोषण के प्रति रोष भी पैदा हुआ। इससे सदियों से अनवरत स्थापित सामाजिक सत्ता को चुनौती मिली।
सरकारी नौकरियों में पिछड़ों की बढ़ती भागीदारी का एक सच यह भी है कि हाशिए की कमज़ोर जातियों को इसका विशेष लाभ नहीं मिला। मज़दूरी, दस्तकारी और पशुपालन पर जीवन गुजारा करने वाली छोटी जातियों को पेट भरना भी मुश्किल था। जबकि आरक्षण का फ़ायदा तो पढ़े-लिखे लोगों को मिलता है। इसी के मद्देनज़र यूपीए सरकार के समय मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने 2005 में उच्च शिक्षण संस्थानों में भी अन्य पिछड़ा वर्ग का आरक्षण लागू किया। लेकिन सवाल जातिवाद का है।
जेपी आंदोलन से निकले नेताओं के सत्ता में पहुँचने के कारण उनकी अपनी पिछड़ी जातियाँ मज़बूत हुईं। आरक्षण से भी उनका सशक्तीकरण हुआ। समाज का शक्ति संतुलन बदलने लगा। यादव, कुर्मी, जाट जैसी जातियाँ अब सवर्णों के बरक्स खड़ी हो गईं। इसे सामाजिक परिवर्तन कहा गया। लेकिन मंडल के बरअक्स कमंडल की राजनीति करने वाली बीजेपी ने लालू यादव और मुलायम सिंह यादव सरीखे पिछड़े नेताओं को जातिवादी घोषित किया। इनके शासनकाल में हुए अपराधों को क़ानून-व्यवस्था के नज़रिए से देखने के बजाय सजातीय और समर्थकों की सत्ता संरक्षित गुंडागर्दी घोषित किया गया। उत्तर भारत की राजनीति में बीजेपी के लिए यह मुद्दा भी तुरुप का पत्ता साबित होता है। हिंदुत्व के मुद्दे के खारिज होने के बाद नरेन्द्र मोदी ने इसे ही मुद्दा बनाया। उन्होंने तेजस्वी को 'जंगलराज का युवराज' कहा। संभव है इसका कुछ असर भी हुआ हो। हालाँकि लालू यादव के राज को समाप्त हुए 15 साल बीत चुके हैं। आज की नई पीढ़ी ने लालू के कथित जंगलराज को बहुत गंभीरता से नहीं लिया। तेजस्वी ने भी आगे बढ़कर इस मुद्दे पर सफ़ाई देते हुए सबको साथ लेकर चलने की बात दोहराई।
सबसे ख़ास बात यह है कि नरेंद्र मोदी की उपस्थिति के बावजूद तेजस्वी यादव बिहार चुनाव का सबसे आकर्षक और विश्वसनीय चेहरा बनकर निखरे। उनकी रैलियों में नौजवानों की उमड़ी भीड़ तेजस्वी में नए बिहार की उम्मीद देख रही थी। इसकी वजह केवल उनका नौजवान होना ही नहीं है बल्कि उन्होंने अपने भाषण और नीतियों से सबको प्रभावित किया है। लंबे अरसे के बाद भारत की राजनीति में बेरोज़गारी और महँगाई चुनावी मुद्दे बने। तेजस्वी यादव ने अपनी सरकार की पहली कैबिनेट बैठक में दस लाख सरकारी नौकरियाँ सृजित करने का वादा किया। सरकारी नौकरियों के मुद्दे की अपील ने नीतीश कुमार और बीजेपी को रक्षात्मक प्रचार करने के लिए मजबूर कर दिया। निजी हमला करते हुए नीतीश कुमार ने तेजस्वी से पूछा कि सरकारी नौकरियाँ कहाँ से देंगे और इसके लिए राजस्व का इंतज़ाम कहाँ से होगा? तेजस्वी ने पूरी तैयारी के साथ ऐसे सवालों का जवाब दिया। सरकारी नौकरियों के मुद्दे को कारगर होते देख बीजेपी को उन्नीस लाख रोज़गार देने का वादा करना पड़ा।
पलायन बिहार की सबसे बड़ी समस्या है। गुजरात, महाराष्ट्र आदि राज्यों में बिहारी मज़दूर प्रताड़ना और अपमान का शिकार होते हैं। नीतीश के पंद्रह साल के शासनकाल में कई चीनी मिलें बंद हो गईं। अन्य उद्योग धंधे भी चौपट हो गए। नए कल कारखाने स्थापित नहीं हुए। इससे रोज़गार के अवसर कम हुए।
तेजस्वी ने सीधे जनहित से जुड़े मुद्दों को उठाया। वे कहीं भटके नहीं। हिन्दू अस्मिता के बरक्स तेजस्वी ने बिहारी अस्मिता को खड़ा किया। इसका नतीजा यह हुआ कि बिहार का चुनाव विकास और जनहित के मुद्दों पर केंद्रित रहा। यह तेजस्वी यादव की सबसे बड़ी राजनीतिक कुशलता का प्रमाण है। तेजस्वी अपना एजेंडा स्थापित करने में कामयाब रहे। आने वाले चुनाव इन्हीं मुद्दों के इर्द-गिर्द हों तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। तेजस्वी ने बिहार में बीजेपी ने हिंदुत्व और विभाजन के नैरेटिव को चलने नहीं दिया। उन्होंने एक काउंटर नैरेटिव खड़ा किया। सांप्रदायिकता के बरक्स रोज़गार और विकास का काउंटर नैरेटिव। तेजस्वी ने बीजेपी और नीतीश को अपने एजेंडे पर आने के लिए मजबूर किया। चुनाव के नतीजे कुछ भी रहे हों लेकिन बिहार चुनाव का हासिल बहुत मानीखेज़ है।
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