मैंने हाल ही में भारतीय सुप्रीम कोर्ट के एक वरिष्ठ सिटिंग जज से टेलीफोन पर बात की और उनसे कहा कि भारतीय नागरिकों के विशाल बहुमत की धारणा यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा के अपने उस कर्तव्य को बड़े पैमाने पर त्याग दिया है जिसके लिए न्यायाधीशों ने शपथ ली थी।
जिस सिटिंग जज से मैं बात कर रहा था, मैं उनसे बहुत वरिष्ठ था। मैंने उनसे कहा कि सेवानिवृत्त होने के बाद मैं जज नहीं रह गया हूँ, पर जनता का सदस्य हूँ। इसलिए मैं जनता के प्रतिनिधि के रूप में बोल रहा हूँ, न्यायाधीश के रूप में नहीं और जनता की धारणा यह है कि सुप्रीम कोर्ट अब राजनीतिज्ञों और अधिकारियों के मनमानेपन और अवैधता के ख़िलाफ़ नागरिकों की रक्षा के अपने संवैधानिक कर्तव्य को नहीं निभा रहा है और ऐसा लगता है कि उसने व्यापक तौर पर सरकार के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है।
मैंने उन जज साहब से कहा कि लॉकडाउन समाप्त होने के बाद मैं सुप्रीम कोर्ट के कुछ न्यायाधीशों के साथ बैठकर अपने विचार रखना चाहूंगा। मैंने अपने लेख 'ऑल द टाइम्स द सुप्रीम कोर्ट टर्न्ड अ नेलसंस आई टू इनजस्टिस' में इस से सम्बन्धित अपने विचार व्यक्त किए हैं, जो 'thewire.in' में प्रकाशित हुआ था।
मैंने उस लेख में कई उदाहरण दिए जिन्हें फिर से संदर्भित करने की आवश्यकता नहीं I इन उदाहरणों से यह साफ़ पता चलता है कि सुप्रीम कोर्ट नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने के अपने कर्तव्य में विफल रहा है।
26 जनवरी, 1950 को घोषित भारतीय संविधान में लोगों के मौलिक अधिकारों का जिक्र है, जो अमेरिकी संविधान के बिल ऑफ़ राइट्स पर आधारित है। न्यायपालिका को इन अधिकारों का संरक्षक बनाया गया था, अन्यथा वे केवल कागज पर बने रहते।
संविधान की घोषणा के कुछ महीने बाद ‘रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य’ मामले में सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने फैसला दिया कि लोकतंत्र में लोगों को सरकार की आलोचना करने का अधिकार है। न्यायालय ने कहा, "सरकार के प्रति आलोचनात्मक विचार या उसके प्रति बुरी भावनाएँ, इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या प्रेस की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने का आधार नहीं माना जा सकता।”
न्यायमूर्ति कुद्दोज़ की टिप्पणी
मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जस्टिस अब्दुल कुद्दोज़ ने इसी दृष्टिकोण से यही बात अलग शब्दों में हाल ही के अपने एक ऐतिहासिक फैसले में कही। ‘एन. राम बनाम यूनियन ऑफ इंडिया’ मामले में विद्वान न्यायाधीश कुद्दोज़ ने कहा, “नागरिकों को सरकार का कोई भय नहीं होना लोकतंत्र का एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू है। उन्हें उन विचारों को व्यक्त करने से नहीं डरना चाहिए चाहे वह सत्ता में रहने वालों को पसंद न हों।"
न्यायमूर्ति कुद्दोज़ ने कहा, "सरकार की नीतियों की आलोचना तब तक देशद्रोह नहीं है जब तक कि वह सार्वजनिक अव्यवस्था या हिंसा को उकसाने वाली बात न हो।"
आलोचना सुनने को तैयार रहें
न्यायमूर्ति कुद्दोज़ ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व फैसले ‘करतार सिंह बनाम पंजाब, 1956’ को ध्यान में रखते हुए कहा कि सत्ता में बैठे लोगों को 'थिक स्किण्ड' यानी मोटी चमड़ी विकसित करनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, आलोचना को सहन करने के लिए अधिकारियों के पास मज़बूत कंधे होने चाहिए। यह फैसला आज की मौजूदा स्थिति में बहुत प्रासंगिक है। आजकल सत्ता में राजनेता अक्सर बहुत ही जल्दी उत्तेजित होते हैं, उनका अहं विशाल होता है और वे किसी भी तरह की आलोचना नहीं सुन सकते।
इन जाने-माने मामलों पर गौर करें - सफूरा ज़र्गर, एक युवा गर्भवती कश्मीरी महिला नागरिकता संशोधन क़ानून की आलोचना करने के लिए गढ़े गए आरोपों में गिरफ्तार की गयी, कफील खान, शरजील इमाम आदि।
आवाज़ उठाने पर गिरफ्तारी
जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्रा को सोशल मीडिया पर पश्चिम बंगाल की सी.एम. ममता बनर्जी का कार्टून साझा करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को राजनेताओं को भ्रष्ट बताने वाले कार्टून बनाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था और लोक गायक कोवन को तमिलनाडु में शराब कारोबार में भ्रष्टाचार के संबंध में जयललिता की आलोचना करने के लिए गिरफ्तार किया गया था।
