किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहे जाने वाले अमेरिका में एक दिन वे इस तरह के नज़ारे देखेंगे। अमेरिका के इन दृश्यों ने पूरी दुनिया को हतप्रभ कर दिया है। ठीक उसी तरह जैसे 9/11 को ट्रेड टॉवर पर हुए हमले के दृश्यों ने किया था। उस समय अमेरिका जैसी महाशक्ति की सुरक्षा की पोल खुल गई थी और आज की घटना ने अमेरिकी लोकतंत्र को बेनकाब कर दिया है।
कुछ लोग इसे अपवाद बताकर इसके महत्व को कम करके आँक रहे हैं। उनके हिसाब से ये घटना एक व्यक्ति यानी ट्रंप के राष्ट्रपति बनने से घटित हुई है। उनके मुताबिक़, चूँकि ट्रंप अयोग्य, अक्षम और मानसिक रूप से असंतुलित व्यक्ति हैं, इसलिए ऐसा हुआ, वर्ना इसके होने की गुंज़ाइश अमेरिकी व्यवस्था में कतई नहीं है। लेकिन ये बात सही नहीं है।
नस्लवाद-भेदभाव की राजनीति
ट्रंप एक व्यक्ति नहीं, प्रवृत्ति का नाम है। वे उस राजनीति की अगुआई कर रहे हैं जो अमेरिका पर इस समय हावी है। ये राजनीति नस्लवाद की है, भेदभाव की है और बड़ी पूँजी के खेल में शामिल लोगों द्वारा पोषित एवं संचालित है। ट्रंप कुछ न कर पाते अगर उनके पीछे अमेरिका के बड़े हिस्से का समर्थन न होता, उनकी पार्टी उनके साथ न होती और उनकी राजनीति को फंड करने वाले थैलीशाह न होते।
ट्रंप ने चार साल तक जिस तरह से राज किया, वह और भी बड़ी दुर्घटना थी, क्योंकि अमेरिकी लोकतंत्र उनकी मनमानियों पर अंकुश नहीं लगा सका। कोरोना महामारी के दौरान उन्होंने जिस तरह से व्यवहार किया वह लाखों लोगों की मौत का कारण बना, मगर वह उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकी।
निरंकुश होते गए ट्रंप
सबसे ख़तरनाक़ था उनके कार्यकाल का अंतिम वर्ष, जब उन्होंने कोरोना से निपटने से लेकर राष्ट्रपति चुनाव तक अत्यंत निरंकुश ढंग से व्यवहार किया और कोई उन्हें रोक नहीं सका। वे अपने ही मंत्रियों, अधिकारियों और पार्टी को बेधड़क होकर धता बताते रहे और कोई उनका बाल भी बाँका नहीं कर सका।
चिंता अब इस बात की नहीं है कि अमेरिका में गुज़रे चार साल में क्या हुआ। अब सोचा ये जाना चाहिए कि क्या अमेरिका उन चार सालों को धो-पोछकर आगे बढ़ पाएगा?
ट्रंप को मिला जोरदार समर्थन
ट्रंप की सियासत और अमेरिकी समाज की मनोदशा बता रही है कि अमेरिकी लोकतंत्र गहरे संकट में जा फँसा है और उसका तुरंत उबर पाना कठिन होगा। ट्रंप चुनाव भले ही हार गए हों मगर उन्हें ज़बरदस्त वोट मिले हैं। वास्तव में अभी तक के रिपब्लिकन उम्मीदवारों में सबसे ज़्यादा। ग़ौरतलब है कि उनके मतदाताओं में ये बात भर दी गई है कि ट्रंप से जीत छीन ली गई है, चुरा ली गई है। वे गुस्से से भरे हुए हैं और उनमें किसी तरह का परिवर्तन नहीं आने जा रहा।
ट्रंप के मतदाताओं की मानसिक संरचना को भी समझना होगा। वे श्रेष्ठताबोध और नस्लवादी जोश से भरे हुए लोग हैं। बढ़ती बेरोज़गारी ने उनकी इस सोच को और भी धार दे दी है। ट्रंप जैसे नेता उनमें उन्मादी जोश भर रहे हैं। इन्हें बाईडेन की सौम्य, शालीन राजनीति शांत नहीं कर पाएगी, ठीक उसी तरह जैसे दुनिया के दूसरे हिस्सों में नहीं कर पा रही है।
वास्तव में जो कुछ अमेरिका में हुआ और हो रहा है उसे वैश्विक संदर्भों में भी देखा जाना चाहिए। पूरी दुनिया में जहाँ-जहाँ भी लोकतंत्र है, ख़तरे में है। हर जगह लोकतंत्र विरोधी ताक़तें मज़बूत हो रही हैं, सत्ता पर काबिज़ हो रही हैं और ठीक वही सब कर रही हैं जो अलोकंतांत्रिक है, मानवता विरोधी है।
भारत में भी ख़तरा
यूरोप के अधिकांश देश इस नस्लवादी दक्षिणपंथी राजनीति की चपेट में हैं। हर जगह अल्पसंख्यकों, उदारवादियों को निशाना बनाया जा रहा है। यहाँ भारत का उदाहरण भी लिया जा सकता है, जहाँ पिछले छह वर्षों में तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं ध्वस्त होती जा रही हैं। यहाँ तक कि न्यायपालिका तक संदेह के घेरे में आ चुकी है।
हालाँकि बहुत से लोगों ने अमेरिका को लोकतंत्र का मक्का बना रखा है मगर ये बात याद रखी जानी चाहिए कि वह कभी भी पूर्ण रूप से स्वस्थ लोकतंत्र था ही नहीं। उसके लोकतंत्र पर आर्थिक और सैन्य महाशक्ति होने की कलई लगी हुई थी, जिस पर सब मोहित होते रहते थे, वरना उसका अंतरराष्ट्रीय व्यवहार बताता है कि लोकतंत्र उसका मुखौटा भर था।
वह दुनिया भर में लोकतंत्र लाने के नाम पर हमले करता रहा है, देशों को बर्बाद करता रहा है। इराक, अफ़गानिस्तान, लीबिया आदि दर्ज़नों ऐसे देश हैं जो इसीलिए बरबाद हो गए। इसके विपरीत वह तानाशाहों और राजशाहियों को समर्थन देता रहा ताकि उनसे फ़ायदा उठा सके। यही नहीं, वह अपने निर्णय और नीतियाँ थोपने और दरोगागीरी करने के लिए भी कुख्यात रहा है।
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