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ठाकरे की ग़लती से गिर रही है अघाडी सरकार!

पहले बीजेपी छोटे भाई की भूमिका में थी। पर 2014 आते-आते शिवसेना सिमटती गई और बीजेपी बड़ा भाई बन गयी। मजबूरी में उन्हें छोटे भाई का रोल स्वीकार करना पड़ा। ये उन्हें बर्दास्त नहीं था। यही कारण है कि ठाकरे ने ज़िद पकड़ ली कि ढाई साल तक शिवसेना का मुख्यमंत्री होगा और बाक़ी के साल बीजेपी का। ये शर्त बीजेपी को कैसे मंज़ूर होती!
आशुतोष

जिस दिन महाराष्ट्र में ठाकरे की सरकार बनी थी उसी दिन इसकी मौत के काग़ज़ पर दस्तख़त कर दिये गये थे। बस उस पर तारीख़ डालनी बाक़ी थी। बीजेपी को ‘धोखा’ देने के बाद कब तक बकरे की माँ ख़ैर मनाती। उसे तो कटना ही था। एकनाथ शिंदे तो बस बहाना हैं। वो नहीं कोई और होता। हाँ जो चीज़ हैरान करने वाली है वो है इतनी बड़ी संख्या में शिवसेना के विधायकों का बगावत करना वो भी ठाकरे परिवार के ख़िलाफ़। इससे ये भी साबित होता है कि ठाकरे में अपने पिता की तरह न तो तेज है और न ही रणनीतिक तौर पर कुशल। सबको मालूम था कि मोदी काल में विपक्ष की सरकारों के सिर पर हमेशा तलवार लटकती रहती है, उस स्थिति में सुरक्षा इंतज़ाम ठाकरे ने क्यों नहीं किये? वो क्यों अपने ही विधायकों से दूर होते चले गये?

2019 में शिवसेना और बीजेपी ने मिलकर विधानसभा का चुनाव लड़ा था। बीजेपी को 106 सीटें मिलीं और शिवसेना के 56 विधायक जीते। लेकिन सरकार बीजेपी-शिवसेना की नहीं बनी। ठाकरे ने कहा कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दोनों ही पार्टी के नेता ढाई-ढाई साल बैठें। यही चुनाव के पहले करार हुआ था। पर बीजेपी को ये याद नहीं आया कि ऐसी कुछ बात हुई थी। ठाकरे बिदक गये। शरद पवार और कांग्रेस से जा मिले और बेटे को मंत्री और खुद सीएम बन गये। वो ये भूल गये कि बीजेपी अब बदल चुकी है। वो अटल-आडवाणी की पार्टी नहीं रही। उसके सिरमौर हैं मोदी जो धोखा न तो भूलते हैं और न ही माफ़ करते हैं। राजनीति उनकी शग़ल नहीं। उनकी फ़ितरत है और राजनीति उनके लिये सत्ता का एकमात्र खेल है। खुद सत्ता पर क़ब्ज़ा करो, दूसरों को सत्ता से बेदख़ल रखो? और इसके लिये कोई भी क़दम उठाना पड़े, उठाओ।

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ठाकरे को ये पता होना चाहिये था कि कर्नाटक और मध्य प्रदेश में सरकार बीजेपी गिरा चुकी है। वहाँ सारे तंत्र मंत्र कर अपनी सरकार बना चुकी है, राजस्थान में कोशिश कर चुकी है। महाराष्ट्र में तीन टांगों की सरकार को वह कभी भी चलने नहीं देगी। उसे चौकन्ना रहना चाहिये था पर वो न जाने किस गुंताड़े में मशगूल रहे। ठाकरे को पहला काम करना चाहिये गठबंधन के विधायकों का दिल जीतना। दूसरा, लगातार विपक्ष यानी बीजेपी की गतिविधियों पर नज़र रखना। दोनों में वो असफल रहे। वो भूल गये कि उनकी सरकार गठबंधन की सरकार है। और सरकार में आने के बाद विधायकों की महत्वाकांक्षा काफ़ी बढ़ जाती है। उस महत्वाकांक्षा को मैनेज करना सरकार के स्थायित्व के लिये बेहद ज़रूरी था। ठाकरे नौसिखिए साबित हुए। चालीस से अधिक उनके ही विधायक उनकी नाक के नीचे से निकल गये और उन्हें पता ही नहीं चला। क्या कर रहा था उनका गुप्तचर विभाग? 

