तालिबान के साथ अमेरिका ने दोहा में जैसे ही समझौता किया, मैंने लिखा था कि काणी के ब्याह में सौ-सौ जोखिमें। लेकिन हमारी भारत सरकार ने उसका भरपूर स्वागत किया था। हमारे विदेश सचिव समझौते के एक दिन पहले काबुल पहुंच गए थे। वह वहां राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी और मुख्य कार्यकारी (प्रधानमंत्री) डाॅ. अब्दुल्ला से भी मिले लेकिन वहां जाकर उन्होंने किया क्या?
अमेरिका-तालिबान समझौता: बगलें न झांके भारत
- विचार
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- 4 Mar, 2020

तालिबान के साथ हुए समझौते में अमेरिका ने अपने हितों की पूरी तरह से रक्षा की है लेकिन भारत के हितों का जिक्र तक नहीं है। अफग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत ने जितना पैसा लगाया है उतना दुनिया के किसी देश ने नहीं लगाया। हमारे दूतावास और जरंज-दिलाराम सड़क पर हुए हमलों में हमारे दर्जनों इंजीनियरों, राजनयिकों और मजदूरों की बलि चढ़ी है। काबुल में क्या तालिबान के काबिज होते ही भारत को वहां से भागना नहीं पड़ेगा?
हमारा विदेश मंत्रालय क्या पिछले साल भर से अफग़ानिस्तान को लेकर खर्राटे नहीं खींच रहा है? उसने यह पता क्यों नहीं लगाया कि ट्रंप के प्रतिनिधि डाॅ. जलमई खलीलजाद और तालिबान नेता अब्दुल गनी बरादर के बीच क्या बातचीत चल रही है? उनके मुद्दे क्या-क्या हैं? हमारी सरकार हमारे राजनयिकों और गुप्तचरों पर करोड़ों रुपये रोज खर्च कर रही है लेकिन वे इतनी-सी बात का भी पता नहीं लगा पाए। क्या वे डोनाल्ड ट्रंप के झांसे में आ गए?