सामाजिक न्याय के मसले पर कांग्रेस ख़ासतौर पर राहुल गाँधी की आक्रामकता को बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका बेहद हैरानी से देख रहा है। जातिवार जनगणना या आरक्षित पदों के खाली रहने का मुद्दा कांग्रेस इतना ज़ोर-शोर से उठाएगी, ऐसा उन्होंने नहीं सोचा था। उनकी नज़र में कांग्रेस ने बीती सदी के आख़िरी दशक में आर्थिक सुधार की नीतियों के ज़रिए अपने ‘समाजवादी अतीत’ से पीछा छुड़ा लिया है और अब पूँजी के मुक्त प्रवाह के ज़रिए होने वाला विकास ही एकमात्र रास्ता है। ये हैरानी एक चिढ़ में बदलती दिखती है जब मशहूर बुद्धिजीवी प्रताप भानु मेहता इंडियन एक्सप्रेस के अपने लेख The mirage of social justice (सामाजिक न्याय की मृग मरीचिका) में हिंदुत्व के जवाब में सामाजिक न्याय के एजेंडे को ‘ज़हर का गहरा प्याला’ बताते हैं।
वैसे तो मनुष्य ने जाति या अन्य किसी भी अस्मितावादी सीमा को बार-बार लाँघकर दिखाया है लेकिन क्या यह महज़ संयोग है कि सामाजिक न्याय के अचानक राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आने से बौखला रहे बुद्धिजीवी ‘सवर्ण समाज’ से ही आते हैं? आख़िर जिनके पास हज़ारों साल की सामाजिक और शैक्षिक पूँजी है, वे वंचित तबकों को उनकी हिस्सेदारी देने की बात आते ही बिलबिला क्यों उठते हैं? उन्हें जाति बीते ज़माने की चीज़ तभी क्यों लगती है जब आरक्षण या जातिवार जनगणना की बात होती है, वरना अपने इर्दगिर्द जाति के आधार पर अवसरों की जारी खुली लूट पर उनका ग़ुस्सा कभी नहीं फूटता। प्रेमविवाहों के ज़रिए बन रहे वैवाहिक संबंधों के प्रति वे कुछ लचीले ज़रूर नज़र आते हैं, लेकिन ‘अरैंज मैरिज’ के विज्ञापनों में जाति-गोत्र का उल्लेख वे स्वाभाविक ही मानते हैं। ये संयोग नहीं कि विश्वविद्यालयों के नामी प्रोफ़ेसरों के बीच बनने वाला ‘समधियाना’ भी जाति के दायरे में ही नज़र आता है।
समस्या ये है कि जाति या अन्य भेदभाव को लेकर सवर्ण बौद्धिक तबके का दोहरा रवैया अब किसी ‘दार्शनिक आवरण’ से छिपाये नहीं छिप रहा है। वे कह रहे हैं कि जातिवार जनगणना से जाति ख़त्म नहीं होगी, लेकिन जाति ख़त्म करने का कौन सा एजेंडा उनके पास है, या उन्होंने इस मक़सद से व्यक्तिगत या संगठित प्रयास के किसी रूप को चिन्हित किया है, वे बताने को तैयार नहीं हैं। और सबसे बड़ी बात ये है कि ‘डाटा’ के इस युग में अगर जातिवार जनगणना सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में विभिन्न जातियों के हाशिये या वर्चस्वशाली स्थिति में होने का कोई प्रामाणिक ख़ाका सामने रखती है तो इससे समस्या क्या है। किसी बीमार का क्लीनिकल टेस्ट रोकना तो उसे मारने की साज़िश ही हो सकती है। समाज आंतरिक रूप से क्षयग्रस्त रहे तो रहे, लेकिन बीमारी पर बात न हो, ये कैसी ज़िद है? या फिर हर क्षेत्र में कुछ जातियों के अतिरेकी रूप से क़ाबिज़ होने की बात खुल जाने का डर है!
