दिल्ली में साल 2020 में हुए सांप्रदायिक दंगे के मामले में भड़काऊ और नफरत फैलाने वाले भाषण देने के आरोपी भाजपा नेताओं के खिलाफ दायर एक जनहित याचिका की पिछले दिनों सुनवाई करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने बेहद अजीबोगरीब दलील दी थी। हाई कोर्ट ने कहा था, ''अगर मुस्कुराते हुए कुछ कहा जाता है तो वह अपराध नहीं है, लेकिन अगर वही बात आक्रामक रूप से गुस्से में कही जाए तो उसे अपराध माना जा सकता है।’’
ठाकुर और वर्मा के बयान
दिल्ली में साल 2020 में हुए सांप्रदायिक दंगे से पहले केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने एक आम सभा में भाषण देते हुए लोगों से नारा लगवाया था- ''देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को।’’ यह नारा नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वाले को निशाना बना कर लगवाया गया था।
उसी दौरान दिल्ली के भाजपा सांसद परवेश वर्मा ने एक सभा में लोगों से कहा था ''शाहीन बाग में आंदोलन कर रहे लोग आपकी बहन-बेटियों के साथ बलात्कार करने और उन्हें मारने के लिए आपके घरों में घुस जाएंगे।’’
हालांकि हाई कोर्ट ने याचिका पर फैसला सुरक्षित रखा है लेकिन उसकी उपरोक्त टिप्पणी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह क्या फैसला सुनाएगी। निचली अदालत तो पहले ही यह याचिका ठुकरा चुकी है।
बहरहाल ठीक एक महीने बाद अब इसी हाई कोर्ट ने कथित भड़काऊ भाषण के मामले में बिल्कुल अलग रुख अख्तियार किया है। उसने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्र नेता उमर खालिद के फरवरी 2020 में महाराष्ट्र के अमरावती शहर में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ दिए गए भाषण को बेहद आक्रामक और नफरत भरा माना है।
उमर खालिद को दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने सितंबर 2020 में यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम कानून) के तहत गिरफ्तार किया था। वे तब से ही जेल में हैं। निचली अदालत उन्हें जमानत देने से इनकार कर चुकी है।
निचली अदालत के फैसले के खिलाफ दायर याचिका पर ही हाई कोर्ट ने उमर खालिद के भाषण को सुनने के बाद उनके वकील से कहा, ''यह आक्रामक, बेदा और लोगों को उकसाता है। जैसे- उमर खालिद ने कहा था कि आपके पूर्वज अंग्रेजों की दलाली कर रहे थे। क्या आपको नहीं लगता कि यह आपत्तिजनक है? इससे ऐसा लगता है कि केवल किसी एक विशेष समुदाय ने ही भारत की आजादी की लड़ाई लड़ी थी।’’
यह टिप्पणी करते हुए हाई कोर्ट ने महात्मा गांधी और शहीद भगत सिंह की दुहाई भी दी और सवाल किया कि क्या गांधी जी और भगत सिंह ने इस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया था?
दोनों ही मामलों में अदालत का फैसला जो भी आए, मगर सवाल है कि अगर अदालत की निगाह में अनुराग ठाकुर और परवेश वर्मा के भाषण भडकाऊ और नफरत फैलाने वाले नहीं हैं तो फिर उमर खालिद का भाषण कैसे नफरत फैलाने वाला हो सकता है?
