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लैटरल एंट्री यानी देश में संविधान नहीं, मनुस्मृति का विधान, जानिए कैसे

नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने तीसरे कार्यकाल में भी लैटरल एंट्री को जारी रखते हुए 24 मंत्रालयों के 45 पदों के लिए विज्ञापन जारी किया है। उप सचिव, संयुक्त सचिव और निदेशक जैसे उच्च  पदों पर होने वाली नियुक्तियों में कोई आरक्षण नहीं दिया गया है। गौरतलब है कि इन पदों पर बैठे हुए अधिकारी ही नीतियां बनाते हैं। विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने लैटरल एंट्री के जरिये होने वाली इन नियुक्तियों के विज्ञापन पर जोरदार हमला बोला है। उनका कहना है कि संघ लोक सेवा आयोग द्वारा चयनित लोगों की जगह पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और कॉरपोरेट घरानों से उच्च पदों पर नियुक्तियां की जा रही हैं। इनमें दलित, आदिवासी और पिछड़ों के लिए आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। आरक्षित वर्ग के अधिकारी पहले से ही कम हैं। लैटरल एंट्री के जरिये उनकी भागीदारी खत्म करने की सुनियोजित साजिश की जा रही है। नीति निर्धारक पदों पर एक खास विचारधारा और वर्ग से होने वाली इन नियुक्तियों के जरिये संविधान को बदला जा रहा है।
लैटरल एंट्री के जरिए उच्च पदों पर होने वाली भर्तियां पूर्णतया असंवैधानिक हैं। इनमें आरक्षण क्यों लागू नहीं है? क्या नरेंद्र मोदी सरकार मानती है कि दलित, आदिवासी और पिछड़े समाज के लोग देश के लिए नीतियां बनाने में सक्षम नहीं हैं? 2018 में जब लैटरल एंट्री शुरू की गई थी, उस समय यह तर्क दिया गया था कि नीति निर्धारक पदों पर विशेषज्ञों को भर्ती किया जा रहा है। विशेषज्ञों के नाम पर ज्यादातर पूंजीपति घरानों के टेक्नोक्रेट और प्रबंधकों को बिठा दिया गया। लेटरल एंट्री के जरिये होने वाली नियुक्तियों पर आज तमाम सवाल खड़े हो रहे हैं।
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पहला सवाल तो यह है कि पूंजीपति घरानों के टेक्नोक्रेट और प्रबंधक किसानों, मजदूरों, दलितों, आदिवासियों के लिए कैसी नीतियां बनाएंगे, यह समझने के लिए किसी रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं है। उच्च वर्ग से आने वाले ये कथित विशेषज्ञ क्या कमजोर वंचित समाज के हितों में नीतियां बना सकते हैं? पिछले छह साल में इन विशेषज्ञों ने गरीबों के उत्थान लिए कौन सी लाभकारी नीतियां बनाई हैं? 
अगली भर्तियां करने से पहले क्या सरकार को यह नहीं बताना चाहिए कि कथित मेरिटधारी सवर्ण विशेषज्ञों ने देश के लोगों को और खासकर गरीबों-वंचितों के उत्थान के लिए क्या योगदान किया है? पूछा यह भी जाना चाहिए कि पिछले आठ साल में देश के भीतर असमानता की खाई इतनी चौड़ी कैसे हो गई? 81 करोड लोगों को 5 किलो राशन क्यों दिया जा रहा है? इसका मतलब है कि देश की सबसे बड़ी आबादी कमाकर खाने की स्थिति में नहीं हैं। क्यों इतने लोग आज पेट भरने के लिए सरकारी योजनाओं पर निर्भर हैं?
क्या विशेषज्ञ गरीबों के लिए यही नीतियां बना रहे हैं? इसका सीधा मतलब है कि इन टेक्नोक्रेट के जरिए देश में मनुस्मृति का विधान लागू किया जा रहा है। देश के गरीब पिछड़ों (शूद्रों) और दलितों के पास ना कोई संपत्ति होनी चाहिए और ना ही सम्मानजनक काम। उन्हें मानसिक गुलाम बनाने की पूरी परियोजना तैयार की जा रही है। उनके स्वाभिमान को छलनी किया जा रहा है। उनके बच्चों की शिक्षा और सरकारी नौकरियों के अवसर छीने जा रहे हैं। उनके सपनों को ध्वस्त किया जा रहा है।
अब सवाल यह उठता है कि इन विशेषज्ञों की नीतियों का लाभ किसे मिल रहा है? लैटरल एंट्री के जरिए सेबी की अध्यक्ष बनीं, माधबी पुरी बुच इसका सटीक उदाहरण हैं। विदित है कि सेबी अध्यक्ष माधबी बुच पहली गैर-आईएएस हैं, जिन्हें इस पद पर नियुक्त किया गया है। माधबी बुच और अडानी के बीच मिलीभगत का खुलासा हो चुका है। हिन्डनबर्ग की रिपोर्ट में आरोप लगाया  गया है कि माधबी बुच और उनके पति धवल बुच ने अडानी की कंपनियों में निवेश करके लाभ कमाया है। जबकि अडानी के शेयर घोटाले के आरोप की जांच माधबी पुरी बुच को सौंपी गई थी। क्या माधबी बुच अडानी के आरोपों की जांच न्यायपूर्ण ढंग से कर सकती हैं?

