आज़ादी के 78वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल क़िले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिये गए भाषण की अलग-अलग ढंग से आलोचना-समालोचना हो रही है। पूरे देश को संबोधित करते हुए नरेंद्र मोदी ने कहा कि मौजूदा नागरिक कानून सांप्रदायिक है। उनकी सरकार कॉमन सिविल कोड के जरिए सेकुलर कानून स्थापित करना चाहती है। विदित है कि संविधान सभा में नागरिक कानून को लेकर लंबी बहस हुई थी। कॉमन सिविल कोड को लेकर डॉ. आंबेडकर और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू आग्रहशील थे। लेकिन संविधान सभा में सर्वसम्मति नहीं बन सकी। इसलिए समान नागरिक संहिता को नीति निर्देशक तत्व के अनुच्छेद 44 में शामिल करते हुए, यह स्पष्ट कर दिया गया कि मुस्लिम, ईसाई और अन्य समुदायों की सहमति से ही इसे लागू किया जाएगा।
इस पर पहले भी चर्चा होती रही है लेकिन नरेंद्र मोदी ने मौजूदा नागरिक कानून को सांप्रदायिक कहकर पूरी संविधान सभा, पहले प्रधानमंत्री नेहरू और संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर को क्या सांप्रदायिक नहीं घोषित कर दिया है? एक और सवाल कि जो पार्टी सरेआम धर्मनिरपेक्षता को देश पर कलंक मानती रही है, वह अचानक सेकुलर होने का ढोंग क्यों करने लगी है? क्या यह बीजेपी के हार का कारण है अथवा नरेंद्र मोदी की अपनी शैली है जिसके जरिए वह लगातार देश को गुमराह करते रहे हैं? बहरहाल, यह समझना जरूरी है कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान और लोकतंत्र के लिए कितनी महत्ता रखती है? आज भी सेकुलर बनाम साम्प्रदायिक की बहस क्यों जारी है?
धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान का बुनियादी मूल्य है। यद्यपि मूल संविधान में इसका ज़िक्र नहीं है, लेकिन इसके स्वभाव में मौजूद है। आरम्भ से ही धर्मनिरपेक्षता स्वतंत्र भारत के लिए चुनौतीपूर्ण रही है। फ्रांसीसी लेखक एंड्रे मेलरॉक्स के एक सवाल के जवाब में, जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि 'देश के सामने वर्तमान में दो सबसे बड़ी चुनौतियाँ हैं। एक, न्यायपूर्ण साधनों द्वारा समतामूलक समाज का निर्माण करना और दूसरा, एक धार्मिक देश में धर्मनिरपेक्ष राज्य का निर्माण करना। राष्ट्र निर्माण का एक उद्देश्य धर्मनिरपेक्षता को स्थापित करना था। लेकिन सांप्रदायिक हिंदुत्ववादी राजनीतिक और सांस्कृतिक संगठनों द्वारा लगातार धर्मनिरपेक्षता पर कुठाराघात किया गया।
आरएसएस और हिंदू महासभा भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने पर आमादा थे। इनका लक्ष्य सिर्फ़ मुस्लिम विरोध नहीं था बल्कि सभी अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाना और असमानतापूर्ण वर्ण-जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था स्थापित करना था। विभाजन के समय देश में सांप्रदायिक उन्माद पैदा किया जा रहा था। आरएसएस के कार्यों को लेकर जवाहरलाल नेहरू बहुत चिंतित थे। 7 सितंबर 1947 को मुख्यमंत्रियों को भेजे गए अपने पत्र में नेहरू ने लिखा कि, "हमारे पास ऐसे ढेरों सबूत हैं जो यह दर्शाते हैं कि आरएसएस एक ऐसा संगठन है जो निजी सेना की प्रकृति का है और जो निश्चित रूप से कठोर नाजी रास्ते पर चल रहा है, यहां तक कि संगठन की तकनीकों का भी अनुसरण कर रहा है। हमारी इच्छा नागरिक स्वतंत्रता में दखल देने की नहीं है। लेकिन उपयोग करने के स्वाभाविक उद्देश्य के साथ बड़ी संख्या में लोगों के सशस्त्र प्रशिक्षण को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता है... यह प्रांत की सरकार के लिए वांछनीय है कि वह नजर बनाए रखे और आवश्यकता पड़ने पर उचित कार्रवाई करे।"
आरएसएस और हिंदू महासभा शुरू से ही धर्मनिरपेक्षता विरोधी रहे हैं। 'हिंदुत्व और धर्मनिरपेक्षता' नामक लेख में गोलवलकर ने लिखा कि 'पश्चिम में पैदा हुआ धर्मनिरपेक्षता का विचार हमारे देश में अनुपयुक्त है।'
हिंदू महासभा के पूर्व अध्यक्ष और जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 17 सितंबर 1951 को संसद में धर्मनिरपेक्षता को 'सेक्युलराइटिस' नामक बीमारी कहा। 1960 के दशक में सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए। इसका मुकाबला करने के लिए नेहरू ने 1961 में राष्ट्रीय एकता परिषद का गठन किया। इसका मकसद राज्यों के समन्वय और नीतियों के जरिए सांप्रदायिक सौहार्द बहाल करना था। लेकिन हिंदुत्ववादी ताकतें निरन्तर समय-समय पर सिर उठाती रहीं।