जो पत्रकार सरकार या मंत्री की आलोचना करते हैं, उन पर अक्सर एनएसए या यूएपीए जैसे भयावह क़ानूनों के अंतर्गत राजद्रोह का आरोप लगाया जाता है और हिरासत में ले लिया जाता है।
किशोर चंद वांगखेम को मणिपुर के सी.एम. बीरेन सिंह की आलोचना करने के लिए गिरफ्तार किया गया था। पत्रकार पवन जायसवाल को केवल इसलिए गिरफ्तार किया गया था क्योंकि उन्होंने मिर्जापुर के एक प्राथमिक स्कूल में बच्चों को मिड डे मील के नाम पर केवल रोटी और नमक दिए जाने की रिपोर्ट की थी।
पत्रकार अभिजीत अय्यर मित्रा को तत्कालीन सी.जे.आई (और अब सांसद गोगोई) की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने जमानत देने से इनकार कर दिया। उनका एकमात्र 'अपराध' केवल यह था कि उन्होंने कोणार्क मंदिर पर व्यंग्यपूर्ण ट्वीट पोस्ट किया था जिसके लिए उन्होंने तुरंत ही माफ़ी भी मांगी थी।
11 मई, 2020 को, एक गुजराती ऑनलाइन पोर्टल 'द फेस ऑफ द नेशन’ के संपादक धवन पटेल को एक समाचार प्रकाशित करने के लिए राजद्रोह के इलज़ाम में गिरफ्तार कर लिया गया। समाचार में उन्होंने सिर्फ इतना कहा था कि गुजरात के सी.एम विजय रूपानी को हटाया जा सकता है।
इस तरह के कई और अनगिनत मामलों के उदाहरण दिए जा सकते हैं। सवाल यह है कि द्रौपदी के वस्त्रहरण के दौरान जिस तरह भीष्म पितामह ने अपनी आंखें मूंद ली थीं, ठीक उसी तरह क्या सुप्रीम कोर्ट को इन घोर और भयावह मामलों को नज़र अंदाज़ कर देना चाहिए? उसके बाद सुप्रीम कोर्ट के उन फैसलों के क्या मायने रह जाएंगे जिनमें सुप्रीम कोर्ट ने खुद को लोगों के अधिकारों का संरक्षक कहा था?
व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अहमियत
‘घनी बनाम जोन्स 1970’ में लॉर्ड डेनिंग ने कहा था, "इंग्लैंड के कानून में लिबर्टी ऑफ़ मूवमेंट को इतनी अधिक मान्यता दी गयी है कि इसमें किसी भी तरह की बाधा या रुकावट नहीं डाली जा सकती।" जब भी कोई बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका किसी ब्रिटिश न्यायाधीश के सामने आती है, तो वह अन्य सभी फाइलों को हटा देता है और इस याचिका को हर दूसरे मामले से अधिक प्राथमिकता देता है, क्योंकि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित होती है।
लेकिन 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद हिरासत में लिए गए कश्मीरी नेताओं के बंदी प्रत्यक्षीकरण मामलों में सुप्रीम कोर्ट का प्रदर्शन कैसा था? मामलों को महीने-दर-महीने स्थगित कर दिया गया और कई अभी भी लंबित हैं। जबकि अर्नब गोस्वामी की याचिका जिन्हें सरकार से उनकी आत्मीयता के लिए जाना जाता है, को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी। इससे क्या संदेश जाता है?
मेरी राय में सुप्रीम कोर्ट (और हाई कोर्ट) को अवैध रूप से गिरफ्तार किए गए इन लोगों पर चल रहे मुक़दमों पर स्वत: संज्ञान लेना चाहिए था। न केवल अवैधताओं को रोकने वाली सरकार पर बल्कि उन पुलिस अधिकारियों पर भी, जिन्होंने इन अवैध आदेशों का पालन किया। दोनों पर भारी जुर्माना लगाना चाहिए और कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए।
मेरे लेख 'क्या पुलिसकर्मियों को अवैध आदेश का पालन करना चाहिए’, में मैंने कहा कि पुलिस कर्मियों को ग़ैर क़ानूनी आदेश का पालन करने से इनकार कर देना चाहिए (प्रकाश कदम बनाम रामप्रसाद विश्वनाथ गुप्ता पर दिए गए मेरे फैसले को ऑनलाइन पढ़ें)।
न्यूरेम्बर्ग मुक़दमों में नाजीयुद्ध अपराधियों ने यह दलील दी थी कि वे केवल अपने वरिष्ठ अधिकारी हिटलर के आदेशों का पालन कर रहे थे लेकिन उस दलील को खारिज कर दिया गया और कई मुजरिमों को फांसी दी गई।
अब समय आ गया है कि न्यायालयों को जनता की स्वतंत्रता की रक्षा के अपने कर्तव्य को फिर से शुरू करना चाहिए और उन राजनेताओं पर जो अवैध गिरफ्तारी और हिरासत के आदेश देते हैं, साथ ही वे पुलिसकर्मी जो राजनीतिक अधिकारियों के ऐसे अवैध आदेशों को पूरा करते हैं, दोनों पर भारी जुर्माना लगाना चाहिए।
अपनी राय बतायें