संविधान सभा में 26 नवंबर 1946 को अपना अंतिम भाषण देते हुए डॉ.आंबेडकर ने कहा, “संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है, यदि उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों। एक संविधान चाहे जितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों। संविधान की प्रभावशीलता पूरी तरह उसकी प्रकृति पर निर्भर नहीं है। संविधान केवल राज्य के अंगों – जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका– का प्रावधान कर सकता है। राज्य के इन अंगों का प्रचालन जिन तत्वों पर निर्भर है, वे हैं जनता और उनकी आकांक्षाओं तथा राजनीति को संतुष्ट करने के उपकरण के रूप में उनके द्वारा गठित राजनीतिक दल।”
प्रारूप समिति के अध्यक्ष बतौर डॉ.आंबेडकर के लिए यह दिन बेहद महत्वपूर्ण था। यह एक सर्वथा ‘नवीन भारत’ के उदय की घोषणा थी जिसके वे प्रमुख योजनाकारों में थे। इसके बावजूद वे चिंतित थे और उनके भाषण में भविष्य को लेकर गंभीर चेतावनी थी। उन्होंने प्राचीन भारत के गणतंत्रों और बौद्धसंघों में संसदीय प्रणाली के बीज को चिन्हित करते हुए कहा, “भारत ने यह लोकतान्त्रिक प्रणाली खो दी। क्या वह दूसरी बार उसे खोएगा? मैं नहीं जानता, परंतु भारत जैसे देश में यह बहुत संभव है- जहां लंबे समय से उसका उपयोग न किए जाने को उसे एक बिलकुल नई चीज समझा जा सकता है- कि तानाशाही लोकतंत्र का स्थान ले ले। इस नवजात लोकतंत्र के लिए यह बिलकुल संभव है कि वह आवरण लोकतंत्र का बनाए रखे, परंतु वास्तव में वह तानाशाही हो। चुनाव में महाविजय की स्थिति में दूसरी संभावना के यथार्थ बनने का खतरा अधिक है।”
अफ़सोस की बात है कि संविधान लागू होने के 73वें और आज़ादी के 75वें वर्ष में जब ‘अमृत महोत्सव’ के नाम पर सरकारी आयोजनों की धूम है, डॉ.आंबेडकर की यह चेतावनी एक ख़ौफ़नाक हक़ीक़त बनकर सामने खड़ी है। संसद के हालिया बजट सत्र में विपक्षी दलों और उनकी ओर से उठाये गये मुद्दों पर मोदी सरकार की ओर से जैसी प्रतिक्रिया आई है वह ‘लोकतंत्र के आवरण में तानाशाही’ का ही स्वरूप है। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी को भेजे गये विशेषाधिकार हनन की नोटिस ने इस ख़तरे पर मुहर ही लगा दी है।
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हद तो ये है कि पक्ष और विपक्ष के बीच सौहार्द बनाये रखने की जिन पर सर्वाधिक ज़िम्मेदारी है, वे संसदीय कार्यमंत्री प्रह्लाद जोशी कह रहे हैं कि राहुल गाँधी को भेजे गए नोटिस पर इस बार ज़रूर कार्रवाई की जाएगी। बिना किसी जवाब या प्रक्रिया के आगे बढ़े हुए वे कार्रवाई करने का ऐलान किस अधिकार से कर रहे हैं? क्या ये प्रधानमंत्री की किसी इच्छा का प्रकटीकरण है?