इंदिरा गांधी सरकार द्वारा 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द शामिल किया गया। इंदिरा गांधी द्वारा लागू किए गए आपातकाल के खिलाफ विपक्ष एकजुट हुआ। कांग्रेस (इंदिरा) के खिलाफ जनता पार्टी ने 1978 के चुनाव में जीत हासिल की। सोशलिस्टों के साथ सरकार में रहकर जनसंघ की समाज में स्वीकार्यता बढ़ी। जनता पार्टी सरकार में मजबूत हुए हिंदुत्ववादी विभिन्न सरकारी संस्थानों में घुसपैठ करने में कामयाब हो गए। लेकिन जल्दी ही जनता पार्टी सरकार ने अपना विश्वास खो दिया। जनता पार्टी के बिखरने के बाद जनसंघ के स्थान पर 1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ। राम मंदिर आंदोलन के दौरान भाजपा और आरएसएस ने अनेक हिंदुत्ववादी संगठन खड़े किए। विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे स्वघोषित हिंदूवादी संगठन धर्मनिरपेक्ष भारत को हिंदू भारत में बदलने के लिए बेताब दिखाई पड़ने लगे।
6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़ दी गई। धर्मनिरपेक्षता पर यह सबसे बड़ा हमला था। सांप्रदायिक उन्माद और वर्णवादी हिंदुत्व के विचार से भाजपा पूर्णतः सवर्णों की पार्टी बन गई। सोशल इंजीनियरिंग के जरिए भाजपा ने पिछड़े समाजों को भी जोड़ने में कामयाबी हासिल की। इसके फलस्वरूप 1996, 1998 और पुनः 1999 में अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में एनडीए सरकारी बनी। इस दरमियान शिक्षण संस्थाओं, अकादमियों और इतिहास लेखन में भारत की बहुल सांस्कृतिक पहचान को अप्रासंगिक बनाते हुए हिंदुत्ववादी विचारधारा को प्रोत्साहित किया गया। भाजपा और आरएसएस से जुड़े अनेक नेताओं ने धर्मनिरपेक्षता पर सीधा प्रहार किया। सांप्रदायिक उन्माद और हिंदुत्ववादी विचारों में अधिक तेजी आई। अब दंगों की जगह अल्पसंख्यकों का नरसंहार होने लगा। उड़ीसा, झारखंड और उत्तर पूर्व के अनेक राज्यों में ईसाइयों पर हमले हुए। 2002 में गुजरात में मुसलमानों का भीषण नरसंहार हुआ।
2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद हिंदुत्ववादी संगठन बेलगाम हो गए। गाय के नाम पर बेकसूरों को पीटना और मॉब लिंचिंग करना शगल बन गया। मुसलमानों को प्रताड़ित करने के लिए लव जिहाद और लैंड जिहाद जैसे नए शब्द गढ़ लिए गए। राजनीतिक मोहरा बने भगवाधारी साधु-संत मुसलमानों का नरसंहार करने की मुनादी करने लगे। संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्षता शब्द हटाने की मुहिम छेड़ दी गई। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक यह प्रवृत्ति व्याप्त हो गई। नरेंद्र दाभोलकर, एम.एम. कलबुर्गी और गौरी लंकेश को हिंदुत्ववादियों के विरोध की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।
इतिहास के प्रसंगों और नायकों का संप्रदायीकरण किया गया। अकबर से लेकर टीपू सुल्तान को केवल मुसलमान राजा की तरह दिखाया गया। इतिहास का भगवाकरण किया गया। पुरानी इमारतों को हिंदू मंदिर बताया जाने लगा। सोशल मीडिया और भाजपा आईटी सेल द्वारा सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने के लिए रात-दिन झूठ परोसा गया। हिंदू नौजवानों के मानस को मुस्लिम विरोधी और उन्मादी बनाने के लिए अफवाहें फैलाई गईं। रामनवमी के जुलूस में मस्जिदों पर भगवा लहराना और मुसलमानों को अपमानित करना आम हो गया। अब चौराहों पर ही नहीं, संसद में भी एक मुस्लिम सांसद को गद्दार, देशद्रोही, आतंकवादी, पाकिस्तानी और भी न जाने क्या-क्या कहा गया। चुनावों में आचार संहिता की बेखटके धज्जियां उड़ाई गईं।
2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद नरेंद्र मोदी ने कहा था कि कोई पार्टी धर्मनिरपेक्षता की बात करने की हिम्मत नहीं कर सकी। 303 सीटों को हिंदुत्व की जीत और हिन्दू राष्ट्र का जनमत की तरह प्रचारित किया गया। 2024 के चुनाव के ठीक पहले अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन के बाद संविधान बदलने की मुनादी कर दी गई। लेकिन इस चुनाव में दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों ने बीजेपी को सबक सिखा दिया। नरेंद्र मोदी अब सेक्युलर दलों की बैसाखियों के सहारे सरकार चला रहे हैं। चुनाव में हार के बाद अचानक भाजपा धर्मनिरपेक्षता का ढोंग करने लगी है। लेकिन सच यह है कि भाजपा और आरएसएस कभी धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकते। उनके विचार का डीएनए ही साम्प्रदायिकता है। मुस्लिम और ईसाई विरोध पर उनकी पूरी राजनीति टिकी हुई है। नरेंद्र मोदी ने मौजूदा नागरिक संहिताओं को साम्प्रदायिक कहकर उस संविधान सभा का अपमान किया है, जिसमें सभी विचारधाराओं के प्रबुद्ध नेता मौजूद थे। सामाजिक न्याय, समाजवाद और सेकुलरिज्म जैसे आधुनिक और मानवीय मूल्यों को संविधान में स्थापित करने वाली संविधान सभा पर अप्रत्यक्ष हमला करके नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि वे उस आरएसएस के स्वयं सेवक हैं, जिसे बाबासाहब आंबेडकर से नफ़रत और मनुस्मृति के रचयिता मनु के प्रति हमेशा श्रद्धा रही है।
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