फिर वो नौकरशाही को भी नहीं साध पाये। अफ़सर बजाय उनके प्रति निष्ठावान होने के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के साथ दिखे। गोपनीय जानकारी मुख्यमंत्री को बाद में पता चलती, फडणवीस को पहले पता पड़ जाता। ऐसा तभी संभव था जब नौकरशाहों पर पकड़ न हो और उन्हें ये एहसास हो कि सरकार ज़्यादा नहीं चलने वाली है। 

परमवीर सिंह और सचिन वाज़े के मामले को जिस तरह से उनकी सरकार ने हैंडल किया वो प्रमाण था कि ठाकरे को सरकार चलाना नहीं आता। शरद पवार को चाणक्य कहा जाता है पर वो भी मिट्टी के माधो साबित हुए। उनके अपने कोटे के दो मंत्री नवाब मलिक और अनिल देशमुख लंबे समय से जेल में हैं और वो शांत बैठे हैं। जबकि दुनिया में प्रचार ये है कि वो मोदी के दोस्त हैं? ये कैसी दोस्ती है कि दोस्त उनके ही लोगों को चबाये जा रहा है और वो मूक दर्शक बने हैं?

मोदी की एक ख़ासियत है- वो राजनीति में मुरव्वत नहीं करते। दोस्त हो या दुश्मन, वो अगर नतमस्तक हैं तो ठीक वर्ना जाने के लिये तैयार रहे। सरकार बनाने में नाकाम होने का झटका बड़ा था। लिहाजा, बदला भी बड़ा होना था। जाँच एजेंसियों को खुला छोड़ दिया गया।

प्रवर्तन निदेशालय ने एक एक कर इतने मामले खोले कि ये लगने लगा कि ठाकरे परिवार भी सलाख़ों के पीछे जा सकता है। उद्धव के क़रीबी रिश्तेदार पर जाँच एजेंसियों ने हाथ डाला। संजय राउत की संपत्ति जप्त की। संकेत साफ़ था। ऐसे में ठाकरे को मोदी से दोस्ती करने के लिये हाथ बढ़ाना था पर वो अपनी इगो में रहे। शिवसेना के नेताओं का दंभ भी कम नहीं हुआ। वो जैसे को तैसे नीति पर चलते रहे। वो ये भूल गये कि शिवसेना बाला साहेब की नहीं है और बीजेपी में भी अटल-आडवाणी अतीत में जा चुके हैं। ऑक्टोपस के शिकंजे ने पूरे गठबंधन को यूँ घेरा कि हर विधायक को लगने लगा कि वो जेल जा सकता है। शिंदे के साथ विधायकों की भगदड़ के पीछे ये भी एक बड़ा कारण है।

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वैसे भी, महाविकास अघाडी गठबंधन कोई वैचारिक गठबंधन न होकर, अवसरवादी गठबंधन था। शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के एक साथ आने का सबसे बड़ा कारण था हर हाल में बीजेपी को सत्ता से दूर रखना। बीजेपी और शिवसेना स्वाभाविक साथी थे। प्रमोद महाजन और बाला साहेब ठाकरे ने 1980 के दशक में बीजेपी और शिवसेना को साथ लाने का फ़ैसला किया था। दोनों दल 1993 से 1998 तक सरकार में रहे। शिवसेना नेता मनोहर जोशी मुख्यमंत्री थे। बीजेपी छोटे भाई की भूमिका में थी। पर 2014 आते-आते शिवसेना सिमटती गई और बीजेपी बड़ा भाई बन गयी। ये बात शिवसेना को हज़म नहीं हुई। मजबूरी में उन्हें छोटे भाई का रोल स्वीकार करना पड़ा। ये उन्हें बर्दास्त नहीं था। यही कारण है कि ठाकरे ने ज़िद पकड़ ली कि ढाई साल तक शिवसेना का मुख्यमंत्री होगा और बाक़ी के साल बीजेपी का। ये शर्त बीजेपी को कैसे मंज़ूर होती! इसके पास सौ से ज़्यादा विधायक थे और शिवसेना के पास लगभग आधे। ठाकरे की ज़िद के पीछे ये भी सोच थी कि बीजेपी आख़िर में शिवसेना को भी लील लेगी और वो तभी बच सकती है जब वो अपना रास्ता बीजेपी से अलग कर ले।

ठाकरे के लिये रास्ता कठिन था। चाणक्य बुद्धि की ज़रूरत थी। चाणक्य तो कभी कभी ही पैदा होते हैं। ठाकरे सज्जन पुरुष हैं। चाणक्य बनना उनका स्वभाव नहीं है। लिहाज़ा उनकी सरकार ख़तरे में है।

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