सुप्रीम कोर्ट ने आख़िरकार इस बात को समझा कि लोकसभा चुनाव के दौरान किसी राष्ट्रीय पार्टी के मुखिया और मुख्यमंत्री को चुनाव प्रचार और चुनाव में अपनी भूमिका निभाने से नहीं रोका जा सकता है। अगर लोकतंत्र के इस मूल स्वभाव को नज़रअंदाज़ किया जाता कि चुनाव में भागीदार सभी प्रत्याशियों और राजनीतिक दलों को समान अवसर दिए जाने चाहिए तो निश्चित रूप से भविष्य के लिए अप्रिय परिस्थितियों की बुनियाद मज़बूत होती। आज भी सिर्फ़ और सिर्फ़ विपक्ष के नेता ही सेलेक्टिव तरीक़े से जाँच एजेंसियों के चंगुल में हैं जबकि भ्रष्टाचार के आरोपी जो सत्ता पक्ष से हैं आज़ाद हैं। जांच एजेंसियों से ऐसे भ्रष्टाचारी बच भी निकलते हैं जब विपक्ष से सत्तापक्ष की ओर निष्ठा का परिवर्तन कर लेते हैं।
यह नहीं भूलना चाहिए कि अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद की गयी। इतना ही नहीं, केजरीवाल की गिरफ्तारी जिस शराब घोटाले में हुई है उसमें उनका नाम दो साल बाद जोड़ा गया। यह कहने में बिल्कुल संकोच नहीं होना चाहिए कि गैर बराबरी के माहौल में आम आदमी पार्टी को लोकसभा का चुनाव लड़ने लिए मजबूर किया गया है। यह सवाल भी उठेंगे कि गुजरात, जो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का गृहप्रदेश और बीजेपी का मजबूत गढ़ है, जहां विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने साढ़े बारह प्रतिशत के करीब वोट हासिल किया था, वहां अरविंद केजरीवाल की गैरमौजूदगी से सबसे बड़ा फायदा बीजेपी को हुआ और सबसे बड़ा नुक़सान स्वयं आदमी पार्टी और उसके गठबंधन इंडिया को हुआ। गुजरात में चुनाव संपन्न हो जाने के बाद अरविंद केजरीवाल को जमानत देने पर सुप्रीम कोर्ट विचार करता दिखा। क्या यह महज संयोग है?
इस संयोग को मान लेते हैं क्योंकि अभी दिल्ली में लोकसभा का चुनाव होना बाकी है जहां सभी 7 सीटों पर बीजेपी के सांसद हैं। वहीं, दिल्ली में विधानसभा की सरकार आम आदमी पार्टी की है और एमसीडी का चुनाव भी पार्टी ने कुछ महीने पहले जीता है। ऐसे में लोकसभा चुनाव के दौरान समान अवसर नहीं देने की शिकायत किसी हद तक दूर होगी अगर अरविंद केजरीवाल को अंतरिम जमानत मिलती है। लेकिन, अंतिरम जमानत पर विचार करते हुए जो तर्क ईडी की ओर से पेश किए गये और स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने जो आशंकाएं व्यक्त कीं- वे काबिले गौर हैं।
केजरीवाल के छूटने के ‘व्यापक’ प्रभाव
अरविंद केजरीवाल जमानत पर छूटेंगे तो इसका व्यापक प्रभाव (Cascading Effect) पड़ सकता है। ईडी की यह दलील अजीबोगरीब है कि अरविंद केजरीवाल को जमानत के दौरान मुख्यमंत्री का अधिकार नहीं होना। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बात पर हामी भरी। बड़ा सवाल यही है कि अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री का अधिकार किसने दिया है?
मगर, इस प्रश्न को भुलाया जा रहा है कि समन 9 बार दिए गये। कार्रवाई तीसरे समन से की जा सकती थी। क्यों रुकी रही? और, जब ईडी रुकी रही तो चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद क्यों सक्रिय हुई?
सुप्रीम कोर्ट ने बहुत देर से यह महसूस किया कि यह साधारण मामला नहीं है कि चुनाव चल रहे हैं और मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के मुखिया जेल में हैं। एक और बात जो सुप्रीम कोर्ट को महसूस करना चाहिए वह यह है कि अगर अरविंद केजरीवाल से मुख्यमंत्री के अधिकार ले लिए जाएंगे तो इससे एलजी का मनोबल बढ़ेगा। एलजी इसी आधार पर अरविंद केजरीवाल की सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश कर सकते हैं। फिर सुप्रीम कोर्ट पर यह तोहमत हमेशा के लिए लग जाएगी कि उसके कारण ही ऐसी परिस्थिति बनी कि एलजी ने एक चुनी हुई सरकार को बर्खास्त किया। हालांकि ये कल्पनाएं हैं। मगर, ऐसी कल्पना को हकीकत बनाने के लिए परिस्थितियां तो तैयार हो ही रही हैं। जिज्ञासा इसी बात की है कि क्या अरविंद केजरीवाल अधिकारविहीन सीएम होकर आजादी को कबूल करेंगे? या फिर वे प्रतिकार करेंगे?
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