आख़िर राहुल गाँधी का अपराध क्या है? उन्होंने लोकसभा में प्रधानमंत्री मोदी और गौतम अडानी के रिश्तों से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाये थे। ये ऐसे सवाल हैं जिनका संबंध भारतीय अर्थव्यवस्था के वर्तमान और भविष्य से है। पूरी दुनिया की रेटिंग एजेंसियाँ अडानी ग्रुप में हुए फ़र्जीवाड़े के आरोपों से जुड़ी हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट और उस पर भारत सरकार के रवैये से हैरान है। दुनिया की कोई भी लोकतांत्रिक सरकार ऐसी रिपोर्ट पर तुरंत कार्रवाई करती ताकि दुनिया के निवेशकों को ये संकेत जाये कि अगर कहीं गड़बड़ी हुई तो सरकार सख़्ती से कार्रवाई करेगी। एक ऐसे समय जब भारत की अर्थव्यवस्था विदेशी निवेश पर बेतरह आश्रित है, यह एक ज़रूरी क़दम है। लेकिन प्रधानमंत्री ने राहुल गाँधी के सवाल का जवाब तो नहीं ही दिया, उनके सवालों को संसद की कार्यवाही से भी हटा दिया।
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हैरानी की बात है कि राहुल गाँधी के सरनेम को लेकर प्रधानमंत्री मोदी की ओर से आये गरिमाहीन बयान को संसद की कार्यवाही में बरक़रार रखा गया है। राहुल गांधी ने मोदी-अडानी रिश्तों पर जो कुछ कहा, उसे हटा दिया गया।
यही नहीं, राहुल गाँधी के सवालों को कुफ़्र मानते हुए बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने विशेषाधिकार हनन का नोटिस दिया है और राहुल गाँधी की संसद सदस्यता ख़त्म करने तक की खुली धमकी दी जा रही है। उनका तर्क है कि राहुल गाँधी ने अपने आरोपों के पक्ष में कोई दस्तावेज़ी सबूत नहीं दिये और उनका बयान प्रधानमंत्री की गरिमा का अपमान करता है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने आश्चर्यजनक रूप से इस नोटिस को स्वीकार कर लिया है।
सासंदों को ये विशेषाधिकार हासिल है कि वे जिस पर चाहे सवाल उठाये। प्रधानमंत्री भी इसके अपवाद नहीं हैं। पं.नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक यही परंपरा रही है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को तो सदन के अंदर ‘चोर’ तक कहा गया था। लेकिन किसी के ख़िलाफ़ कभी विशेषाधिकार हनन का नोटिस नही जारी किया गया जबकि तमाम जाँचों और न्यायिक प्रक्रियाओं से ये प्रमाणित हो चुका है कि यूपीए दौर में लगे घोटालों के तमाम आरोप निराधार थे।
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राहुल गाँधी के सवालों को लेकर मोदी सरकार का रवैया बताता है कि संसदीय गणतंत्र की बुनियादी मान्यताएँ भी उसे राह का रोड़ा लग रही हैं।
बहरहाल, राहुल गाँधी का तेवर बता रहा है कि उन्हें ऐसी नोटिस या संसद सदस्यता खोने को लेकर कोई डर नहीं है। वे इस लड़ाई को सड़क पर ले जाने का मन बना चुके हैं जो लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है। वास्तव में राहुल गाँधी को दिया गया नोटिस भारत के लोकतंत्र को दिया गया नोटिस है। चुनावी जीत का घमंड मोदी सरकार को उसी दिशा मे ले जा रही है जिसकी आशंका डॉ.आंबेडकर के उस भाषण में दर्ज है जिसकी चर्चा लेख के शुरू मे है।
उन्होंने इस भाषण में जॉन स्टुअर्ट मिल की उस चेतावनी का भी ज़िक्र किया था जिसमें लोकतंत्र बनाये रखने मे दिलचस्पी रखने वालों से कहा गया था, “अपनी स्वतंत्रता को एक महानायक के चरणों में भी समर्पित न करें या उस पर विश्वास करके उसे इतनी शक्तियाँ प्रदान न कर दें कि वह संस्थाओं को नष्ट करने में समर्थ हो जाए।”
डॉ.आंबेडकर की आशंका सच साबित हुई है। भारत का अच्छा संविधान बुरे लोगों की बदनीयती का शिकार हो गया है।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हुए हैं)
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