समस्या दुर्भाव से होती है। जब मन में सद्भाव हो, सहभाव हो तो कोई समस्या नहीं होती। जीव का मन सहज संवाद का अभिलाषी होता है। वह संवाद का कोई न कोई साधन खोज ही लेता है।
भाषा कभी भी, कहीं भी समस्या नहीं होती। वह तो संवाद करके समस्याओं को सुलझाने का एक ज़रिया है। जब नीयत ठीक नहीं होती तो संसाधन समस्या बन जाते हैं। चाकू और तलवार दोनों ही उपयोगी हैं लेकिन नीयत ठीक न होने पर दोनों ही किसी की जान लेने के कारण बन जाते हैं।
कभी गौर किया है? जब अलग-अलग नस्ल, धर्म और भाषा के बच्चे मिलते हैं तो वे किसी राजभाषा, राष्ट्रभाषा या संपर्क भाषा की घोषणा का इंतज़ार नहीं करते। वे संकेत, आँखों, शरीर की चेष्टाओं या ऐसे ही सहज, प्राकृतिक उपायों से संवाद शुरू कर देते हैं। दस दिन भी नहीं लगते और वे अपने लिए संपर्क भाषा बना लेते हैं। किसी व्याकरण सम्मत, मानक, सत्ता-अनुमोदित भाषा के विधि-विधान जब आएँ-आएँ; न आएँ-न आएँ। अच्छा हो हम इनके बीच में अपनी खाप-पंचायती कुंठा न लाएँ।
सोचें, किसी नए देश में गए या किसी नए देश में आने वाले लोगों ने कैसे संवाद किया होगा? चाह और केवल चाह। भाषा बिना किसी राजा के, बिना किसी सत्ता के, बिना किसी पार्टी के प्रयत्न के धूप, हवा, पानी की तरह परिवेश से उतरती है; किसी चट्टान पर, किसी दीवार की दरार में तनिक-सी स्नेह की नमी से घास और काई की तरह उग आती है। किसी सुरमई साँझ-सी घिरती है, किसी ब्रह्म मुहूर्त की लाली-सी फूटती है।
भारत सदैव से ही एक केंद्रीकृत राष्ट्र की बजाय एक सांस्कृतिक इकाई अधिक रहा है। देश के विभिन्न भागों में, विभिन्न भाषाओं, सभ्यताओं, सम्प्रदायों और सत्ताओं के होते हुए भी पर्यटकों, तीर्थयात्रियों, विद्वानों, संतों और सामान्य लोगों को कभी ऐसा नहीं लगता था बल्कि पता भी नहीं चलता था कि वे कब किसी एक राजा के देश से दूसरे राजा के देश में दाखिल हो गए।
मेरी दादी का 100 वर्ष की आयु में 1992 में और मेरे दादाजी का निधन 1935 में 52 वर्ष की आयु में हुआ। मैं अपनी दादी का सर्वाधिक प्रिय पोता रहा। अपने शरारती और चंचल स्वभाव के कारण बहुत बार पिताजी के क्रोध और पिटाई की नौबत आई और तब दादी ही मेरी ढाल बनती थीं। अपने सभी पोते-पोतियों से अधिक उन्होंने मेरे साथ अपने संस्मरण साझा किए।
दादाजी अपने निधन के कोई पाँच-छह वर्ष पहले दक्षिण भारत रामेश्वरम की पैदल तीर्थ-यात्रा करके आए थे। कोई डेढ़ वर्ष की इस यात्रा के दौरान दादाजी का न तो निश्चित स्थान होता था और न ही निश्चित पता। संचार के यंत्रीकृत साधन तो थे ही नहीं। पता नहीं, इस अनिश्चित यात्रा पर गए दादाजी के लिए दादी ने कैसी आशंका और दुस्स्वप्नों को झेला होगा। वे दादाजी के तरह-तरह के अनुभव सुनाती थीं लेकिन कहीं भी भाषा को लेकर परेशानी का कोई उल्लेख उन्होंने नहीं किया।
दादाजी से बहुत पहले से भी इस राष्ट्र नहीं, इस देश के लोग पढ़ने-पढ़ाने, व्यापार, देशाटन के लिए भ्रमण करते रहे हैं। उन्होंने अपनी कोई न कोई संपर्क भाषा भी विकसित की ही होगी। आखिर सारे देश से कुम्भ में इकट्ठे होने वाले किसी न किसी तरह संवाद तो करते ही होंगे। सब कुछ बिना किसी सरकार या केंद्रीकृत शक्ति के स्वतः हो रहा था।
बीसवीं शताब्दी के शुरू में जोर पकड़े स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान एक संपर्क और संवाद की भाषा की आवश्यकता बड़ी शिद्दत से अनुभव की गई। हालाँकि किसी एक भाषा के बिना भी एक भाव ने सबको जोड़ दिया था। अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों के बीच में संवाद का एक माध्यम थी लेकिन वह सबके लिए सहज नहीं थी। 'हिन्दुस्तानी', जिसमें बहुत खुलापन और समन्वयशीलता थी, देश के विभिन्न समुदायों के बीच सहज संवाद और संपर्क की भाषा बन रही थी। अलगाव वाली शुद्धता की कुंठा उस समय भाषा में नहीं थी। और न ही संस्कृत सम्मत हिंदी और फारसी सम्मत उर्दू जैसा कोई विभाजन था। सहज रूप से देश के लिए एक संपर्क भाषा विकसित हो रही थी।
