जम्मू कश्मीर पर सरकार की नीति बदल रही है क्या? क्या मोदी सरकार ‘देशद्रोही’ हुर्रियत कॉन्फ़्रेंस के नेताओं से बात करेगी? क्या सरकार ने हुर्रियत के नेताओं को देशद्रोही मानना बंद कर दिया या वह उन्हें देशभक्त मानने लगी है? क्या सरकार का ह्रदय परिवर्तन हो गया है? ये कुछ सवाल हैं जिनके जवाब खोजना शायद अब ज़रूरी हो गया है। जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक की बोली इधर बदली है। वह शांति और बातचीत की बात करने लगे हैं। हुर्रियत ने भी कहा है कि बातचीत से ही सकारात्मक नतीजे निकल सकते हैं। तो क्या मामला वाक़ई गंभीर है?
कश्मीर समस्या को लेकर मोदी सरकार का रवैया पहले ही दिन से पहले की सरकारों की तुलना में काफ़ी अलग रहा है। यहाँ तक कि बीजेपी की वाजपेयी सरकार से भी इस सरकार ने कोई प्रेरणा नहीं ली। वाजपेयी सरकार पर भी आरएसएस की विचारधारा का असर था। लेकिन मिलीजुली सरकार होने की वजह से वाजपेयी ने कभी भी संघ के एजेंडे को कश्मीर पर थोपने की कोशिश नहीं की। उनकी सरकार का नज़रिया नरमपंथी था। उन्होंने कहा था कि कश्मीर की समस्या जम्हूरियत, कश्मीरियत और इंसानियत के दायरे में ही निकलेगा। इसका कश्मीर में काफ़ी स्वागत हुआ था। उनके समय में कारगिल की लड़ाई हुई और संसद पर भी आतंकवादी हमले हुए लेकिन बातचीत में ये हादसे कभी आड़े नहीं आये।
मोदी सरकार की नीति ‘हार्डलाइन’ की रही है। इसके समय में कश्मीर को एक तरह से ‘देश निकाला’ दे दिया गया। राष्ट्रवाद की जो नयी परिभाषा गढ़ी गयी उसमें कश्मीर के नेता और वहाँ के बाशिंदे देशद्रोही हो गये। उनसे किसी तरह की बातचीत की गुँजाइश एक तरह से ख़त्म कर दी गयी।
पिछले पाँच सालों में कश्मीर पर हर बहस राष्ट्रवाद, देशभक्ति और देशप्रेम पर सिकुड़ कर रह गयी है और कश्मीर को देशद्रोह के खाते में डाल दिया गया है। उनके सभी नेता भी उसी खाँचे में फ़िट कर दिये गये हैं। उनसे बातचीत की किसी भी कोशिश को ख़त्म कर दिया गया था। हुर्रियत के नेताओं के यहाँ छापे डाले गये। उनको गिरफ़्तार किया गया। नज़रबंद कर दिया गया। उनके खातों की पड़ताल की गयी और यह निष्कर्ष निकाला गया कि उन्हें पाकिस्तान से पैसे आते हैं और वे उस पैसे का इस्तेमाल कश्मीर को देश से अलग करने की साज़िश में लगा रहे हैं।
‘गोली का बदला गोली’ की नीति
यह सच है कि इस दौरान बीजेपी ने पहली बार कश्मीर की सरकार में शिरकत की। पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनायी। मुफ़्ती मुहम्मद की सरकार तो ठीकठाक चल गयी पर महबूबा के साथ ज़्यादा नहीं निभी। बीजेपी कभी पीडीपी को पृथकतावादी कहती थी। ऐसे में उसके साथ सरकार में शामिल होना हैरान करने वाला था। पर इस सरकार की वजह से बीजेपी को कश्मीर घाटी में पैर पसारने में मदद मिली। फिर बाद में पंचायत चुनाव में भी वह अपने आप को फैलाने में कामयाब रही। पर उसके नज़रिये में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया। सरकार की नीति में नरमी नहीं दिखी। सेना प्रमुख और दूसरी सुरक्षा एजेंसियों की ज़बान सख़्त थी। ‘गोली का बदला गोली’ वाली स्ट्रैटजी पर चलती रही। इस दौरान कश्मीर में उग्रवाद में काफ़ी तब्दीली आयी। आतंकवाद का स्वरूप बदला। धीरे-धीरे विदेशी आतंकवादियों की संख्या कम होने लगी और स्थानीय आतंकवादी बढ़ने लगे। कश्मीर के पढ़े लिखे युवा बंदूक़ उठाने लगे।