उमर खालिद ने न तो किसी को गोली मारने का आह्वान किया था और न ही किसी समुदाय विशेष को बलात्कारी कहा था। उन्होंने तो नागरिकता संशोधन कानून की विसंगति और बदनीयती के संदर्भ में एक विशेष राजनीतिक विचारधारा के समर्थकों की ओर इशारा करते हुए यही कहा था कि ''आपके पूर्वज अंग्रेजों की दलाली कर रहे थे।’’ इसमें किसी को उकसाने या शांति भंग करने वाली बात अदालत ने कैसे महसूस कर ली, यह बड़ा सवाल है।
उमर खालिद का बयान तथ्यों की रोशनी में होने के बावजूद यह स्वाभाविक है कि कुछ लोगों को वह अरूचिकर लगे, क्योंकि कुछ सच ऐसे होते हैं जो बेहद कडुवे होते हैं। लेकिन सच तो सच ही होता है। यह तो हो नहीं सकता कि जिस राजनीतिक जमात ने अपने को आजादी की लड़ाई से अलग रखा उसे भी अब आजादी के संघर्ष में शामिल रहा मान लिया जाए, सिर्फ इसलिए कि उस जमात के लोग अब सत्ता में हैं और बेहद ताकतवर हैं।
फिर ऐसा कहने वाले उमर खालिद कोई पहले या अकेले व्यक्ति भी नहीं हैं। यह बात तो उनसे पहले भी कई लोग कह चुके हैं और अभी भी कहते हैं और लिखते हैं। यही नहीं, इस मुद्दे पर तो कई किताबें भी आ चुकी है, जिनमें इस बात को विस्तार से और तथ्यों के साथ कहा गया है।
यह तथ्य इतिहास की पुस्तकों में दर्ज है कि जिस समय देश का स्वाधीनता संग्राम 'भारत छोड़ो आंदोलन’ के रूप में अपने तीव्रतम और निर्णायक दौर में था, उस दौरान उस आंदोलन का विरोध करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और हिंदू महासभा पूरी तरह ब्रिटिश हुकूमत की तरफदारी कर रहे थे।
इसलिए तथ्यों की रोशनी में देखा जाए तो उमर खालिद के उस बयान में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है, जिस अदालत ने आगबबूला होते हुए सख्त टिप्पणियां की हैं। यह तो नहीं कहा जा सकता कि अदालत ने उमर खालिद के बयान को सांप्रदायिक नजरिए से देखा है, लेकिन अदालत से यह अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि वह ऐतिहासिक तथ्यों की रोशनी में उमर के बयान की विवेचना करे।
जहां तक अनुराग ठाकुर और परवेश वर्मा का मामला है, उसके बारे में तो यही कहा जा सकता है कि उन दोनों के बचाव में अदालत ने जो दलील दी है, वो गले नहीं उतरती है?
सांप्रदायिक नफरत फैलाने के एक अन्य मामलें भी दो आरोपियों को दिल्ली की एक अदालत ने हैरान करने वाली दलीलों के साथ राहत दी है। 'सुल्ली डील’ और 'बुल्ली डील’ एप पर मुस्लिम समुदाय की बुद्धिजीवी महिलाओं, महिला पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की तस्वीरें डाल कर उनकी बोली लगाने जैसे घृणित अपराध के दो आरोपियों को जमानत देते हुए दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने कहा कि चूंकि आरोपियों ने पहली बार कथित रूप से कोई अपराध किया है और मुकदमे के ट्रायल में काफी समय लगेगा, इसलिए उन्हें लंबे समय तक हिरासत में रखना उनके भावी जीवन की भलाई के लिए 'मानवीय आधार’ पर उचित नहीं होगा।
कोई आश्चर्य नहीं कि जिस आधार पर अदालत ने दोनों आरोपियों को जमानत दी है, उसी आधार पर कुछ समय बाद उन्हें बरी भी कर दिया जाए।
ये तीन मामले तो बानगी है। हाल के दिनों में और भी कई मामलों में अदालतों ने अजीबोगरीब सख्ती और उदारता से भरे फैसले दिए हैं और आरोपियों के खिलाफ या उनके बचाव में हैरान करने वाली टिप्पणियां की हैं। अदालतों का यह रवैया हमारी न्याय व्यवस्था के चाल, चरित्र और चेहरे में आ रहे चिंताजनक बदलाव का संकेत माना जा सकता हैं।
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