‘जितनी आबादी, उतना हक़’ का नारा देते हुए राहुल गाँधी ये सवाल उठा रहे हैं कि भारत सरकार में महज़ 7% सचिव स्तर के अधिकारी दलित, आदिवासी या पिछड़े वर्गों के क्यों हैं जबकि इनकी आबादी बहुत ज़्यादा है। राहुल गाँधी की इस आक्रामकता से परेशान हो रहे बौद्धिकों को खुद से ये सवाल पूछना चाहिए कि इस असंतुलन ने उन्हें चिंतित क्यों नहीं किया? अगर विश्वविद्यालयों में वंचित तबकों से आने वाले कुलपति ढूँढे नहीं मिलते तो यह बात उन्हें सहज क्यों लगती है? अगर इस सब पर बेहिसी के पीछे जाति के सोपानक्रम में उनका ऊपर होना नहीं है तो और क्या है?
कांग्रेस ने सामाजिक न्याय को राजनीति के केंद्र में लाकर साबित कर दिया है कि भारत नाम के विचार में अभी कई रंग उसकी कूचियों से भरे जाने हैं। हर दौर में एक ऐसा नारा होता है जिसकी परिवर्तन की चालक शक्तियों को प्रतीक्षा होती है। कांग्रेस ने इतिहास की इस पुकार को हमेशा स्वर दिया है। यही वजह है कि कभी उसका नारा ‘असहयोग’ था तो कभी ‘सविनय अवज्ञा’, कभी ‘भारत छोड़ो’ था तो कभी ‘समाजवाद’, आज यह ‘जितनी आबादी, उतना हक़’ के रूप में एक अधूरे एजेंडे को पूरा करने के कार्यभार के साथ सामने आया है, जिसमें राज ही नहीं समाज को बदलने की क्षमता है।
यह सवाल बिल्कुल सही है कि ‘जितनी आबादी-उतना हक़’ की भावना ज़मीन पर उतारने की क्षमता मौजूदा व्यवस्था में नहीं है, ख़ासतौर पर जब सार्वजनिक क्षेत्र बुरी तरह सिकुड़ रहा हो। लेकिन इससे यही साबित होता है कि इस नीति को उलटने की ज़रूरत है। बात इतने से भी बनने वाली नहीं है। सामाजिक न्याय की राजनीति की यह दिशा निजी क्षेत्र में आरक्षण का द्वार भी खोलेगी। ‘जातिवार जनगणना’ से चिंहुक रहे तबके को यह आशंका भी खाये जा रही है। लेकिन वे भूल जाते हैं कि सबसे बड़े लोकतंत्र यानी अमेरिका में ‘अफर्मेटिव ऐक्शन’ के ज़रिए बड़ा बदलाव लाया गया है। इसके तहत तमाम कंपनियों पर यह दबाव बनाया जाता है कि वे महिलाओं, अश्वेतों, धार्मिक अल्पसंख्यकों, आदिवासियों आदि वंचित समूहों को प्रतिनिधित्व दें। इसके हिसाब से कंपनियों की रेटिंग होती है और उन्हें तमाम सुविधाएँ दी जाती हैं या नहीं दी जाती हैं।
नतीजा ये है कि आज वहाँ एक समावेशी समाज बनता दिख रहा है। अंतरधार्मिक और अंतरनस्ली विवाह सामान्य होते जा रहे हैं। हॉलीवुड के बहुत से हीरो-हिरोइन उस अश्वेत समाज से आते हैं जो कभी गुलाम से ज़्यादा हैसियत नहीं रखते थे। बॉलीवुड के रुपहले पर्दे पर ही सही, क्या हम किसी ऐसे हीरो को देख पाते हैं जिसके सरनेम से उसके दलित होने का पता चलता है? किसी दलित समाज के व्यक्ति के हीरो बनने की बात तो जाने ही दीजिए।
भारत में जातिवार जनगणना के नतीजे और ‘जितनी आबादी-उतना हक़’ का सिद्धांत ऐसा ही परिदृश्य रचेगा। विभिन्न स्तरों पर विभिन्न जातियों की हिस्सेदारी उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाएगी जो गैरबराबरी की दीवारों को ढहाने की पहली शर्त है। बेहतर हो कि सवर्ण बौद्धिक भी परिवर्तन के इस ऐतिहासिक मोड़ का स्वागत करें। वरना स्वादेंद्रियों पर जमा गैरबराबरी का मैल मनुष्यता के स्वाद से वंचित ही रखेगा!
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं)
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