बुरहान वानी कश्मीर के युवाओं के लिए आइकन बन गया। उसके मारे जाने के बाद कश्मीर उबल पड़ा। हिंसा की वारदातों में बढ़ोतरी हुई। आतंकवादियों को नये रंगरूट आसानी से मिलने लगे। 2015 में अगर सिर्फ़ 66 स्थानीय युवा आतंक के रास्ते पर बढ़े तो 2018 तक यह आँकड़ा 198 तक बढ़ गया।
आतंकियों की संख्या में बढ़ोतरी कश्मीर के लिए बुरी ख़बर थी। लेकिन सरकार के रवैये में बदलाव नहीं आया। कश्मीर के हालात बिगड़ते चले गये। ऐसे में अगर बातचीत की पहल होती है तो उसका स्वागत होना चाहिए। लेकिन यह बातचीत हवा में नहीं हो सकती।
इस बातचीत (अगर होती है तो) की कामयाबी के लिये पाँच बातें ज़रूरी हैं।
- एक
पाकिस्तान कश्मीर समस्या का एक ज़रूरी पहलू है। कश्मीर पर कोई भी फ़ॉर्मूला बिना उसकी रज़ामंदी के सफल होगा इसमें मुझे संदेह है। आतंकवाद को पाकिस्तान प्रश्रय देता है। उन्हें हथियार देने, ट्रेनिंग कराने से लेकर सब तरह की मदद करता है। पाकिस्तान अगर हाथ खींच ले तो आतंकवाद की कमर टूट जाएगी। ऐसे में पाकिस्तान को भी बातचीत की मेज़ पर लाना होगा। मोदी सरकार का कहना है कि जब तक आतंकवाद जारी है तब तक पाकिस्तान से कोई बातचीत नहीं होगी। ऐसे में हुर्रियत से बातचीत का कोई हल निकलेगा, मुझे शक है।
- दो
कश्मीर के घाव पर मरहम लगाने का काम करना होगा। उन्हें देशद्रोही व देश का दुश्मन कहना और वैसी उनकी इमेज बनाना बंद करना होगा। कश्मीर में सुरक्षा एजेंसियों का ‘गोली के बदले गोली’ की नीति का त्याग करना होगा। युवा वर्ग को यह भरोसा देना होगा कि भारत सरकार उनकी बात पर ग़ौर करने और उस पर अमल करने को तैयार है और भारत सरकार बंदूक़ की जगह बातचीत से समस्या का हल खोजने के लिये संजीदा है। इसके लिये सेना और सुरक्षा बलों को काफ़ी संयम बरतना होगा। हिंसा का जवाब हिंसा से देने से हालात कभी भी क़ाबू में नहीं आएँगे। उन्हें यह बताना होगा कि कश्मीर की समस्या क़ानून और व्यवस्था की समस्या नहीं है। यह एक राजनीतिक समस्या है। इसका हल बंदूक़ की नली से नहीं निकलेगा। लोगों को सरकार की नीयत पर भरोसा होने लगेगा तो आतंकवाद को स्थानीय लोगों का समर्थन कम होने लगेगा।
- तीन
हुर्रियत के नेताओं को जेल से निकालना होगा। बाद में उन्हें नज़रबंद करने की नीति छोड़नी होगी। भले ही उनका प्रभाव जनता में बहुत कम हो पर उनकी गिरफ़्तारी नकारात्मकता को जन्म देती है और माहौल को बिगाड़ देती है।
- चार
कश्मीर की स्थापित पार्टियों को भी इस बातचीत में शामिल करना होगा। घाटी में उनकी मौजूदगी का फ़ायदा बातचीत के लिये माहौल बनाने में करना होगा। नेशनल कॉन्फ़्रेंस और पीडीपी राजनीतिक दल हैं और इनके अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र हैं और ये भारत सरकार के लिये काफ़ी अहम साबित हो सकते हैं।
- पाँच
कुछ राष्ट्रीय टीवी चैनल को बहस का लहज़ा बदलना होगा। ये बहसें अकसर भड़काऊ होती है। इन्हें भी समझना होगा कि कश्मीर की बहस को सिर्फ़ राष्ट्रवाद के चश्मे से ही नहीं देखा जा सकता है। भारत सरकार की तरफ़ से मध्यस्थ नियुक्त होने के बाद दिनेश्वर शर्मा ने एक रिपोर्ट गृह मंत्रालय को दी थी जिसमें पाँच टीवी चैनलों का ज़िक्र किया गया था कि इनकी वजह से कश्मीर के हालात बिगड़ रहे हैं।
कश्मीर की समस्या पुरानी समस्या है। इसकी वजह से देश पर आतंकवाद का साया हमेशा बना रहता है। ऐसे में यह समस्या जितनी जल्दी सुलझे उतना ही अच्छा होगा। पर बड़ा सवाल है कि क्या केंद्र सरकार अपना रवैया बदल कर बिना किसी पूर्वाग्रह के बातचीत की पहल करेगी?
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