लैटरल एंट्री संविधान पर सीधा हमला है। इसके जरिए नरेंद्र मोदी आरएसएस के लोगों को विभिन्न संस्थाओं के उच्च पदों पर बिठाना चाहते हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने अबकी बार 400 पार का नारा देते हुए संविधान बदलने का एलान किया था।


इस अपेक्षित बहुमत के जरिए आरएसएस के 100 साल पूरे होने पर नरेंद्र मोदी भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते थे। बाबासाहब अंबेडकर के संविधान को बदलकर मनुस्मृति के आधार पर हिंदू राष्ट्र का संविधान लागू करने की नरेंद्र मोदी की मंशा को इस देश के दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों ने पूरा नहीं होने दिया। पूंजीपतियों और सरकारी तंत्र की तमाम शक्तियों के भरपूर दुरूपयोग के बावजूद नरेंद्र मोदी 240 सीटों पर सिमट गए और आज बैसाखियों के सहारे अपनी सरकार चला रहे हैं। 
मोदी के 'हनुमान' चिराग पासवान और बिहार के ही दूसरे दलित नेता जीतन राम मांझी ने लैटरल एंट्री पर नाखुशी जाहिर की है। चिराग का कहना है कि वे नरेन्द्र मोदी से इस संदर्भ में चर्चा करेंगे। जबकि इंडिया गठबंधन के तमाम नेताओं ने इसकी तीखी आलोचना की है। मल्लिकार्जुन खड़गे, अखिलेश यादव और मायावती ने खुलकर लैटरल एंट्री के जरिए की जाने वाले नियुक्तियों की आलोचना की है। खड़गे ने इसे आरक्षण पर दोहरा हमला बताते हुए संघ और मोदी के संविधान बदलने की कोशिश के तौर पर रेखांकित किया है।
आरएसएस एक मनुवादी संगठन है। संविधान बदलना आरएसएस का पुराना एजेंडा है। संघ हमेशा से आरक्षण के खिलाफ रहा है।आरएसएस देश के दलितों- पिछड़ों को पुरानी वर्णवादी व्यवस्था में धकेलना चाहता है। इन समुदायों पर सामाजिक और आर्थिक वर्चस्व स्थापित करना संघ का शुरुआती लक्ष्य है। आरएसएस मानता है कि देश पर कब्जा करने के लिए सिर्फ चार फ़ीसदी मजबूत लोग चाहिए। इनके जरिए वो पूरे देश को काबू में रख सकता है। इसीलिए आरएसएस ने धीरे-धीरे अपने लोगों को देश के सरकारी तंत्र के भीतर फिट किया। 
जनता पार्टी की सरकार से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों तक आरएसएस के लोग विभिन्न संस्थाओं में पहुंचे। 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद देश की सभी संस्थाओं में आरएसएस के लोगों का कब्जा हो गया। आज न्यायपालिका से लेकर सेना के रिटायर्ड तमाम अधिकारी खुलकर ऐलान कर चुके हैं कि वे आरएसएस से जुड़े रहे हैं। वे आरएसएस के साथ अपने संबंधों को लेकर गौरवान्वित हैं। जबकि आरएसएस पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या का आरोप रहा है। असंवैधानिक गतिविधियों के कारण उसे तीन बार प्रतिबंधित किया गया है। उस संस्था के लोग आज देश के हर संस्थान में काबिज हैं। अब नीति निर्धारक ब्यूरोक्रेसी में भी लैटरल एंट्री के जरिए अपने लोगों को बिठाया जा रहा है। 
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दरअसल, अभी भी प्रशासनिक अधिकारियों में 80- 90 के दशक में चयनित होने वाले लोग मौजूद हैं। इनकी विचारधारा मुख्तलिफ हो सकती है। ये आरएसएस के पिट्ठू लोग नहीं हो सकते। प्रमोशन के जरिए वे लोग संयुक्त सचिव जैसे पदों पर पहुंचेंगे और नीति निर्धारण का काम करेंगे। इसीलिए लैटरल एंट्री के जरिए उनका रास्ता रोकना और नीति निर्माण में अपने लोगों को स्थापित करना इसका मूल उद्देश्य है। लेकिन विपक्ष के हमलावर रुख और एनडीए के साथियों के विरोध के बाद लैटरल एंट्री का रास्ता आसान नहीं रह गया है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि अगर नरेंद्र मोदी चार सौ सीटें जीत गए होते तो देश की नीतियों और नियुक्तियों का क्या हाल होता? जाहिर है कि राहुल गांधी द्वारा 'संविधान खतरे में है' की आशंका निर्मूल नहीं है।
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रविकान्त
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