देश के सभी नेता बिना किसी क्षेत्रीय कुंठा और अलगाव के देश की एकता और संवाद के लिए हिंदी को विकसित कर रहे थे। सभी हिंदीतर लोग अपने-अपने इलाकों में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए काम कर रहे थे।
आज जो, जैसी भी हिंदी देश में, सरकारों के तथाकथित प्रयासों के बावजूद, फैल और पहुँच रही है उसके पीछे स्वाधीनता आन्दोलन के नेताओं द्वारा देश में एक संपर्क भाषा विकसित करने के ईमानदार प्रयत्नों की नींव पर बन रहा हम सब का घर है। सत्ता-मोह और दलगत राजनीति के चक्कर में अपनी-अपनी ईंटें मत खींचिए।
स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान उस समय के नेताओं और जनता के मन में एक बहुत बड़ा उद्देश्य था। इसलिए उनके विचारों और कर्मों की क्षुद्रता ख़त्म हो गई थी। नेहरू जी कहते थे- हम सब छोटे लोग हैं लेकिन गांधी जी ने हमें एक बड़े उद्देश्य से जोड़कर बड़ा बना दिया। यही कारण था कि उस समय कहीं भी क्षुद्र राजनीति पनप नहीं सकी। इसलिए देश के लिए बड़ा सोचें तो देश के साथ-साथ हम भी बड़े बनेंगे।
देश स्वतंत्र होने के बाद क्षुद्र, कुंठित और प्रतिगामी शक्तियों को भी देश की सत्ता में भागीदारी मिल गई। तभी तो भाषा जैसे विषय को लेकर भी राजनीति होने लगी।
हिंदी या दूसरी कोई भी भाषाएँ किसी भी तरह राजनीति का विषय नहीं हैं। और न ही होनी चाहिए।
तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान और अब बांग्लादेश पर पश्चिमी पाकिस्तान ने जो कि पूरे देश का सत्ता-केंद्र था, उर्दू लादने की कोशिश की। भाषाई साम्राज्य और अधिनायकवाद का आतंक पैदा किया। उसके फलस्वरूप 1952 में पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) के विद्यार्थियों ने आन्दोलन किया। कई विद्यार्थी मारे गए। आज उसी की याद में अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। क्यों किसी पर भाषाई साम्राज्यवाद लादा जाए। किसी भी स्वतंत्र देश में क्यों नहीं उस देश के सभी निवासियों को उन्हीं की अपनी-अपनी मातृभाषाओं में सर्वोच्च ज्ञान और अभिव्यक्ति के सभी साधन उपलब्ध करवाए जाएँ?
भारत एक बहुत बड़ा और विविध देश है। इस एक देश में अनेक देश हैं और सब एक से बढ़कर एक शानदार, दमदार और भाषा-साहित्य और संस्कृति की दृष्टि से समृद्ध। क्या ‘एक देश, एक भाषा’ के नाम पर किसी की उपेक्षा होनी चाहिए? हमारा देश एक गणतंत्र है जो सभी क्षेत्रों के समान अधिकार और सम्मान पर आधारित है। रूस भी विविध देशों से मिलकर बना गणतंत्र था जिसमें सभी की भाषाओं में उनके रोजगार, ज्ञान, अधिकार और सम्मान सुरक्षित थे। हो सकता है कि रूस के विघटन में कहीं क्षेत्रीय सम्मान का असंतुलन भी कोई बड़ा कारण रहा हो। पाकिस्तान में से निकल कर बांग्लादेश बनने में भाषाई अधिनायकत्त्व की भूमिका हमने स्पष्ट देखी है।
यह ठीक है कि किसी भी देश में उसके निवासियों के संवाद के लिए एक भाषा स्वतः होती है या बन जाती है या बनाई जानी चाहिए लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई भी भाषा कमतर है या किसी भाषा के बोलने वालों को बिना अतिरिक्त श्रम किए अधिक अवसर मिलेंगे जब कि दूसरों को उन अवसरों को प्राप्त करने के लिए अतिरिक्त श्रम करना पड़े।
आज के भारत में सरकार का सबसे महत्त्वपूर्ण काम यह है कि वह अनुवाद या अन्य किसी भी तरीक़े से देश की सभी भाषाओं में ज्ञान की अधिकतम सामग्री उपलब्ध करवाए। जापान में दुनिया का कोई भी शोधपत्र एक सप्ताह में जापानी में अनूदित होकर उपलब्ध हो जाता है। क्या देश के विकास की इस तीव्र गति के समय में भाषाई क्षेत्र में इस प्रकार की तीव्रता पैदा नहीं की जा सकती?
किसी एक भाषा को रोजगार या श्रेष्ठता से न जोड़ें। संपर्क का काम देश के लोगों के विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए। वे अपने आप कोई न कोई तरीका निकाल लेते हैं। क्या अब तक जो संपर्क होता रहा है वह सरकार के भरोसे था?
भाषा को भाषा ही रहने दिया जाए। अतिउत्साह में या किसी राजनीति के तहत भाषा को हथियार न बनाया जाए। उसे संवाद का माध्यम ही रहने दिया जाए। विवाद का बहाना न बनाया जाए। यह सलाह सत्ताधारी और विपक्ष दोनों के लिए है।
अपनी राय बतायें